Thursday, July 30, 2009

चक्कू ,छुरियां तेज करा लो.

गुजरात के डी ० जी० पी० महोदय ने लड़कियों व महिलाओं को सुरक्षा के लिए एक यूनिक सा आइडिया दिया कि वे पर्स में चाकू ,ब्लेड अथवा मिर्ची का पाउडर रखें और छेड़खानी करने वालों पर उसका प्रयोग करें । लगता है पुलिस के पास अपराधियों एवं मनचलों पर नकेल कसने का समय ही नहीं है । उसके पास और भी बहुत से जरूरी काम है मसलन वी० आई ० पी० की सुरक्षा ,हाईवेज पर पैसों की उगाही ,वारदातें घट जाने के बाद उनकी जाँच और बेकसूरों की धरपकड़ आदि । इसलिए महिलाओं के साथ छेड़खानी रोकने का आला अधिकारी महोदय ने अचूक सा नुस्खा दिया। हमारे छोटे से शहर उरई में तो कुछ दिन पहले एक घटना घटी। घर से भागे एक नाबालिग़ जोड़े के पकड़े जाने पर कोतवाली जाते समय साथ चल रहे होमगार्ड ने लड़की से छेड़खानी की और लड़की ने पर्स से तमंचा निकाल कर होमगार्ड की खोपड़ी उड़ा दी। अगर उक्त अधिकारी यू० पी० में होते तो उस लड़की को जेल की जगह तमगा मिल सकता था।
डी० जी० पी० महोदय का उक्त बयान कुछ सवाल खड़े करता है- क्या आत्मरक्षा के नाम पर किसी को कानून हाथ में लेने की इजाजत डी जा सकती है ? क्या महिलाएं इतनी सक्षम हो गयीं है की वे जरूरत पड़ने पर इन चीजों का प्रयोग कर सकें? यदि नहीं तो ये चीजें उनको ही नुकसान पहुँचाने में भी प्रयुक्त हो सकती हैं। क्या पुलिस इतनी नाकारा हो गयी है कि वह कानून व्यवस्था स्थापित करने के अपने दायित्व को पूरा नहीं करना चाहती? क्या अधिकारियों की आदत भी नेताओं की तरह भाषण या सीख देने की पड़ गयी है?
लगता है अपने देश की सभी महिलाओं को चक्कू ,छुरियों से लैस करना पड़ेगा ।

Wednesday, July 29, 2009

सुन महबूबा , मै नहि रास रचायो

बेचारे मासूम उमर अब्दुल्ला ,इस्तीफा देने का हाई मौरल करेक्टर दिखाने के बाद भी जम्मू कश्मीर विधान सभा में विपक्ष की नेता महबूबा मुफ्ती उन्हें बख्सने को तैयार नहीं। हालाँकि गवर्नर ने उनका इस्तीफा स्वीकार नहीं किया ,केन्द्र सरकार ने भी उन्हें क्लीन चिट दे दी ,लेकिन विपक्ष है कि 'मुर्गे की एक टांग ' की रट लगा कर आरोप पर आरोप लगाये जा रहा है। वालिद फारूक भी उनके बचाव में आगे आ गए हैं। मीडिया की भी सहानुभूति उनको मिल गई है। उमर अपने राहुल बाबा के दोस्त हैं इसलिए कांग्रेस भी उनका साथ दे रही है। पर असल मामला तो जम्मू कश्मीर की जनता के मिजाज का है ,जनता को भी भरोसा होना चाहिए तभी बात बनेगी। जनता को इस बात से ज्यादा सरोकार नहीं कि स्पीकर की अवमानना,माइक तोड़ना या सी० बी० आई० की क्लीन चिट की कापी फाड़ना असंसदीय है या नहीं। महबूबा और उमर दोनों ने विरासत में राजनीतिक दाँवपेंच सीखे हैं। जनता में कैसे पैठ बनाई जाती है ,कैसे उसे बरगलाया या बहकाया जाता है ,इसके गुर दोनों को मालूम है । खेल राजनीतिक शतरंज का है कौन जीतेगा, यह देखना रोचक होगा।

