Sunday, August 1, 2021

सही अर्थों में आधुनिक भारत के निर्माता थे लोकमान्य तिलक


        आज  "स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है...." के महान नारे का उदघोष करने वाले, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महानायक लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक की पुण्यतिथि है.
        तिलक को आधुनिक भारत का निर्माता कहा जा  सकता है. उन्होंने स्वाधीनता संघर्ष के साथ साथ लोगों में जागरूकता लाने और उनके विकास के लिए शिक्षा पर बहुत बल दिया था.
         स्वाधीनता संघर्ष में  कांग्रेस में  'लाल-बाल-पाल ' का एक यादगार युग रहा है .  तिलक इस त्रिवेणी के एक प्रमुख सदस्य थे. 'केसरी  एवं 'मराठा' समाचार पत्रों के माध्यम से उन्होंने जन जागरूकता का महान कार्य किया.
उनका सार्वजनिक जीवन 1880 में एक शिक्षक के रूप में आरम्भ हुआ.
          तत्कालीन भारत के उस समय के वाइसरॉय लॉर्ड कर्ज़न ने जब सन 1905 में बंगाल का विभाजन का निर्णय लिया, तो बंगाल में इस विभाजन को रद्द कराने के लिये आंदोलन शुरू हो गया. तिलक 'बंग भंग' का मुखर विरोध किया और ब्रिटिश वस्तुओं के बहिष्कार की अपील की और यह आंदोलनएक देशव्यापी आंदोलन बन गया.
         भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नरम पंथी गुट से तिलक सहमत नहीं थे. तिलक के विचार उग्र थे. ननरपंथी छोटे सुधारों के लिए सरकार के पास वफ़ादार प्रतिनिधिमंडल भेजने में विश्वास रखते थे जबकि  तिलक का लक्ष्य स्वराज्य था, छोटे- मोटे सुधार नहीं और उन्होंने कांग्रेस को अपने उग्र विचारों को स्वीकार करने के लिए राज़ी करने का प्रयास किया. इस मामले पर 1907  में कांग्रेस के सूरत अधिवेशन में नरम दल के साथ उनका घोर वादविवाद हुआ. इस अधिवेशन में कांग्रेस 'गरम दल' और 'नरम दल' में विभाजित हो गई. गरम दल में तिलक के साथ लाला लाजपत राय और बिपिन चन्द्र पाल शामिल थे. ये तीनों को ' लाल-बाल-पाल ' के नाम से इतिहास में प्रसिद्ध हैं.
         1908 में तिलक ने क्रांतिकारी प्रफुल्ल चाकी और खुदीराम बोस के बम हमले का समर्थन किया जिसके कारण सरकार ने उन पर राजद्रोह का आरोप लगाकर मुकदमा चलाया. तिलक का मुकदमा मुहम्मद अली जिन्ना ने लड़ा. परंतु तिलक को 6 वर्ष कैद की सजा सुना दी गई और  मांडले (तत्कालीन बर्मा ,वर्तमान म्यांमार) भेज दिया गया. जेल से छूटकर वे फिर कांग्रेस में शामिल हो गए और 1916-18 में ऐनी बेसेंट और मुहम्मद अली जिन्ना के साथ उन्होंने 'अखिल भारतीय होम रुल लीग' की स्थापना की. तिलक का स्पष्ट मत था -"स्वराज हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूंगा."
1916 में मुहम्मद अली जिन्ना के साथ उन्होंने 'लखनऊ समझौता' किया, जिसमें स्वातंत्र्य संघर्ष में हिन्दू- मुस्लिम एकता का प्राविधान था.
         तिलक 'बाल विवाह' के विरुद्ध थे उन्होंने अपने कई भाषणों में इस सामाजिक कुप्रथा का विरोध किया. वह एक अच्छे लेखक भी थे. उनका  जेल में लिखा 'गीता रहस्य''  गीता पर एक अत्यंत उत्कृष्ट भाष्य है  . मराठी में 'केसरी' और अंग्रेज़ी में 'द मराठा' समाचार पत्रों के माध्यम से  अपने लेखों से लोगों की राजनीतिक चेतना की अलख  जगाने का कार्य किया .
         तिलक ने बंबई में अकाल और पुणे में प्लेग की  महामारी के समय इसके विरुद्ध संघर्ष में सक्रिय भूमिका निभाई जिसकी वजह से लोगों के हृदय में उन्होंने एक अविस्मरणीय स्थान बना लिया था.
         1 अगस्त, 1920 को मुंबई में लोकमान्य तिलक का निधन हो गया. उन्हें श्रद्धांजलि व्यक्त करते हुये गाँधी जी ने उन्हें 'आधुनिक भारत का निर्माता ' बताया. पं जवाहर लाल नेहरू ने उन्हें ' भारतीय क्रांति के जनक' कहा. तिलक सही अर्थो में आधुनिक भारत की नींव रखने वाले पुरोधा थे.
         पुण्यतिथि पर उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि.
                        🙏🙏🙏
           
        
           



Saturday, July 24, 2021

हमारी संस्कृति का एक गौरवपूर्ण अध्याय है 'गुरु परंपरा'

हमारे देश में आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा को 'गुरु पूर्णिमा ' के पर्व के रूप में मनाया जाता है. इस दिन महर्षि वेदव्यास का जन्म भी हुआ था, इसलिए इसे 'व्यास पूर्णिमा' भी कहते हैं.
         सामान्यतः हम लोग शिक्षा प्रदान करने वाले को ही गुरु समझते हैं, लेकिन वास्तव में ज्ञान देने वाला शिक्षक बहुत आंशिक अर्थों में गुरु होता है. जन्म जन्मान्तर के संस्कारों से मुक्त करा जो व्यक्ति या सत्ता ईश्वर तक पहुंचा सकती हो. ऐसी सत्ता ही गुरु हो सकती है.
           हमारे समाज ने प्रारंभ से ही गुरु की महत्ता को स्वीकारा है।'गुरु बिन ज्ञान न होहि' का सत्य भारतीय समाज का मूलमंत्र रहा है।माता बालक की प्रथम गुरु होती है,क्यों की बालक उसी से सर्वप्रथम सीखता है l 
           भारतीय धर्म , साहित्य और संस्कृति में अनेक ऐसे दृष्टांत भरे पड़े हैं , जिनसे गुरु का महत्त्व प्रकट होता है। यहां तक 'वशिष्ठ' को गुरु रूप में पाकर श्रीराम ने ,'अष्टावक्र 'को पाकर जनक ने और सांदीपनि 'को पाकर श्रीकृष्ण - बलराम ने अपने आपको बड़भागी माना l
          अनेक शास्त्रों में गुरु की महत्ता का वर्णन करते हुए संत कबीर ने लिखा-
          "गुरु गोविन्द   दोऊ खड़े, काके लागूं पांय।
            बलिहारी गुरू अपने गोविन्द दियो बताय।।"
       ' गुरुगीता 'में गुरु महिमा का वर्णन इस प्रकार मिलता है
           "गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः ,गुरुर्देवो   महेश्वरः।
            गुरुर्साक्षात परंब्रह्म ,तस्मै श्रीगुरवे नमः।।"
(अर्थात्, गुरु ही ब्रह्मा है, गुरु ही विष्णु है और गुरु ही भगवान शंकर है। गुरु ही साक्षात परब्रह्म है। ऐसे गुरु को मैं प्रणाम करता हूँ।) 
           तुलसीदास जी भी गुरु को भगवान से भी श्रेष्ठ मानते है। वे ' रामचरितमानस' में लिखते हैं-
        "गुरु बिनु भवनिधि तरइ न कोई।
         जों  बिरंचि   संकर    सम  होई।।"
(अर्थात्, भले ही कोई ब्रह्मा, शंकर के समान क्यों न हो, वह गुरु के बिना भव सागर पार नहीं कर सकता।) 
         "बंदउँ गुरुपद कंज, कृपासिंधु   नररूप   हरि।
          महामोह तम पुंज, जासु बचन रबिकर निकर।।"
(अर्थात्, गुरु मनुष्य रूप में नारायण ही हैं। मैं उनके चरण कमलों की वन्दना करता हूँ। जैसे सूर्य के निकलने पर अन्धेरा नष्ट हो जाता है, वैसे ही उनके वचनों से मोहरूपी अन्धकार का नाश हो जाता है।) 
            भगवान श्रीकृष्ण ने 'गीता' में अपने सखा अर्जुन को समझाते हुए कहते हैं
         "सर्वधर्मान्परित्यज्य   मामेकं  शरणं       व्रज।
          अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यिा माम शुचः ।।"
(अर्थात् सभी साधनों को छोड़कर केवल नारायण स्वरूप गुरु की शरणगत हो जाना चाहिए। वे उसके सभी पापों का नाश कर देंगे। शोक नहीं करना चाहिए।) 
           'वाल्मीकि रामायण' में भी कहा गया है -
         "स्वर्गो धनं वा धान्यं वा विद्या पुत्राः सुखानि च ।
          गुरु वृत्युनुरोधेन   न   किंचितदपि     दुर्लभम् ।।"
(अर्थात्    गुरुजनों   की     सेवा       करने     से स्वर्ग,धन-धान्य,विद्या,पुत्र,सुख आदि कुछ भी दुर्लभ नहीं है।) 
           बदलते सामाजिक परिवेश में यद्यपि 'गुरु शिष्य परंपरा अपना प्राचीन गौरव खो बैठी है, पर प्राचीन आदर्श  आज  भी हमारे संस्कारों में है l  आज भी अपने शिक्षक के प्रति सम्मान का भाव हमारे मन में रहता है।
           कुछ अति बुद्धिजीवी हर प्राचीन परंपरा में मीन मेख निकालना अपनी शान समझते हैं ले  उन्हें एकमात्र एकलव्य एवं द्रोणाचार्य का दृष्टांत याद रहता है, वशिष्ठ, सांदीपनि जैसे  दृष्टांत याद नहीं रहते ल यह नकारात्मकता उचित नहीं है l
           हमारी संस्कृति का एक गौरवपूर्ण अध्याय है l

