Wednesday, January 20, 2021

सीमांत गाँधी खान अब्दुल ग़फ़्फ़ार खान- एक अदभुत् व्यक्तित्व -


         स्वतंत्रता संग्राम में महात्मा गाँधी के समकालीन  एवं उनके अनुयायी, भारत रत्न से सम्मानित, सीमांत गाँधी के नाम से विख्यात,महान स्वतंत्रता सेनानी 'खान अब्दुल गफ्फार खान 'की आज (20 जनवरी) पुण्यतिथि है।  अपने 98 वर्ष के जीवन में वे  35 वर्ष जेल में रहे। सन् 1988 में पाकिस्तान सरकार ने उनको पेशावर स्थित घर में नज़रबंद कर दिया था और उसी दौरान 20 जनवरी, 1988 को उनकी मृत्यु हो गयी थी। 
          गाँधी जी के कट्टर अनुयायी होने के कारण ही उनकी 'सीमांत गाँधी' की छवि बनी। उनके भाई डॉक्टर खाँ साहब भी गांधी के क़रीबी और कांग्रेसी आंदोलन के सहयोगी रहे। 
          अविभाजित भारत के समय से  ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान को कई नामों से जाना जाता है - सरहदी गांधी, सीमान्त गांधी, बादशाह खान, बाचा खाँ आदि। एकनाथ ईश्वरन  ने गफ्फार खान जी की जीवनी 'नॉन वायलेंट सोल्जर ऑफ इस्लाम' में लिखा है - 'भारत में दो गाँधी थे, एक मोहनदास कर्मचंद और दूसरे खान अब्दुल गफ्फार खाँ। उनका जन्म पेशावर (पाकिस्तान) के एक सम्पन्न  में हुआ था। गफ्फार खान बचपन से होनहार बिरवान रहे। अफ़ग़ानी लोग उन्हें बाचा ख़ान कहकर बुलाते थे।'
           देश के लिए उनके दिल में अथाह प्यार था। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान उन्होंने संयुक्त, स्वतन्त्र और धर्मनिरपेक्ष भारत बनाने के लिए सन् 1920 में 'खुदाई खिदमतगार' (सुर्ख पोश) संगठन बनाया। खुदाई खिदमतगार फारसी का शब्द है, जिसका अर्थ होता है ईश्वर की बनाई दुनिया का सेवक।
         उनके परदादा आबेदुल्ला खान और दादा सैफुल्ला खान जितने सत्यनिष्ठ थे, उतने ही लड़ाकू थे। अंग्रेजों से संघर्ष के साथ ही उन्होंने पठानी कबीलों के हितों के लिये भी कई बड़ी लड़ाइयाँ लड़ी थीं। उन्हें ब्रिटिश सरकार ने प्राणदंड हुये। उनके पिता बैराम खान शांत और आध्यात्मिक स्वभाव के व्यक्ति थे। 
         बीसवीं सदी में के आरंभ बादशाह खान पख़्तूनों के प्रमुख नेता बन गए और महात्मा गाँधी जी के सत्याग्रह  को अपनाया । तभी से उनका नाम ' सीमांत गाँधी' पड़ गया। 
        गाँधी जी सहित अन्य स्वतंत्रता सेनानी  अब्दुल गफ्फार खान को बादशाह ख़ान कहा करते थे। स्वाधीनता आन्दोलन में उन्हें कई बार कठोर जेल यातनाओं का शिकार होना पड़ा। उन्होंने जेल में ही सिख गुरुग्रंथ, गीता का अध्ययन किया। उसके बाद साम्प्रदायिक सौहार्द के लिए गुजरात की जेल में उन्होंने संस्कृत के विद्वानों और मौलवियों से गीता और क़ुरान की कक्षायें  आयोजित करवायीं।
            अंग्रेज़ों ने जब 1919 में पेशावर में मार्शल लॉ लगाया तो ख़ान ने उनके सामने शांति प्रस्ताव रखा और बदले में उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया। सन 1930 में गाँधी-इरविन समझौते के बाद ही अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान को जेल से मुक्त किया गया।
             सन् 1937 के प्रांतीय चुनावों में कांग्रेस ने पश्चिमोत्तर सीमांत प्रांत की प्रांतीय विधानसभा में बहुमत प्राप्त किया तो ख़ान मुख्यमंत्री बने। उसके बाद सन् 1942 में वह फिर गिरफ्तार कर लिए गए। उसके बाद तो 1947 में अंग्रेजों से भारत के आजाद होने के बाद ही उन्हें जेल से आजादी मिली। 