Tuesday, July 28, 2009

बलात्कार और नेताओं की नौटंकी

जम्मू कश्मीर विधान सभा में पिछले दो दिनों से शोपियां बलात्कार कांड पर जो नौटंकी चल रही है , वह हमारे राजनेताओं की असलियत जाहिर तो करती ही है पर हमारे राजनीतिक तंत्र पर कुछ सवाल भी खड़े करती है -. यह कांड २००६ में हुआ तब विपक्ष की नेता महबूबा मुख्यमंत्री थींउनकी जबाबदेही बनती है कि उन्होंने उस समय क्या किया ? आज हंगामा करने का क्या मकसद है? .एक मुख्यमंत्री रह चुका राजनेता संसदीय मर्यादाओंको ताक में रख कर स्पीकर का माइक छीन कर नाटक करता है , यह कितना क्षम्य है? . मुख्यमंत्री का इस्तीफा देना भी एक नाटक के अलावा कुछ नहीं है जिसे स्वीकार करने का कोई औचित्य नहीं। .बलात्कार की शिकार महिलाओं के प्रति चिंता मात्र एक दिखावा है .असली मकसद तो जनता के बीच उन्माद पैदा कर अपने वोट बैंक को बढाना हैकब तक ये नेता जनता को बेवकूफ बनाते रहेगें और लोग बहकावे में आते रहेगेंइन नेताओं को मानवीय संवेदनाओं से कुछ भी लेना देना नहीं है

Sunday, July 26, 2009

आँसू के फूल उनको जो लौट कर न आये.

२६ जुलाई १९९९ हमारे देश का एक गौरवपूर्ण अध्याय -कारगिल विजय । एक दशक पूरा हो चुका है और सारा देश हमारे सैनिकों की शौर्य गाथा को याद कर रहा है । कितने वीर शहीद हो गये ,कितनी माताओं की गोद सूनी हो गयी,कितने बच्चे अनाथ हो गये और कितने परिवार बेसहारा हो गये ,इसकी कल्पना करना कठिन है। विजय की दशाब्दी मानते समय शहीदों के परिवारों की क्या स्थिति है ?इस पर भी हमें ध्यान देना चाहिए। अभी कुछ दिन पहले 'कारगिल विजय समारोह ' मनाने पर भी विवाद दिखा । एक मंत्री ने इसे एन० डी० ए० के कार्यकाल से जोड़ दिया। शहादत पर सियासत का जो तमाशा हमारे देश में प्रायः दिखता है, यह बेहद शर्मनाक है। हमारे सैनिकों की जितनी प्रशंसा की जाए वह कम है। उनके बलिदान से ही हम आज सुरक्षित बैठे हुए हैं । कभी - कभी उनकी कुर्बानियाँ कूटनीतिक निर्णयों की बलि चढ़ जाती है। १९६५ एवं १९७१ की विजय के बाद ऐसा हुआ। किंतु हमारे जवान बिना किसी शिकायत के अपनी जान की बाजी लगा कर आज भी दुश्मन एवं आतंकियों का मुकाबला करने के लिए सन्नद्ध है। उनके इस जज्बे को सलाम। कारगिल विजय के बाद जो जवान जीत कर लौटे उनका सरे देश ने पलक -पांवड़े बीचा कर स्वागत किया ,किंतु जो बलिदान हो गये उनके प्रति देश सदा ऋणी रहेगा और नम आंखों से उन्हें श्रद्धांजलि निवेदित करता है- "फूलों के हार उनको ,जो साथ विजय लाये ; आँसू के फूल उनको जो लौट कर आये। "(मंजुल मयंक )

Thursday, July 23, 2009

नेता खतरे में हैं देश नहीं . . .