Saturday, June 19, 2021

अलविदा मिल्खा सिंह जी

            भारत के महान धावक एवं एथलेटिक्स में देश का गौरव बढ़ाने वाले पद्मश्री मिल्खा सिंह जी का गत दिवस (शुक्रवार )को निधन 91 वर्ष कीआयु में निधन हो गया. वे कोरोना संक्रमण से ग्रसित थे.
            मिल्खा सिंह जी का जन्म 20 नवंबर 1929 को अविभाजित भारत के गोविंदपुरा में  एक किसान परिवार में हुआ था. वे अपने माता पिता की  15 संतानों में से एक थे. विभाजन की त्रासदी  के दौरान उनके माता-पिता  एवं आठ भाई-बहन मारे गए. इस  भयावह हादसे  के बाद मिल्खा सिंह पाकिस्तान से ट्रेन की महिला बोगी में छिपकर किसी तरह दिल्ली पहुंचे.
           मिल्खा सिंह जी ने देश के  विभाजन के बाद दिल्ली के शरणार्थी शिविरों में अपने दुखदायी दिनों को याद करते हुए एक बार कहा था, '"जब पेट खाली हो तो देश के बारे में कोई कैसे सोच सकता है? जब मुझे रोटी मिली तो मैंने देश के बारे में सोचना शुरू किया." इन विषम परिस्थितियों से उत्पन्न आक्रोश ने उन्हें आखिरकार असाधारण लक्ष्य तक  पहुॅंचा दिया. उन्होंने कहा था, 'जब आपके माता-पिता को आपकी आंखों के सामने मार दिया गया हो तो क्या आप कभी भूल पाएंगे... कभी नहीं.'
             मिल्खा सिंह 'फ्लाइंग सिख' के नाम से जाने जाते थे.  2016 में 'इंडिया टुडे' को दिए इंटरव्यू में उन्होंने इसके पीछे की घटना बतायी ," 1960 में उनको पाकिस्तान की "इंटरनेशनल एथलीट प्रतियोगिता' में भाग लेने का आमंत्रण मिला था. पर देश के विभाजन की त्रासदी के अपने दुःखद अनुभव को  भुला नहीं पा रहे थे, और पाकिस्तान नहीं जाना चाहते थे. भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को जब यह बात पता चली तो उन्होंने मिल्खा सिंह को समझाया.  तब वे पाकिस्तान जाने के लिए राजी हुए.
             पाकिस्तान में उस समय अब्दुल खालिक की तूती बोलती  थी जो वहाँ  के वह सबसे तेज धावक थे. प्रतियोगिता के दौरान लगभग 60000 पाकिस्तानी फैन्स अब्दुल खालिक का जोश बढ़ा रहे थे, लेकिन मिल्खा सिंह की रफ्तार के सामने खालिक टिक नहीं पाए थे.  
              इस जीत के बाद पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति फील्ड मार्शल अयूब खान ने उन्हें 'फ्लाइंग सिख' का नाम  से संबोधित किया और वे इस नाम से जाने जाने लग."
               मिल्खा सिंह चार बार  एशियाई खेलों के स्वर्ण पदक विजेता रहे. उन्होंने 1958 के  'कामनवैल्थ गेम्स' में भी स्वर्ण पदक प्राप्त किया था.  1959 में उन्हें खेलों में योगदान के लिये देश के महान सम्मान 'पद्मश्री' से सम्मानित किया गया. उन्होंने 1956, 1960   एवं1964  के ओलंपिक में भारत का प्रतिनिधित्व किया था. यद्यपि उनका सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन  1960 के 'रोम ओलंपिक' में था, जिसमें वे 400 मीटर फाइनल में चौथे स्थान पर रहे थे.
            'राष्ट्रमंडलीय  और एशियाई खेलों' के स्वर्ण पदक विजेता मिल्खा सिंह के नाम 400 मीटर का राष्ट्रीय रिकॉर्ड 38 साल तक रहा.
             मिल्खा सिंह जी के महाप्रयाण के साथ एथलीट के एक युग का अवसान हो गया. वे ऐसे व्यक्तित्व थे जिनका देशवासियों जिनका  के ह्रदय में विशेष सम्मान था.  देश के ऐसे महान रत्न को विनम्र श्रद्धांजलि.
                               🙏🙏🙏