             देश के विभाजन से पूर्व तक उनके  संगठन     ' ख़ुदाई ख़िदमतगार 'ने कांग्रेस का साथ दिया। वह भारत के विभाजन  मुखर विरोधी रहे। स्वाधीनता प्राप्ति एवं विभाजन के बाद भी उन्होंने पाकिस्तान में रहकर पख़्तून अल्पसंख़्यकों के हितों हेतु संघर्ष किया । पाकिस्तान सरकार ने उन्हें जेल में डाल दिया। उन्हें अपना निवास क्षेत्र पाकिस्तान से बदलकर अफगानिस्तान करना पड़ा। वह सदैव भारत से  मानसिक रूप से जुड़े रहे। 
             उन्होंने सत्तर के दशक में पूरे भारत का भ्रमण किया। सन 1985 के 'कांग्रेस शताब्दी समारोह' में भी शामिल हुए। ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान कहते थे कि इस्लाम अमल, यकीन और मोहब्बत का नाम है। उन्होंने कांग्रेस के समर्थन से भारत के पश्चिमोत्तर सीमान्त प्रान्त में ऐतिहासिक 'लाल कुर्ती' आन्दोलन चलाया।
            अब्दुल गफ्फार खान बताया करते थे कि 'प्रत्येक खुदाई खिदमतगार की यही प्रतिज्ञा होती है कि हम खुदा के बंदे हैं, दौलत या मौत की हमें कदर नहीं है। हमारे नेता सदा आगे बढ़ते चलते हैं। मौत को गले लगाने के लिए हम तैयार हैं। ...मैं आपको एक ऐसा हथियार देने जा रहा हूं जिसके सामने कोई पुलिस और कोई सेना टिक नहीं पाएगी। यह मोहम्मद साहब का हथियार है लेकिन आप लोग इससे वाकिफ नहीं हैं। यह हथियार है सब्र और नेकी का। दुनिया की कोई ताकत इस हथियार के सामने टिक नहीं सकती।'
               सरहदी गांधी ने सरहद पर रहने वाले उन पठानों को अहिंसा का रास्ता दिखाया, जिन्हें इतिहास लड़ाकू मानता रहा। एक लाख पठानों को उन्होंने इस रास्ते पर चलने के लिए इस कदर मजबूत बना दिया कि वे मरते रहे, पर मारने को उनके हाथ नहीं उठे। 'नमक सत्याग्रह' के दौरान 23 अप्रैल 1930 को  खान अब्दुल गफ्फार खाँ के गिरफ्तार हो जाने के बाद खुदाई खिदमतगारों का एक जुलूस पेशावर के 'किस्सा ख्वानी' बाजार में पहुंचा। अंग्रेजों ने उन पर गोली चलाने का हुक्म दे दिया। लगभग ढाई सौ लोग मारे गए लेकिन प्रतिहिंसा की कोई हरकत नहीं हुई। 
                सन् 1929 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की एक सभा में शामिल होने के बाद ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान ने 'ख़ुदाई ख़िदमतगार ' संगठन की स्थापना की और पख़्तूनों के बीच 'लाल कुर्ती ' आंदोलन का आह्वान किया। विद्रोह के आरोप में उनकी पहली गिरफ्तारी तीन वर्ष के लिए हुई। उसके बाद उन्हें  काफी यातनायें सहनी पड़ीं। 
                जेल से बाहर आकर उन्होंने पठानों को राष्ट्रीय आन्दोलन से जोड़ने के लिए अपना आन्दोलन और तेज़ कर दिया। सन् 1947 में भारत विभाजन के बाद सीमान्त प्रान्त को भारत और पाकिस्तान में से किसी एक विकल्प को मानने की बाध्यता सामने आ गई। आखिरकार जनमत संग्रह के माध्यम से पाकिस्तान में विलय का विकल्प मान्य हुआ।
               ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान तब भी तब पाकिस्तान और अफगानिस्तान के सीमान्त जिलों को मिलाकर एक स्वतन्त्र पख्तून देश पख्तूनिस्तान की मांग करते रहे लेकिन पाकिस्तान सरकार ने उनके आन्दोलन को कुचल दिया।
                 वे दो बार ' नोबेल शांति पुरस्कार ' के लिए नामांकित हुए । वे सामाजिक न्याय, आजादी और शांति के लिए जिस तरह वह जीवनभर जूझते रहे।  वे  नेल्सन मंडेला, मार्टिन लूथर किंग जूनियर और महात्मा गांधी की भाँति विश्व में सम्मान के पात्र हैं। 
                 पुण्य तिथि पर उन्हें शत् शत् नमन्।