लोकसभा में कुछ नेताओं की सुरक्षा को लेकर कल बड़ा हंगामा मचाया गया। ऐसा लगा कि नेता के आगे देश की सुरक्षा का मामला बहुत छोटा है। गृहमंत्री को भी झुकना पड़ा । लोकसभा में फालतू मुद्दों पर जितना समय हमारे देश में बर्बाद होता है उतना किसी भी जनतांत्रिक देश में नहीं होता । समय की बर्बादी के कारण महत्वपूर्ण मुद्दों पर चर्चा नहीं हो पाती और वे बिना बहस के ही पारित हो जाते हैं। साठ दशकों के परिपक्व लोकतान्त्रिक देश की संसद के प्रतिनिधियों के लिए यह चुल्लू भर पानी में डूब मरने वाली बात है। परन्तु हमारे नेताओं की इतनी बेशर्म मोटी खाल है कि उन पर इस बात पर कोई असर ही नहीं पड़ता । पिछली लोकसभा के स्पीकर सोमनाथ दा समझा कर .नाराज व दुखी हो हार गए पर हमारे नेताओं के कानों में जूँ भी न रेंगी । नेताओं को अपनी सुरक्षा की जितनी चिंता है उसका रंचमात्र अंश भी देश की सुरक्षा या आम आदमी की समस्याओं को सुलझाने में नहीं दिखता। लगता है कि देश की तुलना में नेता ज्यादा खतरे में हैं। इस प्रवृत्ति के खिलाफ जनचेतना जगाने की आज महती आवश्यकता है।

Wednesday, July 22, 2009

देशहित और समझौता

हिलेरी क्लिंटन की भारत यात्रा के बाद से सरकार पर निगरानी समझौते को लेकर विपक्षी हमले तेज हो गए है। यहाँ तक कि कांग्रेस पार्टी ने भी सरकार को अकेला छोड़ दिया है। कांग्रेस प्रवक्ता का यह कथन कि सरकार के समझौते के बारे में सरकार से पूछिए ,सरकार की स्थिति को और भी जटिल बना देता है। कोई भी समझौता जो देश की संप्रभुता को प्रभावित करता है.कतई स्वीकार नहीं किया जा सकता। केवल इस आधार कि परमाणु समझौते के पालन में हमें आगे सहूलियत होगी, ऐसे प्राविधानों को स्वीकार नहीं किया जा सकता जिनके दूरगामी परिणाम हमारे लिए भयावह हों। हमें इतिहास से सबक लेकर अमेरिका के पाकिस्तान प्रेम से भी सावधान रहने की जरूरत है। सरकार को अपनी जबाबदेही स्वीकार करनी ही होगी। मुझे सुकवि आदर्श 'प्रहरी' की निम्नांकित पंक्तियाँ आज भी प्रासंगिक लगती हैं -"समझौते तो हों पर इतना याद हो , राष्ट्र प्रथम हो जो हो इसके बाद हो; रखें सभी राष्ट्रों के प्रति सदभावना , ऐसा हो कि बाद में पश्चाताप हो। "

Friday, July 17, 2009

अबला -सबला : गाली - बदला

अपने देश की राजनीति नई ऊँचाइयों पर है। शिखर पर कई महिलाएं हैं। यू० पी० में माया -रीता की जंग जारी है। रीता की डोर सोनिया गाँधी के हाथ में है। विधान सभा चुनाव की तैयारियाँ चल रहीं हैं। दलित वोट बैंक निशाने पर है। मुद्दा चाहे दलित उत्पीड़न हो या बलात्कार का। फायरब्रांड महिला नेता सुर्खियों में हैं। मीडिया भी मजे ले रहा है। संस्कार,शालीनता और संसदीय मर्यादित भाषा अब असरदार कहाँ रही ? महिला भी अब अबला नहीं रही । "अबला तेरी हाय तुम्हारी यही कहानी , आँचल में है दूध और आंखों में पानी " लिखने वाले मैथिलीशरण जी कम से कम राजनीति में तो अब अप्रासंगिक हो गए हैं। भारतीय राजनीति अबला अब सबला है। इंदिरा गाँधी से ले कर जयललिता, मायावती और वसुंधरा तक का यही इतिहास रहा है कि महिला राजनीतिज्ञों ने जब भी शिखर छुआ ,सत्ता को उन्होंने अपने स्वार्थ एवं अहम् की पूर्ति के साधन के रूप में प्रयुक्त किया। अब तो गाली और बदला राजनीति में आम हो गए हैं। अब तो यही कहना चाहिए ," सबला तेरी राजनीति में यही कहानी , मुँह में गाली और प्रकृति में हो मनमानी । " ईश्वर ( अगर है तो )देश की रक्षा करे।