Friday, June 4, 2021

प्रकृति से अनुकूलता के दृढ़ संकल्प की आवश्यकता

              आज सारे संसार में आज  5 जून को  ' विश्व पर्यावरण दिवस '  मनाया जा रहा  है। इसे मनाने का उद्देश्य दुनियाँ भर में लोगों को पर्यावरण की सुरक्षा के प्रति जागरूक और सचेत करना है।
               इस दिवस को मनाने की शुरुआत 1972 में 'संयुक्त राष्ट्र महासभा' द्वारा आयोजित 'विश्व पर्यावरण सम्मेलन ' में चर्चा के बाद लिये निर्णय के पश्चात् हुई  और  5 जून 1973 को प्रथम 'विश्व पर्यावरण दिवस' मनाया गया।
               प्रति वर्ष   'विश्व पर्यावरण दिवस' की एक थीम (theme) रखी जाती  है l गत वर्ष (2020 ) की थीम  ‘जैव-विविधता’ ( ‘Celebrate Biodiversity’ )  रखी गयी थी जिसके माध्यम से  संदेश दिया गया कि 'जैव विविधता संरक्षण एवं प्राकृतिक संतुलन' होना मानव जीवन के अस्तित्व के लिए अति आवश्यक है।   
                 इस वर्ष 2021  के लिये 'विश्व पर्यावरण दिवस ' की थीम  'पारिस्थितिकी तंत्र की बहाली (Ecosystem Restoration)'  रखी गयी है l  इसका आशय है कि वनों को नया जीवन देकर, पेड़-पौधे लगाकर, बारिश के पानी को संरक्षित करके और तालाबों का निर्माण करके हम पारिस्थितिकी तंत्र को फिर से बहाल कर सकते हैं l यह निर्विवाद है कि  संपूर्ण मानवता का अस्तित्व प्रकृति पर निर्भर है। इसलिए एक स्वस्थ एवं सुरक्षित पर्यावरण के बिना मानव समाज की कल्पना अधूरी है। 
              हमारे देश प्राचीन परंपराओं में 'प्रकृति संरक्षण' को विशेष महत्व दिया गया हैl भारत में पेड़-पौधों, नदी-पर्वत, ग्रह-नक्षत्र, अग्नि-वायु सहित प्रकृति के विभिन्न रूपों के साथ मानवीय संबंध स्थापित  किये गये हैं। पेड़ की तुलना संतान से की गई है तो नदी को मातृ स्वरूप माना गया है। ग्रह-नक्षत्र, पहाड़ और वायु देवरूप माने गए हैं।  भारत के वैज्ञानिक दृष्टि रखने वाले ऋषि-मुनि को प्रकृति संरक्षण और मानव के स्वभाव की गहरी समझ रखते थे। वे जानते थे कि मानव अपने क्षणिक लाभ के लिए कई अवसरों पर गंभीर भूल कर अपनी ही भारी हानि कर सकता है। इसलिए उन्होंने प्रकृति के साथ मानव के संबंध विकसित करने का प्रयास किया। ताकि मनुष्य को प्रकृति को गंभीर क्षति पहुंचाने से रोका जा सके। यही कारण है कि प्राचीन काल से ही भारत में प्रकृति के साथ संतुलन करके चलने का महत्वपूर्ण संस्कार रहा l कवि व साहित्यकार भी इसके प्रति सचेष्ट थे l महात्मा कबीर  की निम्नांकित सीख दृष्टव्य है-
   " वृक्ष कबहुँ न फल भखें, नदी न संचै नीर, 
              परमारथ  के  कारने ,  साधुन  धरा  शरीर l"
            हमारे ऋषि- मुनि अच्छी तरह जानते थे कि वृक्षों में भी चेतना होती है। इसलिए उन्हें मनुष्य के समतुल्य माना गया है। ऋग्वेद से बृहदारण्यकोपनिषद्, पद्मपुराण और मनुस्मृति सहित अन्य वाङमयों में इसके संदर्भ मिलते हैं। छान्दोग्यउपनिषद् में उद्दालक ऋषि अपने पुत्र श्वेतकेतु से आत्मा का वर्णन करते हुए कहते हैं कि वृक्ष जीवात्मा से ओतप्रोत होते हैं और मनुष्यों की भाँति सुख-दु:ख की अनुभूति करते हैं। एक वृक्ष की मनुष्य के दस पुत्रों से तुलना की गई है l
             प्राचीन समय से ही हमारे देश के सामाजिक जीवन में घर-घर में तुलसी का पौधा लगाने की परंपरा हैl तुलसी का पौधा मनुष्य को सबसे अधिक प्राणवायु ऑक्सीजन देता है। तुलसी के पौधे में अनेक औषधीय गुण भी मौजूद हैं। पीपल को देवता मानकर भी उसकी पूजा नियमित इसीलिए की जाती है क्योंकि वह भी अधिक मात्रा में ऑक्सीजन देता है।
             भारतीय लोक जीवन में   पर्वों को प्रकृति से जोड़ दिया गया था  जैसे- 'वट पूर्णिमा 'और 'आंवला नवमी' का पर्व मनाने का उद्देश्य वटवृक्ष और आंवले के वृक्षों के संरक्षण की चेतना उत्पन्न करना है ।   मकर संक्रान्ति, वसंत पंचमी, महाशिवरात्रि, होली, नवरात्र, गुड़ी पड़वा, ओणम्, दीपावली, कार्तिक पूर्णिमा, छठ पूजा, शरद पूर्णिमा, अन्नकूट, देव प्रबोधिनी एकादशी, हरियाली तीज, गंगा दशहरा आदि सभी पर्वों में प्रकृति संरक्षण का संदेश छिपा है।  विद्या की देवी 'सरस्वती जी' को पीले फूल पसंद हैं। धन-सम्पदा की देवी ' लक्ष्मी जी 'को कमल और गुलाब के फूल से प्रसन्न किया जा सकता है। ' गणेशजी' दूर्वा से प्रसन्न हो जाते हैं।  प्रत्येक देवी-देवता भी पशु-पक्षी और पेड़-पौधों से लेकर प्रकृति के विभिन्न अवयवों के संरक्षण का संदेश देते हैं।
              जलस्रोतों के  महत्व को भी हमारे यहाँ  सदैव से स्वीकार किया गया है। ज्यादातर ग्राम एवं नगर नदियों के किनारे पर बसे हैं। जो ग्राम व नगर नदी किनारे नहीं थे, वहाँ  तालाब बनाए जाते थे। बिना नदी या ताल के गांव-नगर के अस्तित्व की कल्पना नहीं है।  जल दीर्घायु प्रदायक, कल्याणकारक, सुखमय और प्राणरक्षक होता है। शुद्ध जल के बिना जीवन संभव नहीं है। यही कारण है कि जलस्रोतों को बचाए रखने के लिए हमारे ऋषियों ने इन्हें सम्मान दिया। हमारे यहाँ गंगा सहित सभी जीवनदायनी नदियों को माँ का स्थान दिया  गया है।
              पर्यावरण संरक्षण में जीव-जन्तुओं के महत्व को पहचानकर हमारे महर्षियों ने उनकी भी देवरूप में अर्चना की है। मनुष्य और पशु परस्पर एक-दूसरे पर निर्भर हैं। हमारे  परिवारों में पहली रोटी गाय के लिए और आखिरी रोटी कुत्ते के लिए निकालने की परंपरा है। लोग चींटियों कोआटा डालते हैं ; चिडिय़ों और कौओं के लिए घर की मुंडेर पर दाना-पानी रखा जाता है।  नाग पंचमी पर नाग की पूजा की जाती है  l नाग-विष से मनुष्य के लिए प्राणरक्षक औषधियों का निर्माण होता है। नाग पूजन के पीछे का रहस्य ही यह है। 
              प्रकृति से खिलवाड़ विनाशकारी होता है, कोरोना संकट ने यह पूर्णतया स्पष्ट कर दिया है l विकास के नाम पर वृक्षों के अंधाधुंध कटान ने प्राकृतिक संतुलन बिगाड़ दिया है l इस संकट में आक्सीजन की कमी  से अनेक व्यक्ति काल के गाल में समा गये l अब आक्सीजन देने वाले एव  प्रदूषण  हरने वाले पेड़ों को लगाने पर  जोर दिया जा रहा l मुझे सुकवि जय शंकर प्रसाद जी की निम्नांकित याद आ रहीं हैं-
        "प्रकृति करती अपने अनुकूल, 
                 हम नही कर सकते प्रतिकूल ;
            हमारा    अपना   ही    दुर्बोध, 
                  लिया  करता हमसे  प्रतिशोध."l
                       
               आइये! पर्यावरण दिवस पर प्रकृति से अनुकूलता का संकल्प लें l

Friday, May 21, 2021

लेकिन लगते सबसे अच्छे....वे तारे ...जो टूट गये है...