Wednesday, January 13, 2021

आवाहन..... चलो! मिटायें सारी भ्रांति

आज पर्व है   मकर संक्रांति, 
दिखे सूर्य में भी नयी कान्ति; 
जीवन को  हम नयी दिशा दें,
मिटे   ह्रदय  से सारी भ्रान्ति।

             आज मिटाये   मन का कुहरा,
              दिखे समाज का नूतन चेहरा;
              शान्ति  और  सद्भाव   बढायें, 
              लेवें  सब  संकल्प  यह गहरा।

गर    विभेद     बढ़ते  जायेगें,
आपस    में    विश्वास  घटेगा;
भ्रम,  अफवाहों  की आँधी  में, 
यह    समाज  और देश बटेगा।

               आखिर   हम   सब   भाई-भाई,
                यह  ही  है   अंतिम     सच्चाई;
                चलो     मिटायें    सारी  भ्रान्ति,
                सार्थक  हो पर्व  'मकर संक्रांति'।

        मकर संक्रांति पर हार्दिक शुभकामनायें

हर्ष और उल्लास का पर्व 'लोहड़ी'

       हमारे देश की  संस्कृति बहुरंगी एवं विविधतापूर्ण है। इसमें अनेक रीति-रिवाज व परंपराएं समाहित हैं जो लोगों को  एकसूत्र में बाँधती हैं। त्यौहारों की इस परंपरा में माघ महीने की संक्रांति से एक दिन पहले  लोहड़ी (Lohri) का पर्व सारे देश में (मूल रूप से पंजाब में ) उत्साहपूर्वक मनाया जाता है। 
         लोहड़ी हर्ष और उल्लास का पर्व है। इसका संबंध बदलते मौसम के साथ  है। पौष माह की कड़ाके की ठंड से बचने के लिए भाईचारक सांझ और अग्नि की तपिश का आनंद लेने के लिए 'लोहड़ी ' का पर्व मनाया जाता है।
        ' लोहड़ी'  आपसी संबंधों की मधुरता, आनंद, संतोष और प्रेम का प्रतीक है। दुखों से दूर रह कर, प्यार और भाईचारे से मिल जुलकर नफरत को दूर करने का  प्रतीक  है लोकपर्व  'लोहड़ी'। यह पवित्र अग्नि का त्यौहार मानवता को सीधा रास्ता दिखाने और रुठों को मनाने का सदा से ही माध्यम बनता रहा है और बनता रहेगा। 
          लोहड़ी शब्द  की व्युत्पत्ति ' तिल' और 'रोड़ी ' से मिल कर हुई। समय के साथ  साथ से ' तिलोड़ी' और बाद में 'लोहड़ी'  कहा जाने लगा। 'लोहड़ी' तीन शब्द  - ल (लकड़ी) ,ओह (सूखे उपले) ,और डी (रेवड़ी) की ओर संकेत करते हैं। 
           'लोहड़ी' का पर्व आने पर पहले 'सुंदर मुंदरिए' दे माई लोहड़ी जीवे तेरी जोड़ी' आदि लोक गीत गाकर घर-घर लोहड़ी मांगने का रिवाज था। समय  के साथ 'लोहड़ी'  सहित कई पुरानी परंपराओं का आधुनिकीकरण हो गया है।  अब पंजाब के ग्रामों में      लड़के-लड़कियां लोहड़ी मांगते हुए 'परंपरागत गीत' गाते दिखते। गीतों का स्थान 'डीजे' ने ले लिया।
          लोहड़ी की रात को गन्ने के रस की खीर बनाई जाती है और अगले दिन माघी के दिन खाई जाती है जिसके लिए 'पौह रिद्धी माघ खाघी गई' कहा जाता है। ऐसा करना शुभ माना जाता है।      
          यह त्योहार छोटे बच्चों एवं नव विवाहितों के लिए विशेष महत्व रखता है। लोहड़ी की शाम को  प्रज्ज्वलित लकड़ियों के सामने नवविवाहित युगल अपने वैवाहिक जीवन को सुखमय बनाए रखने की कामना करते हैं।
          लोहड़ी का संबंध में कई ऐतिहासिक लोक कथायें प्रचलित हैं पर इससे जुड़ी प्रमुख लोककथा 'दुल्ला-भट्टी'  की है जो मुगलों के समय का बहादुर योद्धा था, जिसने मुगलों के बढ़ते जुल्म के खिलाफ कदम उठाया। 
           इस संबंध में जनश्रुति है कि एक ब्राह्मण की दो कन्यायें 'सुंदरी' और ' मुंदरी' थीं।   इलाके का मुगल शासक उनसे बलपूर्वक विवाह करना चाहता था। पर उनकी सगाई कहीं और हुई थी। मुगल शासक के डर से उन लड़कियों के ससुराल वाले शादी करने की हिम्मत नहीं कर पा रहे थे।
           संकट की इस वेला में 'दुल्ला भट्टी ' ने ब्राह्मण  परिवार की सहायता की । उसने  लड़के वालों को राजी कर  जंगल में आग जलाकर  अपनी देख- रेख में ' सुंदरी 'एव 'मुंदरी 'का विवाह संपन्न करवाया। दुल्ले ने खुद ही उन दोनों का कन्यादान किया। 'दुल्ला भट्टी' ने शगुन के रूप में उन दोनों कन्याओं को शक्कर दी थी। लोहड़ी पर   गाये जाने वाले इस लोकगीत में इस घटना का संदर्भ मिलता है-

