Thursday, July 28, 2011

हंगामा है क्यूँ बरपा...?

लोकपाल बिल को लेकर पिछले कई समय से सरकार एवं सिविल सोसायटी के बीच रस्साकसी चल रही थी उसका एक रूप केंद्र सरकार द्वारा कैबिनेट से पारित ड्राफ्ट के रूप में आया। ड्राफ्ट के आते राजनीतिक बयानबाजी का भूचाल आ गया । सिविल सोसायटी के सदस्यों ने इसे धोखापाल कहा । अन्ना हजारे ने १६ अगस्त से अनशन पर जाने की घोषणा कर दी । विपक्षी दलों को भी सरकार को कोसने का एक मुद्दा मिल गया। मुख्य मुद्दा प्रधान मंत्री और न्यायपालिका को लोकपाल के दायरे से बाहर रखने का है । न केवल मन मोहन सिंह बल्कि पूर्व प्रधान मंत्री अटल बिहारी बाजपेयी भी प्रधान मंत्री के पद को लोक पाल के दायरे में रखने के पक्ष में अपनी राय व्यक्त कर चुके हैं । तर्क इन पदों की गरिमा सुरक्षित रखने का दिया जाता है ।
फ़िलहाल कांग्रेस बचाव की मुद्रा में है । पहले से भ्रष्टाचार व घोटालों से घिरी इस सरकार की नीयत पर सवाल उठते रहे हैं । अब एक कमजोर लोकपाल बिल बना कर केवल रस्म -अदायगी करने का आरोप लग रहा है ।
इस सारी रस्साकसी से कई प्रश्न उठते है जिनका उत्तर खोजने की जिम्मेवारी हमारे राजनीतिक तंत्र के संवाहकों की है -
१ - लोक पाल की व्यवस्था में प्रधान मंत्री अथवा न्यायपालिका को रखने से उनके पदों की गरिमा क्यों कम होगी?
२-लोकपाल बिल पर अन्य राजनीतिक अपनी स्पष्ट राय क्यों व्यक्त नहीं कर रहे ? केवल सिविल सोसायटी एवं सरकार के बीच हो रही नूरा कुश्ती का मजा ले रहे हैं ।
३-क्या लोकपाल की व्यस्था हमारे भ्रष्ट राजनीतिक तंत्र पर लगाम लगाने में सक्षम होगी ?
४ - क्या सिविल सोसायटी की अनशन व सत्याग्रह के द्वारा अपनी मांगों ( भले ही वे लोकोपयोगी लगती हों ) को मनवाने का धमकी भरा रुख लोकतान्त्रिक कहा जायेगा ?
५-क्या भारत का मतदाता इतना सक्षम हो गया है कि आगे आने वाले आम चुनावों में इस मुद्दे पर वोट करे ?
६-क्या इस मुद्दे पर हंगामा करने से पहले इस बिल पर संसद की भूमिका देखने के बाद ही कोई सत्याग्रह आदि करना उचित नहीं होगा ?इसके लिये सांसदों को समझाने का काम भी किया जा सकता है ।
७-क्या जरूरत आम आदमी को अपने अधिकारों के प्रति शिक्षित करने व उनमें राजनीतिक जागरूकता लाने की नहीं है और इस दिशा में राजनीतिक दलों व सामाजिक संगठनों (सिविल सोसायटी सहित ) को एक स्पष्ट कार्य योजना नहीं बनाना चाहिए ।
जब तक इन मुद्दों पर खुले मन से विचार या कार्य नहीं होगा ,तब तक भ्रम का वातावरण बना ही रहेगा .

Thursday, July 21, 2011

मन में घिरा एक द्वंद्व है ..

एक लम्बे समय के बाद पोस्ट लिख रहा हूँ।पिछला एक वर्ष हमारे समाज व देश के लिये घटनापूर्ण रहा । सामाजिक व राजनीतिक मूल्यों में ह्रास, घोटालों का खुलना और उन में सत्ताधीशों की बेशर्म संलिप्तता ,अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी अभियान पर राजनीतिक पैतरेबाजी , रामदेव के सत्याग्रह पर दमनात्मक कार्यवाही और दिन -प्रतिदिन विस्तार पाता हमारा स्वार्थपूर्ण चरित्र आदि प्रवृत्तियों से त्रसित आहत मन से कुछ काव्यमयी प्रतिक्रिया अभिव्यक्त हुई जिसे प्रस्तुत कर रहा हूँ -

मन में घिरा एक द्वंद्व है
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नव सदी का आरम्भ है ,
मन में घिरा एक द्वंद्व है

सुविधा हुई प्रधान है ,
संचित मूल्य हो रहे गौण ;
बस ही हमारा पूर्ण हो,
हैं इसी लीक पर युवा प्रौढ़ ;
प्रतिपल बदलती मान्यतायें,
ज्यों ज़ल -नदी निर्बन्ध है
मन में घिरा एक द्वंद्व है

सच बात की कीमत नहीं ,
सच बोलना अपराध है
स्वार्थ पूर्ण हो कैसे अपना ,
हैं इसी लीक पर युवा प्रौढ़ ;
संवेदना की बात पर तो,
अब यहाँ प्रतिबन्ध है
मन में घिरा एक द्वंद्व है

यह प्रगतिशील समाज है,
क्या -क्या सृजन होगा यहाँ ?
विकृत विचारों का प्रसार ,
यह समाज जायेगा कहाँ?
विवेकशून्यता से घिरी ,
नव प्रगतिपूरक गंध है
मन में घिरा एक द्वंद्व है

यह लोकतान्त्रिक देश है ,
सस्ती मनुज की जान है ;
भृष्ट आचरण ,विकृत चरित्र ,
यहाँ शासकों की शान है ;
गाँधी दिखें हर नोट पर ,
अनशन ,सत्याग्रह पर दंड है
मन में घिरा एक द्वंद्व है