               याद आती है 22 मई 2002 की वह मनहूस शाम जब  मेरे अग्रज एवम् जनपद जालौन के प्रसिद्ध कवि एवम् साहित्यकार सुकवि आदर्श 'प्रहरी' को एकाएक दिल का दौरा पडा और आधे घंटे में ही क्रूर काल ने उन्हें हम से छीन लिया । वे केवल 52 वर्ष के थे। मेरे परिवार के लिये यह वज्रपात ही था ।
              आज उनके महाप्रयाण को 19 वर्ष हो गये.......उनके साथ बीता बचपन , उनका  मेरी पढ़ाई में मार्गदर्शन , साथ बैठ कर विभिन्न विषयों पर चर्चा.......उनके साथ कवि गोष्ठियों मे जाना और यह समझना कि  कविताओं में जितना आदर्श बघारा जाता है व्यवहार  सब कुछ अलग ही  होता है .........उनके विवाह की स्मृतियाँ........मधुमेह से जूझते हुये उनका संघर्ष ......सभी कुछ आज चलचित्र की भाँति नेत्रों के सम्मुख आ रहा है।
              ईश्वर की कृपा से आज पारिवारिक समस्यायें काफी  हद तक हल हो चुकी है ......परिवार बढ़ गया है.... तीन - तीन दामाद एवं दो- दो बहुयें परिवार में आ चुकीं हैं .....भाई साहब की तीनों बेटियाँ अच्छी शिक्षा पाकर अपनी-अपनी ससुराल में सुखपूर्वक जीवन व्यतीत कर रहीं हैं और पुत्रवती हैं.......नाती,पोते जब भी आते हैं, सारे घर को गुंजित कर देते हैं......पर उनकी कमी आज भी महसूस होती है।
        आज बुन्देलखण्ड के सुप्रसिद्ध कवि ' मंजुल मयंक' के गीत की  पंक्तियाँ याद आ रही है-

  " प्यारे लगते चाँद ,सितारे, अच्छे लगते हैं ये सारे ,
      लेकिन लगते सबसे अच्छे,वे तारे जो टूट गये है ।"
             
               सुकवि आदर्श प्रहरी जनपद के काव्य जगत के सशक्त हस्ताक्षर थे।उनके गुरु स्व.डा . राम स्वरुप खरे  ने उनकी काव्य प्रतिभा को निखारने में महत्वपूर्ण योगदान दिया था. उन्हें अपने अन्य गुरुओं डा. बी. बी. लाल, डा. राम शंकर द्विवेदी, डा. दुर्गा  प्रसाद खरे एवं डा. यामिनी  श्रीवास्तव का अमूल्य मार्गदर्शन मिला.
                प्रहरी जी ने अनेक गीत व मुक्तक लिखे. वे अपने कवि मित्रों के बीच 'मुक्तक सम्राट ' कहे जाते थे। उनके सौ गीतों संग्रह ' प्यास लगी तो दर्द पिया है ' प्रकाशित हो चुका है । उनके कुछ अविस्मरणीय मुक्तक निम्नांकित हैं-

            "बिना तपे  तुम कैसे कंचन?
             नागपाश   बिन कैसे चंदन? 
             विषपायी जब तक न बनोगे, 
             तब तक कौन करे अभिनंदन."
                          
                        "दृष्टिकोणों की बात   होती  है, 
                         पथ के मोड़ों की बात होती है, 
                         जो भी संघर्ष    में  विहँसते हैं, 
                         उनकी करोड़ो में बात होती है."
  
                  आज कोरोना की विभीषिका से सारा देश त्रस्त है.  ऐसे समय में प्रहरी जी की एक रचना याद आती है -
                 
                 समझौतों  का  नाम जिंदगी.

                 बाहर- बाहर     सूर्योदय  सी, 
                 भीतर- भीतर  शाम  जिंदगी.
             
                  जीवन  के प्रस्तुत   करती  है, 
                  नित्य  नये  आयाम  जिंदगी.
        
                  कभी रश्मि-रेखा सी उज्ज्वल, 
                  कभी घटा  सी श्याम  जिंदगी.
       
                   घुटने  लगती  साँस  दु:खों से, 
                   लगता   प्राणायाम     जिंदगी.

                   समझौतों   का   नाम जिंदगी.

 
                   अंत में मै उन्हीं की पंक्तियों से उनको श्रद्धांजलि व्यक्त करता हूँ-

         " गीत  में   जो  दर्द  गाते  हैं , उन्हें  मेरा  नमन  है, 
           दर्द में   जो   मुस्कुराते  हैं, उन्हें   मेरा   नमन है, 
           जो व्यथाओं में ,कथाओं की नई नित सृष्टि करते, 
           मान्यताओं  को   बनाते  हैं,  उन्हें   मेरा  नमन है." 

                               🙏🙏🙏

Saturday, March 20, 2021

आइये! गौरैया की प्रजाति के संरक्षण का संकल्प लें।

           आज विश्व गौरैया दिवस है। इसे 2010 से प्रतिवर्ष सारे विश्वभर में  मनाया जाता  है । आज गौरैया विलुप्ति के कगार पर है। गौरैया अधिकतर केवल पुस्तकों, कविताओं में ही दिखाई देती है है। गांवों में यदि कभी कोई गौरैया दिख जाए तो बच्चे झूम उठते हैं। 
         गौरैया के संरक्षण की चेतना जगाने के लिए  प्रतिवर्ष  20  मार्च को 'विश्व गौरैया दिवस '  मनाया जाता है।
         गौरैया का वैज्ञानिक नाम 'पासर डोमेस्टिकस' है। यह पासेराडेई परिवार का हिस्सा है। विश्व के विभिन्न देशों में गौरैया पाई जाती है। यह बहुत प्यारी पर बहुत छोटी (लगभग 15 सेंटीमीटर) होती है। शहरों की तुलना में गांवों में यह अधिक पाई जाती है। इसका अधिकतम वजन 32 ग्राम तक होता है। यह कीड़े और अनाज खाकर अपना पेट भरती है। 
         'विश्व गौरैया दिवस ' मनाने की शुरुआत भारत के नासिक में रहने वाले मोहम्मद दिलावर के प्रयत्नों से हुई। उनके द्वारा गौरैया  संरक्षण के लिए 'नेचर फॉर सोसाइटी' (Nature for Society) नामक एक संस्था शुरू की गई थी। पहली बार विश्व गौरैया दिवस 2010 में मनाया गया था। अब प्रतिवर्ष  20 मार्च को  सारे विश्व में 'गौरैया दिवस' मनाया जाता है। 
          विश्व गौरैया दिवस 2021 की थीम(Theme) ‘आई लव स्पैरो’ (I love sparrow) रखी गयी है जिसका अर्थ है कि मुझे गौरैया से प्रेम है। इस थीम को रखने के पीछे मनुष्य एवं पक्षी के बीच के संबंध की सुदृढ़ करना है। 
         ब्रिटेन की 'रॉयल सोसाइटी ऑफ बर्डस '(Royal Society of Birds) द्वारा विश्व के विभिन्न देशों में किये  अनुसंधान के आधार पर भारत सहित कई  देशों में गौरैया को रेड लिस्ट (Red list) कर दिया गया है जिसका अर्थ है कि यह पक्षी अब पूर्ण रूप से विलुप्ति की कगार पर है।
          इस दिन सरकारी स्तर पर तथा पर्यावरण एवं पक्षी प्रेमी व्यक्ति एवं संस्थाओं  द्वारा अनेक कार्यक्रम एवं प्रतियोगितायें आयोजित की जातीं हैं जो गौरैया के चित्रों , उससे संबंधित कविताओं एवं कहानियों से संबंधित होतीं हैं। पर्यावरण एवं गौरैया संरक्षण के क्षेत्र में योगदान देने वाले व्यक्तियों एवं संस्थाओं को इस दिन पुरस्कृत भी किया जाता है। 
         गौरैया संरक्षण  के लिए हम व्यक्तिगत स्तर पर प्रयास कर सकते हैं। हमें अपने घरों की छतों अथवा लॉन में पर पक्षियों के लिये दाना-पानी रखना चाहिए, अधिक से अधिक पेड़- पौधे लगाना चाहिये एवं उनके लिए कृत्रिम घोंसलों का निर्माण करना चाहिये।