Tuesday, July 14, 2009

बेशर्मी का जश्न . ..

२६ अगस्त २००६ को मध्य प्रदेश में माधव कालेज में हुए प्रो० एच ० एस० सभरवाल हत्याकांड के सभी अभियुक्तों को नागपुर की अदालत ने अभियोजन पक्ष की आरोप सिद्ध करने में असफलता के कारण बरी कर दिया। आरोपी बी ० जे ० पी० की युवा शाखा अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के कार्यकर्ता थे। इनके समर्थन में सरकार ,यहाँ तक की मुख्य मंत्री भी इस कदर खुल कर आ गए थे कि उच्च अदालत को यह मामला राज्य से बाहर भेजना पड़ा था। ............. यह घटना हमारे समाज एवं तंत्र कि कई विसंगतियों एवं संवेदनहीनता की पराकाष्ठा की ओर इशारा करती है। प्रो ० सभरवाल पर हमला कालेज में व्यवस्था बनाये रखने की प्रतिबद्धता की कारण हुआ। राजनीतिक दबाब के कारण प्रशासन उदासीन तो रहा ही ,घटना घट जाने के बाद भी उसका समर्थन आरोपियों के साथ रहा । दुर्भाग्य की बात यह थी कि सरकार एवं विद्यार्थी संगठन उस विचारधारा से सम्बंधित थे जो भारतीय संस्कृति की रक्षा की ठेकेदार होने का दंभ भरती है एवं गुरु के प्रति श्रद्धा को आदर्श मानती है।...... .... यह स्थिति हमारी न्यायिक व्यवस्था की खामियों की ओर भी संकेत करती है। यह हमारे देश में कानून व व्यवस्था की उस स्थिति को भी स्पष्ट करती है जहाँ सत्ता की हनक के कारण खुलेआम हुए इस हत्याकांड का कोई भी चश्मदीद गवाह नहीं मिल पाया। जिसने भी पीड़ित पक्ष का साथ देने की कोशिश की, उसका प्रशासन समर्थित गुंडों द्वारा उत्पीड़न किया गया। आख़िर जहाँ राज्य का मुख्यमंत्री ही खुलेआम आरोपियों की वकालत कर रहा हो वहाँ प्रशासन की क्या औकात?............. नागपुर अदालत के निर्णय के बाद जिस बेशर्म तरीके से जश्न मनाया जा रहा है और ख़ुद राज्य के मुख्य मंत्री खुशी व्यक्त कर रहे है ,यह चुल्लू भर पानी में डूबने की बात है। लगता है रावण को सत्य असत्य की व्याख्या करने का अधिकार दे दिया गया है। यह स्थिति हमारे सामाजिक व राजनीतिक परिवेश की संवेदनहीनता को उजागर करती है। इस पर मंथन करने की आवश्यकता है।

Saturday, July 11, 2009

अहो ! यह मूर्तिमय देश हमारा .

