Saturday, October 24, 2020

प्रथम स्वाधीनता संग्राम के वयोवृद्ध स्वाधीनता सेनानी बहादुर शाह ज़फ़र


        भारत में मुग़ल साम्राज्य के आखिरी शहंशाह, बहादुर शाह ज़फ़र उर्दू के जानेे-माने शायर थे। उन्होंने 1857 के 'प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम' में क्रांतिकारियों का नेतृत्व किया था। 
         बहादुर शाह ज़फ़र का जन्म 24 अक्तूबर  1775 ई. को दिल्ली में हुआ था। बहादुर शाह अकबर शाह द्वितीय और लालबाई के दूसरे पुत्र थे। उनकी माँ लालबाई हिंदू परिवार से थीं। 
         1857 में जब ब्रिटिश शासन के विरुद्ध भारत में स्वाधीनता की पहली लड़ाई लडी गई तब सभी विद्रोही सैनिकों और राजा-महाराजाओं ने उन्हें हिंदुस्तान का सम्राट घोषित किया। अंग्रेजों के विरुद्ध भारतीय सैनिकों के संघर्ष को देख वृद्ध बहादुर शाह जफर ने अंग्रेजों को हिंदुस्तान से खदेड़ने का आह्वान कर डाला।
        क्रांतिकारियों ने दिल्ली और देश के अन्य हिस्सों में अंग्रेजों के विरुद्ध कड़ा संघर्ष किया। बहादुर शाह ज़फ़र अधिकांश समय नाम के शासक रहे,उनके पास वास्तविक सत्ता नहीं रही और वह अंग्रेज़ों पर आश्रित थे। 1857  में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम प्रारंभ होने के समय बहादुर शाह ज़फ़र की आयु 82 वर्ष की थी।
      क्रांति की असफलता के बाद सितम्बर 1857 ई. में अंग्रेज़ों ने  दिल्ली पर पुनः अधिकार कर लिया । कहते हैं कि जब मेजर हडसन (  जो उर्दू का थोड़ा ज्ञान रखता था) मुगल सम्राट को गिरफ्तार करने के लिए हुमायूं के मकबरे में पहुंचा (जहां पर बहादुर शाह ज़फर अपने दो बेटों के साथ छुपे हुए थे)तो उसने कहा -

"दमदमे में दम नहीं है ख़ैर मांगो जान की.. 
 ऐ ज़फर ठंडी हुई अब तेग हिंदुस्तान की.."

इस पर बादशाह ने उत्तर दिया-

"ग़ज़ियों  में बू  रहेगी जब  तलक ईमान की..
 तख़्त ऐ लंदन तक चलेगी तेग हिंदुस्तान की."
       बहादुर शाह ज़फ़र को गिरफ़्तार करके उन पर मुक़दमा चलाया गया तथा उन्हें बर्मा (वर्तमान म्यांमार) में रंगून निर्वासित कर दिया गया। जहाँ उनकी मृत्यु हुई ।
      बहादुर शाह ज़फ़र की शायरी में एक अलग तरह का दर्द छिपा हुआ है. विद्रोह और फिर उनके रंगून में निर्वासित होने के बाद ये ग़म और भी स्पष्ट तौर पर उनकी शायरी में नज़र आता है। मातृभूमि से दूर होने की उनके हृदय में अत्यंत पीड़ा थी। 
        प्रस्तुत हैं उनकी दो ग़ज़लें  जो उनकी मनोदशा एवं उनके अंदर के शायर का दिग्दर्शन करातीं हैं-
             
               न किसी की आँख का नूर हूँ..
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"न किसी की आँख का नूर हूँ,न किसीके दिलका क़रार हूँ,
जो  किसी के  काम न आ सके,  मैं वो एक मुश्ते ग़ुबार हूँ।

मेरा रंग-रूप  बिगड़  गया, मेरा  यार  मुझसे  बिछड़ गया, 
जो चमन ख़िज़ां से उजड़ गया,मैं उसी की फ़स्ले-बहार हूँ। 

पए फ़ातिहा  कोई आए क्यों, कोई  चार फूल चढ़ाए क्यों, 
कोई आ के शम्मा जलाए क्यों, मैं वो बेकसी का मज़ार हूँ। 

मैं नहीं हूं नग़्म-ए-जाँ फिज़ा,मुझे सुन के कोई करेगा क्या, 
मैं  बड़े ही रोग   की हूँ  सदा, मैं  बड़े  दुखी की पुकार हूं।

न 'ज़फ़र' किसीका रक़ीब हूँ ,न 'ज़फ़र' किसीका हबीब हूँ
जो बिगड़ गया वह नसीब हूँ ,जोउजड़ गया वह दयार हूँ।"

          बर्मा में निर्वासन के समय उनकी मनोदशा को दर्शाती उनकी यह  मशहूर ग़ज़ल आज भी उर्दू अदब का एक लोकप्रिय दस्तावेज है-
          
      लगता नहीं है जी मेरा उजड़े दयार में
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"लगता   नहीं   है जी  मेरा  उजड़े   दयार में,
किसकी  बनी  है    आलमे-ना-पायदार   में। 

बुलबुल   को   बाग़बां से ,न सय्याद से गिला, 
क़िस्मत   में  क़ैद थी लिखी  फ़स्ले-बहार में। 

कह दो इन  हसरतों  से  कहीं और  जा बसें, 
इतनी  जगह   कहाँ  है     दिले   दाग़दार में। 