Thursday, February 4, 2021

'चौरा- चोरी' कांड के शहीदों को शत् शत् नमन


             राष्ट्रीय आंदोलन में 'चौरा चौरी' कांड का बड़ा महत्व है। महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन के मध्य 4 फरवरी 1922 को कुछ लोगों की क्रोधित भीड़ ने गोरखपुर के चौरी-चौरा के पुलिस थाने में आग लगा दी थी. इसमें 23 पुलिस वाले मारे गये थे। इस घटना में तीन नागरिकों की भी मौत हो गई थी। इससे पहले यह खबर फैलने  पर कि चौरी-चौरा पुलिस स्टेशन के थानेदार ने मुंडेरा बाज़ार में कुछ कांग्रेस कार्यकर्ताओं को मारा है, गुस्साई भीड़ पुलिस स्टेशन के बाहर जमा हो गयी। 
            इस हिंसक घटना के पश्चात महात्मा गांधी ने 12 फरवरी 1922 को असहयोग आंदोलन वापस ले लिया था ।महात्मा गांधी के इस फैसले को लेकर क्रांतिकारियों का एक दल नाराज़ हो गया था। 16 फरवरी 1922 को गांधीजी ने अपने लेख 'चौरी चौरा का अपराध' में लिखा कि अगर ये आंदोलन वापस नहीं लिया जाता तो दूसरी जगहों पर भी ऐसी घटनाएँ होतीं। 
            उन्होंने इस घटना के लिए एक तरफ जहाँ पुलिस वालों को ज़िम्मेदार ठहराया क्योंकि उनके उकसाने पर ही भीड़ ने ऐसा कदम उठाया था तो दूसरी तरफ घटना में शामिल तमाम लोगों को अपने आपको पुलिस के हवाले करने को कहा क्योंकि उन्होंने अपराध किया था। 
            इस घटना के संदर्भ में गांधीजी पर राजद्रोह का मुकदमा भी चला था और उन्हें मार्च 1922 में गिरफ़्तार कर लिया गया था। 
            असहयोग आंदोलन का प्रस्ताव कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में 4 सितंबर 1920 को पारित हुआ था । गांधीजी का मत था कि अगर असहयोग के सिद्धांतों का सही ढँग से पालन किया गया तो एक वर्ष के अंदर ही अंग्रेज़ भारत छोड़कर चले जाएंगे। इस आंदोलन के अंतर्गत उन्होंने उन सभी वस्तुओं, संस्थाओं और व्यवस्थाओं का बहिष्कार करने का फैसला किया था जिसके तहत अंग्रेज़ भारतीयों पर शासन कर रहे थे। उन्होंने विदेशी वस्तुओं, अंग्रेज़ी क़ानून, शिक्षा और प्रतिनिधि सभाओं के बहिष्कार की बात कही  ।खिलाफत आंदोलन के साथ मिलकर असहयोग आंदोलन बहुत हद तक सफल भी रहा था.
            गोरखपुर ज़िले के लोगों ने 1971 में 'चौरी-चौरा शहीद स्मारक समिति' का गठन किया ।इस समिति ने 1973 में चौरी-चौरा में 12.2 मीटर ऊंचा एक मीनार बनाई. इसके दोनों तरफ एक शहीद को फांसी से लटकते हुए दिखाया गया था । इसे लोगों के स्वैच्छिक सहयोग से बनाया गया था। बाद में भारत सरकार ने शहीदों की याद में एक अलग 'शहीद स्मारक' बनवाया ।इसे ही हम आज मुख्य शहीद स्मारक के तौर पर जानते हैं। इस पर 'चौरी-  चौरा कांड' में हुये शहीदों के नाम खुदवा कर दर्ज किए गये हैं। 
            भारतीय रेलवे ने भी दो ट्रेन  चौरी-चौरा कांड  के शहीदों के नाम से चलायीं हैं। इन ट्रेनों के नाम हैं शहीद एक्सप्रेस और चौरी-चौरा एक्सप्रेस। 
             चौरी-चौरा  दो अलग-अलग गांवों के नाम थे। रेलवे के एक ट्रैफिक मैनेजर ने इन गांवों का नाम एक साथ किया था ।उन्होंने जनवरी 1885 में यहाँ एक रेलवे स्टेशन की स्थापना की थी ।इसलिए प्रारंभ में केवल रेलवे प्लेटफॉर्म और मालगोदाम का नाम ही चौरी-चौरा था।बाद में जब बाज़ार   शुरू हुए, वे चौरा गांव में लगने शुरू हुए । जिस थाने को 4 फरवरी 1922 को जलाया गया था, वो भी चौरा में ही था ।इस थाने की स्थापना 1857 की क्रांति के बाद हुई थी. यह एक तीसरे दर्जे का थाना था.
           'चौरी-चौरा'  की घटना को  आज 99 वर्ष पूरे हो रहे हैं।यह वर्ष इस घटना का शताब्दी वर्ष है।  इस अवसर पर आयोजित समारोह का वर्चुअल उदघाटन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आज (4 फरवरी ) ने किया है।  उत्तर प्रदेश सरकार चौरी-चौरा की घटना  पर 'शताब्दी समारोह' का आयोजन कर रही है। 
          'चौरा - चौरा' कांड के शहीदों को शत् शत् नमन। 
 

'चौरा - चौरी कांड' का शताब्दी वर्ष


' चौरी-चौरा कांड' का शताब्दी वर्ष
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             राष्ट्रीय आंदोलन में 'चौरा चौरी' कांड का बड़ा महत्व है। महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन के मध्य 4 फरवरी 1922 को कुछ लोगों की क्रोधित भीड़ ने गोरखपुर के चौरी-चौरा के पुलिस थाने में आग लगा दी थी. इसमें 23 पुलिस वाले मारे गये थे। इस घटना में तीन नागरिकों की भी मौत हो गई थी। इससे पहले यह खबर फैलने  पर कि चौरी-चौरा पुलिस स्टेशन के थानेदार ने मुंडेरा बाज़ार में कुछ कांग्रेस कार्यकर्ताओं को मारा है, गुस्साई भीड़ पुलिस स्टेशन के बाहर जमा हो गयी। 
            इस हिंसक घटना के पश्चात महात्मा गांधी ने 12 फरवरी 1922 को असहयोग आंदोलन वापस ले लिया था ।महात्मा गांधी के इस फैसले को लेकर क्रांतिकारियों का एक दल नाराज़ हो गया था। 16 फरवरी 1922 को गांधीजी ने अपने लेख 'चौरी चौरा का अपराध' में लिखा कि अगर ये आंदोलन वापस नहीं लिया जाता तो दूसरी जगहों पर भी ऐसी घटनाएँ होतीं। 
            उन्होंने इस घटना के लिए एक तरफ जहाँ पुलिस वालों को ज़िम्मेदार ठहराया क्योंकि उनके उकसाने पर ही भीड़ ने ऐसा कदम उठाया था तो दूसरी तरफ घटना में शामिल तमाम लोगों को अपने आपको पुलिस के हवाले करने को कहा क्योंकि उन्होंने अपराध किया था। 
            इस घटना के संदर्भ में गांधीजी पर राजद्रोह का मुकदमा भी चला था और उन्हें मार्च 1922 में गिरफ़्तार कर लिया गया था। 
            असहयोग आंदोलन का प्रस्ताव कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में 4 सितंबर 1920 को पारित हुआ था । गांधीजी का मत था कि अगर असहयोग के सिद्धांतों का सही ढँग से पालन किया गया तो एक वर्ष के अंदर ही अंग्रेज़ भारत छोड़कर चले जाएंगे। इस आंदोलन के अंतर्गत उन्होंने उन सभी वस्तुओं, संस्थाओं और व्यवस्थाओं का बहिष्कार करने का फैसला किया था जिसके तहत अंग्रेज़ भारतीयों पर शासन कर रहे थे। उन्होंने विदेशी वस्तुओं, अंग्रेज़ी क़ानून, शिक्षा और प्रतिनिधि सभाओं के बहिष्कार की बात कही  ।खिलाफत आंदोलन के साथ मिलकर असहयोग आंदोलन बहुत हद तक सफल भी रहा था.
            गोरखपुर ज़िले के लोगों ने 1971 में 'चौरी-चौरा शहीद स्मारक समिति' का गठन किया ।इस समिति ने 1973 में चौरी-चौरा में 12.2 मीटर ऊंचा एक मीनार बनाई. इसके दोनों तरफ एक शहीद को फांसी से लटकते हुए दिखाया गया था । इसे लोगों के स्वैच्छिक सहयोग से बनाया गया था। बाद में भारत सरकार ने शहीदों की याद में एक अलग 'शहीद स्मारक' बनवाया ।इसे ही हम आज मुख्य शहीद स्मारक के तौर पर जानते हैं। इस पर 'चौरी-  चौरा कांड' में हुये शहीदों के नाम खुदवा कर दर्ज किए गये हैं। 
            भारतीय रेलवे ने भी दो ट्रेन  चौरी-चौरा कांड  के शहीदों के नाम से चलायीं हैं। इन ट्रेनों के नाम हैं शहीद एक्सप्रेस और चौरी-चौरा एक्सप्रेस। 
             चौरी-चौरा  दो अलग-अलग गांवों के नाम थे। रेलवे के एक ट्रैफिक मैनेजर ने इन गांवों का नाम एक साथ किया था ।उन्होंने जनवरी 1885 में यहाँ एक रेलवे स्टेशन की स्थापना की थी ।इसलिए प्रारंभ में केवल रेलवे प्लेटफॉर्म और मालगोदाम का नाम ही चौरी-चौरा था।बाद में जब बाज़ार   शुरू हुए, वे चौरा गांव में लगने शुरू हुए । जिस थाने को 4 फरवरी 1922 को जलाया गया था, वो भी चौरा में ही था ।इस थाने की स्थापना 1857 की क्रांति के बाद हुई थी. यह एक तीसरे दर्जे का थाना था.
           'चौरी-चौरा'  की घटना को  आज 99 वर्ष पूरे हो रहे हैं।यह वर्ष इस घटना का शताब्दी वर्ष है।  इस अवसर पर आयोजित समारोह का वर्चुअल उदघाटन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आज (4 फरवरी ) ने किया है।  उत्तर प्रदेश सरकार चौरी-चौरा की घटना  पर 'शताब्दी समारोह' का आयोजन कर रही है। 
          'चौरा - चौरा' कांड के शहीदों को शत् शत् नमन। 