हमारे देश में नायकों का सदैव से सम्मान किए जाने की परिपाटी रही है। उनकी मूर्तियाँ लगाना भी आदर प्रकट करने का एक तरीका है। गत साठ दशकों से अधिक के लोकतंत्र में इस प्रवृत्ति का चलन कुछ अधिक ही बढ गया है। दुःख इस बात का है कि हमारी वोट की राजनीति ने महापुरुषों को भी जातिगत आधार पर बाँट दिया है। जब एक वर्ग सत्ता में आता है तो वह अपने वर्ग के नायकों की मूर्ति ही स्थापित करना चाहता है। यहाँ तक तो बात ठीक है पर समस्या वहां खड़ी हो जाती है जब एक वर्ग के द्वारा अन्य वर्गों के महापुरुषों की अवहेलना की जाने लगती है अथवा उनका अपमान किया जाने लगता है। असहिष्णुता की यह बढती प्रवृत्ति देश में सामाजिक सदभाव का विनाश ही करेगी । हमें इसे हतोत्साहित करना चाहिए। अब तो राजनेता अपने जीवनकाल में ही अपनी प्रतिमा लगवा कर अमर होना चाहते है। इसके लिए वे उस सार्वजानिक धन का अपव्यय करने से भी नहीं चुकते जिसे गरीबों की भलाई के लिए व्यय होना चाहिए। वोट की राजनीति ने सभी के मुँह सिल रखे हैं। मूर्तियाँ लगाने की होड़ ने एक उन्माद का रूप ले लिया है। बाद इन मूर्तियों के रख -रखाव पर भी कोई ध्यान नहीं देता।क्या कुछ दिनों में हमारा देश विश्व में एक मूर्ति प्रधान देश के रूप में जाना जाएगा? इस समस्या पर सम्यक विचार करने की आवश्यकता है।

Tuesday, July 7, 2009

दृष्टिकोण को व्यापक बनाने की जरूरत

हम एक लोकतान्त्रिक समाज में रहते है। लोकतान्त्रिक व्यवस्था को तो हमने अपना तो लिया है और इस व्यवस्था में अपना बहुपक्षीय विकास भी किया है किंतु बौद्धिक स्तर पर भी हम प्रजातान्त्रिक मानसिकता बना सके हों,यह प्रायः देखने को कम मिलता है। मैंने अनेक ऎसी बहुमुखी प्रतिभाओं ,विद्वानों,प्रबुद्ध एवं स्थापित विचारकों ,लोकप्रिय राजनेताओं एवं सक्रिय समाजशास्त्रियों में भी उस वैचारिक व्यापकता एवं सहिष्णुता का अभाव देखा है जो एक प्रजातान्त्रिक समाज में होनी चाहिए। यह दृष्टिकोण कि 'जो हमसे सहमत नहीं वह हमारा विरोधी है' प्रजातान्त्रिक मानसिकता को व्यक्त नहीं करता । प्रजातान्त्रिक मानसिकता असहमति को भी सुनने और अपने तर्कों (कुतर्क नहीं) से उसकी काट करने में विश्वास रखती है । मैंने विभिन्न अकादमिक संगोष्ठियों एवं विधायिका में होने वाली बहसों में यह भी देखा है कि वक्ता उत्तेजित हो कर उनसे पृथक मत व्यक्त करने वाले वक्ताओं पर ऐसी व्यक्तिगत टिप्पणी कराने लगते है जिसका बहस से कोई सम्बन्ध नहीं होता । मै यह अनुभव करता हूँ कि हम सभी को अपने संपर्क में आने वाले सभी प्रियजनों,बुद्धिजीवियों और विचारकों से ऎसी प्रजातान्त्रिक बौद्धिक प्रवृत्ति अपनाने का आग्रह करना चाहिए जिससे वैचारिक बहसों में सार्थकता व सहजता दृष्टिगोचर हो ,न कि कटुता । हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि आप जिसे सही समझते है उसके लिए प्रजातंत्र में केवल आग्रह ही कर सकते है,किसी पर अपनी बात थोप नहीं सकते। यदि हर व्यक्ति ऐसा प्रयास करे तो देर से ही सही ,समाज में बौद्धिक समरसता एवं बहसों में सार्थकता दिखने लगेगी ,ऐसा मेरा विश्वास है। मै यह भी आशा नहीं करता कि सभी ( मेरे अत्यन्त निकटस्थ भी ) मेरे उक्त विचार से सहमत ही होंगे।

Monday, July 6, 2009

सावधान ! हमारा कल्चर खतरे में है .?