'सुंदर-मुंदरिए  हो!  तेरा   कौन   बेचारा हो, 
दुल्ला भट्टी वाला हो, दुल्ले ने धी ब्याही हो।
      सेर शक्कर पाई-हो, कुड़ी दा लाल पटाका हो, 
      कुड़ी दा सालू फाटा हो,   सालू कौन समेटे हो। 
चाचा   चूरी   कुट्टी  हो, जमींदारा लुट्टी हो, 
जमींदार सुधाए-हो, बड़े पोले आए हो। 
इक पोला रह गया-हो, पूरे विश्व में भारतीय संस्कृति अपना एक अलग स्थान रखती है क्योंकि इसमें अनेक रीति-रिवाज व परंपराएं समाई हैं जो लोगों को करीब लाकर एकसूत्र में बांधती हैं। त्यौहारों की इस शृंखला में माघ महीने की संक्रांति से एक दिन पहले आता है लोहड़ी (Lohri) का पर्व। 
         लोहड़ी हर्ष और उल्लास का पर्व है। इसका संबंध मौसम के साथ गहरा जुड़ा है। पौष माह की कड़ाके की सर्दी से बचने के लिए भाईचारक सांझ और अग्नि की तपिश का सुकून लेने के लिए लोहड़ी मनाई जाती है।
        लोहड़ी रिश्तों की मधुरता, सुकून और प्रेम का प्रतीक है। दुखों का नाश, प्यार और भाईचारे से मिल जुलकर नफरत के बीज का नाश करने का नाम है लोहड़ी। यह पवित्र अग्नि का त्यौहार मानवता को सीधा रास्ता दिखाने और रुठों को मनाने का जरिया बनता रहेगा। लोहड़ी शब्द तिल+रोड़ी के मेल से बना है जो समय के साथ बदल कर तिलोड़ी और बाद में लोहड़ी हो गया। लोहड़ी मुख्यत: तीन शब्दों को जोड़ कर बना है ल (लकड़ी) ओह (सूखे उपले) और डी (रेवड़ी)।

'सुंदर मुंदरिए' को लेकर ये है मान्यता
         लोहड़ी के पर्व की दस्तक के साथ ही पहले 'सुंदर मुंदरिए' दे माई लोहड़ी जीवे तेरी जोड़ी आदि लोक गीत गाकर घर-घर लोहड़ी मांगने का रिवाज था। समय बदलने के साथ कई पुरानी रस्मों का आधुनिकीकरण हो गया है। लोहड़ी पर भी इसका प्रभाव पड़ा। अब गांव में           लड़के-लड़कियां लोहड़ी मांगते हुए 'परंपरागत गीत' गाते दिखलाई नहीं देते। गीतों का स्थान 'डीजे' ने ले लिया।
         लोहड़ी की रात को गन्ने के रस की खीर बनाई जाती है और अगले दिन माघी के दिन खाई जाती है जिसके लिए पौह रिद्धी माघ खाघी गई कहा जाता है। ऐसा करना शुभ माना जाता है।      
         यह त्यौहार छोटे बच्चों एवं नव विवाहितों के लिए विशेष महत्व रखता है। लोहड़ी की संध्या में जलती लकड़ियों के सामने नवविवाहित जोड़े अपने वैवाहिक जीवन को सुखमय बनाए रखने की कामना करते हैं।
          लोहड़ी का संबंध कई ऐतिहासिक लोक कथायें प्रचलित हैं पर इससे जुड़ी प्रमुख लोककथा दुल्ला-भट्टी की है जो मुगलों के समय का बहादुर योद्धा था, जिसने मुगलों के बढ़ते जुल्म के खिलाफ कदम उठाया। कहा जाता है कि एक ब्राह्मण की दो लड़कियां सुंदरी और मुंदरी के साथ इलाके का मुगल शासक जबरन शादी करना चाहता था पर उनकी सगाई कहीं और हुई थी और मुगल शासक के डर से उन लड़कियों के ससुराल वाले शादी के लिए तैयार नहीं हो पा रहे थे।
           इस मुसीबत की घड़ी में दुल्ला भट्टी ने ब्राह्मण की मदद की और लड़के वालों को मनाकर एक जंगल में आग जलाकर सुंदरी एव मुंदरी का विवाह करवाया। दुल्ले ने खुद ही उन दोनों का कन्यादान किया। कहावत है कि दुल्ले ने शगुन के रूप में उन दोनों को शक्कर दी थी। इसी कथनी की हिमायत करता लोहड़ी का यह गीत है जिसे लोहड़ी के दिन गाया जाता है।