Wednesday, January 20, 2021

सीमांत गाँधी खान अब्दुल ग़फ़्फ़ार खान- एक अदभुत् व्यक्तित्व -


         स्वतंत्रता संग्राम में महात्मा गाँधी के समकालीन  एवं उनके अनुयायी, भारत रत्न से सम्मानित, सीमांत गाँधी के नाम से विख्यात,महान स्वतंत्रता सेनानी 'खान अब्दुल गफ्फार खान 'की आज (20 जनवरी) पुण्यतिथि है।  अपने 98 वर्ष के जीवन में वे  35 वर्ष जेल में रहे। सन् 1988 में पाकिस्तान सरकार ने उनको पेशावर स्थित घर में नज़रबंद कर दिया था और उसी दौरान 20 जनवरी, 1988 को उनकी मृत्यु हो गयी थी। 
          गाँधी जी के कट्टर अनुयायी होने के कारण ही उनकी 'सीमांत गाँधी' की छवि बनी। उनके भाई डॉक्टर खाँ साहब भी गांधी के क़रीबी और कांग्रेसी आंदोलन के सहयोगी रहे। 
          अविभाजित भारत के समय से  ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान को कई नामों से जाना जाता है - सरहदी गांधी, सीमान्त गांधी, बादशाह खान, बाचा खाँ आदि। एकनाथ ईश्वरन  ने गफ्फार खान जी की जीवनी 'नॉन वायलेंट सोल्जर ऑफ इस्लाम' में लिखा है - 'भारत में दो गाँधी थे, एक मोहनदास कर्मचंद और दूसरे खान अब्दुल गफ्फार खाँ। उनका जन्म पेशावर (पाकिस्तान) के एक सम्पन्न  में हुआ था। गफ्फार खान बचपन से होनहार बिरवान रहे। अफ़ग़ानी लोग उन्हें बाचा ख़ान कहकर बुलाते थे।'
           देश के लिए उनके दिल में अथाह प्यार था। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान उन्होंने संयुक्त, स्वतन्त्र और धर्मनिरपेक्ष भारत बनाने के लिए सन् 1920 में 'खुदाई खिदमतगार' (सुर्ख पोश) संगठन बनाया। खुदाई खिदमतगार फारसी का शब्द है, जिसका अर्थ होता है ईश्वर की बनाई दुनिया का सेवक।
         उनके परदादा आबेदुल्ला खान और दादा सैफुल्ला खान जितने सत्यनिष्ठ थे, उतने ही लड़ाकू थे। अंग्रेजों से संघर्ष के साथ ही उन्होंने पठानी कबीलों के हितों के लिये भी कई बड़ी लड़ाइयाँ लड़ी थीं। उन्हें ब्रिटिश सरकार ने प्राणदंड हुये। उनके पिता बैराम खान शांत और आध्यात्मिक स्वभाव के व्यक्ति थे। 
         बीसवीं सदी में के आरंभ बादशाह खान पख़्तूनों के प्रमुख नेता बन गए और महात्मा गाँधी जी के सत्याग्रह  को अपनाया । तभी से उनका नाम ' सीमांत गाँधी' पड़ गया। 
        गाँधी जी सहित अन्य स्वतंत्रता सेनानी  अब्दुल गफ्फार खान को बादशाह ख़ान कहा करते थे। स्वाधीनता आन्दोलन में उन्हें कई बार कठोर जेल यातनाओं का शिकार होना पड़ा। उन्होंने जेल में ही सिख गुरुग्रंथ, गीता का अध्ययन किया। उसके बाद साम्प्रदायिक सौहार्द के लिए गुजरात की जेल में उन्होंने संस्कृत के विद्वानों और मौलवियों से गीता और क़ुरान की कक्षायें  आयोजित करवायीं।
            अंग्रेज़ों ने जब 1919 में पेशावर में मार्शल लॉ लगाया तो ख़ान ने उनके सामने शांति प्रस्ताव रखा और बदले में उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया। सन 1930 में गाँधी-इरविन समझौते के बाद ही अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान को जेल से मुक्त किया गया।
             सन् 1937 के प्रांतीय चुनावों में कांग्रेस ने पश्चिमोत्तर सीमांत प्रांत की प्रांतीय विधानसभा में बहुमत प्राप्त किया तो ख़ान मुख्यमंत्री बने। उसके बाद सन् 1942 में वह फिर गिरफ्तार कर लिए गए। उसके बाद तो 1947 में अंग्रेजों से भारत के आजाद होने के बाद ही उन्हें जेल से आजादी मिली। 
             देश के विभाजन से पूर्व तक उनके  संगठन     ' ख़ुदाई ख़िदमतगार 'ने कांग्रेस का साथ दिया। वह भारत के विभाजन  मुखर विरोधी रहे। स्वाधीनता प्राप्ति एवं विभाजन के बाद भी उन्होंने पाकिस्तान में रहकर पख़्तून अल्पसंख़्यकों के हितों हेतु संघर्ष किया । पाकिस्तान सरकार ने उन्हें जेल में डाल दिया। उन्हें अपना निवास क्षेत्र पाकिस्तान से बदलकर अफगानिस्तान करना पड़ा। वह सदैव भारत से  मानसिक रूप से जुड़े रहे। 
             उन्होंने सत्तर के दशक में पूरे भारत का भ्रमण किया। सन 1985 के 'कांग्रेस शताब्दी समारोह' में भी शामिल हुए। ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान कहते थे कि इस्लाम अमल, यकीन और मोहब्बत का नाम है। उन्होंने कांग्रेस के समर्थन से भारत के पश्चिमोत्तर सीमान्त प्रान्त में ऐतिहासिक 'लाल कुर्ती' आन्दोलन चलाया।
            अब्दुल गफ्फार खान बताया करते थे कि 'प्रत्येक खुदाई खिदमतगार की यही प्रतिज्ञा होती है कि हम खुदा के बंदे हैं, दौलत या मौत की हमें कदर नहीं है। हमारे नेता सदा आगे बढ़ते चलते हैं। मौत को गले लगाने के लिए हम तैयार हैं। ...मैं आपको एक ऐसा हथियार देने जा रहा हूं जिसके सामने कोई पुलिस और कोई सेना टिक नहीं पाएगी। यह मोहम्मद साहब का हथियार है लेकिन आप लोग इससे वाकिफ नहीं हैं। यह हथियार है सब्र और नेकी का। दुनिया की कोई ताकत इस हथियार के सामने टिक नहीं सकती।'
               सरहदी गांधी ने सरहद पर रहने वाले उन पठानों को अहिंसा का रास्ता दिखाया, जिन्हें इतिहास लड़ाकू मानता रहा। एक लाख पठानों को उन्होंने इस रास्ते पर चलने के लिए इस कदर मजबूत बना दिया कि वे मरते रहे, पर मारने को उनके हाथ नहीं उठे। 'नमक सत्याग्रह' के दौरान 23 अप्रैल 1930 को  खान अब्दुल गफ्फार खाँ के गिरफ्तार हो जाने के बाद खुदाई खिदमतगारों का एक जुलूस पेशावर के 'किस्सा ख्वानी' बाजार में पहुंचा। अंग्रेजों ने उन पर गोली चलाने का हुक्म दे दिया। लगभग ढाई सौ लोग मारे गए लेकिन प्रतिहिंसा की कोई हरकत नहीं हुई। 
                सन् 1929 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की एक सभा में शामिल होने के बाद ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान ने 'ख़ुदाई ख़िदमतगार ' संगठन की स्थापना की और पख़्तूनों के बीच 'लाल कुर्ती ' आंदोलन का आह्वान किया। विद्रोह के आरोप में उनकी पहली गिरफ्तारी तीन वर्ष के लिए हुई। उसके बाद उन्हें  काफी यातनायें सहनी पड़ीं। 
                जेल से बाहर आकर उन्होंने पठानों को राष्ट्रीय आन्दोलन से जोड़ने के लिए अपना आन्दोलन और तेज़ कर दिया। सन् 1947 में भारत विभाजन के बाद सीमान्त प्रान्त को भारत और पाकिस्तान में से किसी एक विकल्प को मानने की बाध्यता सामने आ गई। आखिरकार जनमत संग्रह के माध्यम से पाकिस्तान में विलय का विकल्प मान्य हुआ।
               ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान तब भी तब पाकिस्तान और अफगानिस्तान के सीमान्त जिलों को मिलाकर एक स्वतन्त्र पख्तून देश पख्तूनिस्तान की मांग करते रहे लेकिन पाकिस्तान सरकार ने उनके आन्दोलन को कुचल दिया।
                 वे दो बार ' नोबेल शांति पुरस्कार ' के लिए नामांकित हुए । वे सामाजिक न्याय, आजादी और शांति के लिए जिस तरह वह जीवनभर जूझते रहे।  वे  नेल्सन मंडेला, मार्टिन लूथर किंग जूनियर और महात्मा गांधी की भाँति विश्व में सम्मान के पात्र हैं। 
                 पुण्य तिथि पर उन्हें शत् शत् नमन्।