सम्लेंगिकता पर हाई कोर्ट के फैसले के बाद से इस विषय परएक बवंडर उठ खड़ा हुआ है। सभी धर्मो के प्रमुख चेहरों ने धर्म विरोधी घोषित कर इसे हराम या देश की संस्कृति के लिए खतरा बताया है। अदालत ने सम्लेंगिक संबंधों को विवाह संस्था का विकल्प घोषित नहीं किया है और न ही इन्हें बढावा देने की बात कही है। कोर्ट ने तो आपसी सहमति के आधार पर स्थापित ऐसे संबंधों को सजा से मुक्त किया है और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार की दृष्टि से इन्हें मान्यता दी है। एक ओर हम लोकतान्त्रिक होने का दावा करते है तो दूसरी ओर परम्परावादी लीक पर चलना चाहते है। इतनी हाय- तौबा इस मुद्दे पर मची है जैसे हमारा कल्चर खतरे में पड़ गया है। भविष्य के समाज की बड़ी -बड़ी कल्पनाएँ की जा रहीं हैं। हमारी संस्कृति की जड़े बहुत गहरी है और यह बहुत व्यापक ,वाद-विवाद से तत्वज्ञान प्राप्त करने में विश्वास रखने वाली रही है। यौन शिक्षा को बहुत पहले से वैज्ञानिक तरीके से हमारे यहाँ निरुपित किया जा चुका है। वात्स्यानन का ' कामसूत्र ' एवं खजुराहो की की कलाकृतियाँ इसका प्रमाण है। हमारी सांस्कृतिक परम्पराएँ लोकतान्त्रिक एवं परस्पर विरोधी दृष्टिकोणों में सामंजस्य स्थापित करने वाली रहीं है। अतः इस फैसले पर विवेकपूर्ण एवं प्रबुद्ध तरीके प्रतिक्रिया व्यक्त करने की जरुरत है और यही एक सही प्रजातान्त्रिक समाज की विशेषता होती है। आखिर हमें जनता के विवेक पर भी भरोसा करना चाहिए।

Thursday, July 2, 2009

समलैंगिकता -खुले दिमाग से सोचिये. .

सम्लेंगिकता पर दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले के बाद इस मुद्दे पर एक बहस छिड़ गई है। लगभग सभी धर्मों के प्रमुख लोगों ने समलैगिकता को अनैतिक और विकृत मानसिकता का परिणाम बताया है । वहीं प्रगतिशील एवं व्यावहारिक सोच रखने वाले वर्ग ने इस पर विचार करने और बदलते परिवेश में स्वीकार करने की आवश्यकता पर बल दिया है। सेक्स की पूर्ति मानव की स्वाभाविक एवं अनिवार्य आवश्यकता है और इसके लिए वह कोई न कोई रास्ता आदिकाल से निकालता रहा है। समाज में सभ्यता के विकास के साथ - साथ इस प्रवृत्ति के समाधान के लिए विवाह संस्था का जन्म हुआ । वैश्यावृत्ति की प्रथा भी एक विकल्प के रूप में अस्तित्व में आई । प्राचीन भारत में ऐसे उल्लेख मिलते है जहाँ वैश्याओं को समाज में सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था। आधुनिकीकरण ,पश्चिमीकरण एवं वैश्वीकरण के परिणामस्वरूप समलैगिकता की प्रवृत्ति एवं उसकी सामाजिक मान्यता का प्रश्न खुले रूप में सामने आया । इस समस्या के मानवीय ,सामाजिक एवं व्यावहारिक पक्षों पर सम्यक रूप से विचार करने की आवश्यकता है। पूर्वाग्रहों एवं अतिवादी सोच दोनों से ही समस्या उलझेगी। शेक्सपियर का यह कथन हमें ध्यान में रखना होगा,"There is nothing good or bad in this world but thinking makes it so."