'सुंदर-मुंदरिए'  हो  !  तेरा   कौन बेचारा हो, 
दुल्ला भट्टी वाला हो, दुल्ले ने धी ब्याही हो।
     सेर शक्कर पाई-हो, कुड़ी दा लाल पटाका हो, 
     कुड़ी दा सालू फाटा हो,  सालू कौन  समेटे हो। 
चाचा  चूरी   कुट्टी   हो,  जमींदारा   लुट्टी  हो, 
जमींदार   सुधाए-हो,   बड़े   पोले   आए हो। 
     इक        पोला              रह     गया        हो, 
     सिपाही         फड़      के      लै    गया     हो। 
सिपाही   ने   मारी   ईंट, भावें   रो  भावें पिट। 
सानूं   दे   दो   लोहड़ी,      जीवे  तेरी  जोड़ी।'
     'साडे   पैरां   हेठ   रोड़,    सानूं छेती-छेती तोर,
      साडे   पैरां   हेठ  दहीं,  असीं   मिलना वी नईं। 
साडे  पैरां  हेठ  परात,  सानूं  उत्तों पै गई रात। 
दे   माई    लोहड़ी,   जीवे     तेरी        जोड़ी।"
        
        मुगलों के जुल्म के विरुद्ध दुल्ला- भट्टी   के मानवीय साहसिक कार्य को आज भी  '  लोहड़ी' पर स्मरण किया जाता हैं और ' लोहड़ी' को सत्य और साहस की अन्याय पर विजय के रूप में मनाया जाता है।        'लोहड़ी'  कृषि से भी संबंधित  है। इस समय गेहूं और सरसों की फसलें पूरे शबाब पर होती हैं। परंपरा है कि लोहड़ी के दिन गाँवों  युवक- युवतियां अपनी-अपनी टोलियां बनाकर घर-घर जाकर गाते हुए लोहड़ी मांगते हैं-
       'दे  माई  लोहड़ी  ,जीवे तेरी जोड़ी। 
       दे माई पाथी, तेरा पुत चढ़ेगा हाथी। '
          गाँव के लोग उन्हें ' लोहड़ी' के रूप में गुड़, रेवड़ी, मूंगफली तिल या पैसे देते हैं। रात को लोग अग्नि में तिल डालते हुए     
   'ईशर अए दलिदर जाए, दलिदर दी जड़ चुल्हे पाए।' बोलते हुए सभी के  स्वस्थ रहने की प्रार्थना करते हैं।
           जिस घर में नये शिशु का जन्म होता ही है, वहाँ लोहड़ी का पर्व विशेष उत्साह से मनाया जाता है। लोहड़ी की रात सभी गांव वाले नवजात शिशु के घर आते हैं । लकड़ियां, उपले आदि से अग्नि जलाई जाती है। सभी को गुड़, मूंगफली, रेवड़ी, तिल घानी बांटे जाते हैं। अब आधुनिक सोच के व्यक्ति  कन्या भ्रूण हत्या को रोकने के लिए लड़कियों के जन्म पर भी लोहड़ी मनाते हैं । 'लोहड़ी' की पवित्र आग में तिल डालने के बाद बड़े बुजुर्गों से आशीर्वाद लिया जाता है। 
             इस वर्ष सारा पंजाब 'किसान आंदोलन' से उद्वेलित है।' धरना स्थल 'पर ही  किसान  'लोहड़ी' मनाने जा रहे हैं।  हमें आशा करनी चाहिये कि यह लोहड़ी का पर्व ऐसी खुशियाँ लाये कि देश में शांति व सौहार्द का वातावरण फिर से स्थापित हो।