Wednesday, January 13, 2021

आवाहन..... चलो! मिटायें सारी भ्रांति

आज पर्व है   मकर संक्रांति, 
दिखे सूर्य में भी नयी कान्ति; 
जीवन को  हम नयी दिशा दें,
मिटे   ह्रदय  से सारी भ्रान्ति।

             आज मिटाये   मन का कुहरा,
              दिखे समाज का नूतन चेहरा;
              शान्ति  और  सद्भाव   बढायें, 
              लेवें  सब  संकल्प  यह गहरा।

गर    विभेद     बढ़ते  जायेगें,
आपस    में    विश्वास  घटेगा;
भ्रम,  अफवाहों  की आँधी  में, 
यह    समाज  और देश बटेगा।

               आखिर   हम   सब   भाई-भाई,
                यह  ही  है   अंतिम     सच्चाई;
                चलो     मिटायें    सारी  भ्रान्ति,
                सार्थक  हो पर्व  'मकर संक्रांति'।

        मकर संक्रांति पर हार्दिक शुभकामनायें

हर्ष और उल्लास का पर्व 'लोहड़ी'

       हमारे देश की  संस्कृति बहुरंगी एवं विविधतापूर्ण है। इसमें अनेक रीति-रिवाज व परंपराएं समाहित हैं जो लोगों को  एकसूत्र में बाँधती हैं। त्यौहारों की इस परंपरा में माघ महीने की संक्रांति से एक दिन पहले  लोहड़ी (Lohri) का पर्व सारे देश में (मूल रूप से पंजाब में ) उत्साहपूर्वक मनाया जाता है। 
         लोहड़ी हर्ष और उल्लास का पर्व है। इसका संबंध बदलते मौसम के साथ  है। पौष माह की कड़ाके की ठंड से बचने के लिए भाईचारक सांझ और अग्नि की तपिश का आनंद लेने के लिए 'लोहड़ी ' का पर्व मनाया जाता है।
        ' लोहड़ी'  आपसी संबंधों की मधुरता, आनंद, संतोष और प्रेम का प्रतीक है। दुखों से दूर रह कर, प्यार और भाईचारे से मिल जुलकर नफरत को दूर करने का  प्रतीक  है लोकपर्व  'लोहड़ी'। यह पवित्र अग्नि का त्यौहार मानवता को सीधा रास्ता दिखाने और रुठों को मनाने का सदा से ही माध्यम बनता रहा है और बनता रहेगा। 
          लोहड़ी शब्द  की व्युत्पत्ति ' तिल' और 'रोड़ी ' से मिल कर हुई। समय के साथ  साथ से ' तिलोड़ी' और बाद में 'लोहड़ी'  कहा जाने लगा। 'लोहड़ी' तीन शब्द  - ल (लकड़ी) ,ओह (सूखे उपले) ,और डी (रेवड़ी) की ओर संकेत करते हैं। 
           'लोहड़ी' का पर्व आने पर पहले 'सुंदर मुंदरिए' दे माई लोहड़ी जीवे तेरी जोड़ी' आदि लोक गीत गाकर घर-घर लोहड़ी मांगने का रिवाज था। समय  के साथ 'लोहड़ी'  सहित कई पुरानी परंपराओं का आधुनिकीकरण हो गया है।  अब पंजाब के ग्रामों में      लड़के-लड़कियां लोहड़ी मांगते हुए 'परंपरागत गीत' गाते दिखते। गीतों का स्थान 'डीजे' ने ले लिया।
          लोहड़ी की रात को गन्ने के रस की खीर बनाई जाती है और अगले दिन माघी के दिन खाई जाती है जिसके लिए 'पौह रिद्धी माघ खाघी गई' कहा जाता है। ऐसा करना शुभ माना जाता है।      
          यह त्योहार छोटे बच्चों एवं नव विवाहितों के लिए विशेष महत्व रखता है। लोहड़ी की शाम को  प्रज्ज्वलित लकड़ियों के सामने नवविवाहित युगल अपने वैवाहिक जीवन को सुखमय बनाए रखने की कामना करते हैं।
          लोहड़ी का संबंध में कई ऐतिहासिक लोक कथायें प्रचलित हैं पर इससे जुड़ी प्रमुख लोककथा 'दुल्ला-भट्टी'  की है जो मुगलों के समय का बहादुर योद्धा था, जिसने मुगलों के बढ़ते जुल्म के खिलाफ कदम उठाया। 
           इस संबंध में जनश्रुति है कि एक ब्राह्मण की दो कन्यायें 'सुंदरी' और ' मुंदरी' थीं।   इलाके का मुगल शासक उनसे बलपूर्वक विवाह करना चाहता था। पर उनकी सगाई कहीं और हुई थी। मुगल शासक के डर से उन लड़कियों के ससुराल वाले शादी करने की हिम्मत नहीं कर पा रहे थे।
           संकट की इस वेला में 'दुल्ला भट्टी ' ने ब्राह्मण  परिवार की सहायता की । उसने  लड़के वालों को राजी कर  जंगल में आग जलाकर  अपनी देख- रेख में ' सुंदरी 'एव 'मुंदरी 'का विवाह संपन्न करवाया। दुल्ले ने खुद ही उन दोनों का कन्यादान किया। 'दुल्ला भट्टी' ने शगुन के रूप में उन दोनों कन्याओं को शक्कर दी थी। लोहड़ी पर   गाये जाने वाले इस लोकगीत में इस घटना का संदर्भ मिलता है-

'सुंदर-मुंदरिए  हो!  तेरा   कौन   बेचारा हो, 
दुल्ला भट्टी वाला हो, दुल्ले ने धी ब्याही हो।
      सेर शक्कर पाई-हो, कुड़ी दा लाल पटाका हो, 
      कुड़ी दा सालू फाटा हो,   सालू कौन समेटे हो। 
चाचा   चूरी   कुट्टी  हो, जमींदारा लुट्टी हो, 
जमींदार सुधाए-हो, बड़े पोले आए हो। 
इक पोला रह गया-हो, पूरे विश्व में भारतीय संस्कृति अपना एक अलग स्थान रखती है क्योंकि इसमें अनेक रीति-रिवाज व परंपराएं समाई हैं जो लोगों को करीब लाकर एकसूत्र में बांधती हैं। त्यौहारों की इस शृंखला में माघ महीने की संक्रांति से एक दिन पहले आता है लोहड़ी (Lohri) का पर्व। 
         लोहड़ी हर्ष और उल्लास का पर्व है। इसका संबंध मौसम के साथ गहरा जुड़ा है। पौष माह की कड़ाके की सर्दी से बचने के लिए भाईचारक सांझ और अग्नि की तपिश का सुकून लेने के लिए लोहड़ी मनाई जाती है।
        लोहड़ी रिश्तों की मधुरता, सुकून और प्रेम का प्रतीक है। दुखों का नाश, प्यार और भाईचारे से मिल जुलकर नफरत के बीज का नाश करने का नाम है लोहड़ी। यह पवित्र अग्नि का त्यौहार मानवता को सीधा रास्ता दिखाने और रुठों को मनाने का जरिया बनता रहेगा। लोहड़ी शब्द तिल+रोड़ी के मेल से बना है जो समय के साथ बदल कर तिलोड़ी और बाद में लोहड़ी हो गया। लोहड़ी मुख्यत: तीन शब्दों को जोड़ कर बना है ल (लकड़ी) ओह (सूखे उपले) और डी (रेवड़ी)।

'सुंदर मुंदरिए' को लेकर ये है मान्यता
         लोहड़ी के पर्व की दस्तक के साथ ही पहले 'सुंदर मुंदरिए' दे माई लोहड़ी जीवे तेरी जोड़ी आदि लोक गीत गाकर घर-घर लोहड़ी मांगने का रिवाज था। समय बदलने के साथ कई पुरानी रस्मों का आधुनिकीकरण हो गया है। लोहड़ी पर भी इसका प्रभाव पड़ा। अब गांव में           लड़के-लड़कियां लोहड़ी मांगते हुए 'परंपरागत गीत' गाते दिखलाई नहीं देते। गीतों का स्थान 'डीजे' ने ले लिया।
         लोहड़ी की रात को गन्ने के रस की खीर बनाई जाती है और अगले दिन माघी के दिन खाई जाती है जिसके लिए पौह रिद्धी माघ खाघी गई कहा जाता है। ऐसा करना शुभ माना जाता है।      
         यह त्यौहार छोटे बच्चों एवं नव विवाहितों के लिए विशेष महत्व रखता है। लोहड़ी की संध्या में जलती लकड़ियों के सामने नवविवाहित जोड़े अपने वैवाहिक जीवन को सुखमय बनाए रखने की कामना करते हैं।
          लोहड़ी का संबंध कई ऐतिहासिक लोक कथायें प्रचलित हैं पर इससे जुड़ी प्रमुख लोककथा दुल्ला-भट्टी की है जो मुगलों के समय का बहादुर योद्धा था, जिसने मुगलों के बढ़ते जुल्म के खिलाफ कदम उठाया। कहा जाता है कि एक ब्राह्मण की दो लड़कियां सुंदरी और मुंदरी के साथ इलाके का मुगल शासक जबरन शादी करना चाहता था पर उनकी सगाई कहीं और हुई थी और मुगल शासक के डर से उन लड़कियों के ससुराल वाले शादी के लिए तैयार नहीं हो पा रहे थे।
           इस मुसीबत की घड़ी में दुल्ला भट्टी ने ब्राह्मण की मदद की और लड़के वालों को मनाकर एक जंगल में आग जलाकर सुंदरी एव मुंदरी का विवाह करवाया। दुल्ले ने खुद ही उन दोनों का कन्यादान किया। कहावत है कि दुल्ले ने शगुन के रूप में उन दोनों को शक्कर दी थी। इसी कथनी की हिमायत करता लोहड़ी का यह गीत है जिसे लोहड़ी के दिन गाया जाता है।

'सुंदर-मुंदरिए'  हो  !  तेरा   कौन बेचारा हो, 
दुल्ला भट्टी वाला हो, दुल्ले ने धी ब्याही हो।
     सेर शक्कर पाई-हो, कुड़ी दा लाल पटाका हो, 
     कुड़ी दा सालू फाटा हो,  सालू कौन  समेटे हो। 
चाचा  चूरी   कुट्टी   हो,  जमींदारा   लुट्टी  हो, 
जमींदार   सुधाए-हो,   बड़े   पोले   आए हो। 
     इक        पोला              रह     गया        हो, 
     सिपाही         फड़      के      लै    गया     हो। 
सिपाही   ने   मारी   ईंट, भावें   रो  भावें पिट। 
सानूं   दे   दो   लोहड़ी,      जीवे  तेरी  जोड़ी।'
     'साडे   पैरां   हेठ   रोड़,    सानूं छेती-छेती तोर,
      साडे   पैरां   हेठ  दहीं,  असीं   मिलना वी नईं। 
साडे  पैरां  हेठ  परात,  सानूं  उत्तों पै गई रात। 
दे   माई    लोहड़ी,   जीवे     तेरी        जोड़ी।"
        
        मुगलों के जुल्म के विरुद्ध दुल्ला- भट्टी   के मानवीय साहसिक कार्य को आज भी  '  लोहड़ी' पर स्मरण किया जाता हैं और ' लोहड़ी' को सत्य और साहस की अन्याय पर विजय के रूप में मनाया जाता है।        'लोहड़ी'  कृषि से भी संबंधित  है। इस समय गेहूं और सरसों की फसलें पूरे शबाब पर होती हैं। परंपरा है कि लोहड़ी के दिन गाँवों  युवक- युवतियां अपनी-अपनी टोलियां बनाकर घर-घर जाकर गाते हुए लोहड़ी मांगते हैं-
       'दे  माई  लोहड़ी  ,जीवे तेरी जोड़ी। 
       दे माई पाथी, तेरा पुत चढ़ेगा हाथी। '
          गाँव के लोग उन्हें ' लोहड़ी' के रूप में गुड़, रेवड़ी, मूंगफली तिल या पैसे देते हैं। रात को लोग अग्नि में तिल डालते हुए     
   'ईशर अए दलिदर जाए, दलिदर दी जड़ चुल्हे पाए।' बोलते हुए सभी के  स्वस्थ रहने की प्रार्थना करते हैं।
           जिस घर में नये शिशु का जन्म होता ही है, वहाँ लोहड़ी का पर्व विशेष उत्साह से मनाया जाता है। लोहड़ी की रात सभी गांव वाले नवजात शिशु के घर आते हैं । लकड़ियां, उपले आदि से अग्नि जलाई जाती है। सभी को गुड़, मूंगफली, रेवड़ी, तिल घानी बांटे जाते हैं। अब आधुनिक सोच के व्यक्ति  कन्या भ्रूण हत्या को रोकने के लिए लड़कियों के जन्म पर भी लोहड़ी मनाते हैं । 'लोहड़ी' की पवित्र आग में तिल डालने के बाद बड़े बुजुर्गों से आशीर्वाद लिया जाता है। 
             इस वर्ष सारा पंजाब 'किसान आंदोलन' से उद्वेलित है।' धरना स्थल 'पर ही  किसान  'लोहड़ी' मनाने जा रहे हैं।  हमें आशा करनी चाहिये कि यह लोहड़ी का पर्व ऐसी खुशियाँ लाये कि देश में शांति व सौहार्द का वातावरण फिर से स्थापित हो।