एक शाख़े-गुल पे बैठ के, बुलबुल है शादमां, 
कांटे   बिछा   दिए   हैं    दिले-लालज़ार  में। 

उम्रे-दराज़   माँग    के   लाये   थे  चार दिन, 
दो    आरज़ू     में  कट  गए ,दो  इंतिज़ार में। 

दिन   ज़िंदगी   के ख़त्म हुए ,  शाम  हो गई
फैला     के   पाँव    सोएंगे, कुंजे  मज़ार  में। 

कितना   है  बदनसीब ज़फ़र , दफ़्न के लिए
दो गज़   ज़मीं भी मिल न सकी कू-ए-यार में। "
          
       ऐसे अजीम शायर एवं स्वाधीनता सेनानी को उनकी जयंती पर शत् शत् नमन। 

Wednesday, October 21, 2020

स्वतंत्र भारत की अस्थायी सरकार ( आज़ाद हिन्द सरकार) का स्थापना दिवस

         आज 21 अक्टूबर है। आज के दिन  1943 में नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने आजाद हिन्द फौज के सर्वोच्च सेनापति के रूप में सिंगापुर में स्वतंत्र भारत की अस्थायी सरकार 'आज़ाद हिन्द सरकार 'की स्थापना की थी। नेताजी सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्व में भारतीय स्वाधीनता के लिये  'आज़ाद हिंद फौज'  के संघर्ष की गाथा भारतीय स्वाधीनता  के इतिहास का स्वर्णिम अध्याय है। 
              'आज़ाद हिन्द फ़ौज ' के नाम से सेना का गठन पहली बार राजा महेन्द्र प्रताप सिंह द्वारा 29 अक्टूबर 1915 को अफगानिस्तान में हुआ था। यह उनकी  ऐसी सेना थी, जिसका लक्ष्य अंग्रेजों से लड़कर भारत को स्वतंत्रता दिलाना था। पर उनका यह प्रयास सफल नहीं हो पाया। 
              द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान सन 1943 में जापान की सहायता से टोकियो में रासबिहारी बोस ने भारत को अंग्रेजों से स्वतन्त्र कराने के लिये इन्डियन नेशनल आर्मी (INA) नामक सशस्त्र सेना का संगठन किया जिसे 'आज़ाद हिंद फौज ' कहा गया। इस सेना के गठन में कैप्टन मोहन सिंह, रासबिहारी बोस एवं निरंजन सिंह गिल का   महत्वपूर्ण योगदान था। 
             आरम्भ में इस फौज़ में जापान द्वारा युद्धबन्दी बना लिये गये भारतीय सैनिकों को लिया गया था। बाद में इसमें बर्मा और मलाया में स्थित भारतीय स्वयंसेवक भी भर्ती हो गये। आरंभ में इस सेना में लगभग 16,300 सैनिक थे। कालान्तर में जापान ने 60,000 युद्ध बंदियों को आज़ाद हिन्द फ़ौज में शामिल होने के लिए छोड़ दिया । 
             पर इसके बाद ही जापानी सरकार और मोहन सिंह के अधीन भारतीय सैनिकों के बीच आज़ाद हिन्द फ़ौज की भूमिका के संबध में विवाद उत्पन्न हो जाने के कारण मोहन सिंह एवं निरंजन सिंह गिल को गिरफ्तार कर लिया गया। 
             'आज़ाद हिन्द फ़ौज' का दूसरा चरण तब प्रारम्भ होता है, जब सुभाषचन्द्र बोस सिंगापुर गये। सुभाषचन्द्र बोस ने 1941 ई. में बर्लिन में इंडियन लीग की स्थापना की, किन्तु जर्मनी ने उन्हें रूस के विरुद्ध प्रयुक्त करने का प्रयास किया, तब उनके सामने कठिनाई उत्पन्न हो गई और उन्होंने दक्षिण पूर्व एशिया जाने का निश्चय किया।
              सुभाष चन्द्र बोस पनडुब्बी द्वारा जर्मनी से जापानी नियंत्रण वाले सिंगापुर पहुँचे और पहुँचते ही जून 1943 में टोकियो रेडियो से घोषणा की कि अंग्रेजों से यह आशा करना बिल्कुल व्यर्थ है कि वे स्वयं अपना साम्राज्य छोड़ देंगे। हमें भारत के भीतर व बाहर से स्वतंत्रता के लिये स्वयं संघर्ष करना होगा।  सुभाष  बोस से प्रभावित होकर रासबिहारी बोस ने 4 जुलाई 1943 को 46 वर्षीय सुभाष को 'आजाद हिन्द फौज' का नेतृत्व सौंप दिया।
               नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने 5 जुलाई 1943 को सिंगापुर के ' टाउन हाल' के सामने 'आज़ाद हिंद फौज ' के सुप्रीम कमाण्डर के रूप में  सेना को सम्बोधित करते हुए ' दिल्ली चलो!'का नारा दिया । 
               जापानी सेना के सहयोग से  'आज़ाद हिन्द फ़ौज ' बर्मा के रंगून (यांगून) से होती हुई थलमार्ग से भारत की ओर बढ़ी और 18 मार्च 1944 ई. को कोहिमा और इम्फ़ाल के भारतीय मैदानी क्षेत्रों में पहुँच गई । वहाँ इसका ब्रिटिश व कामनवेल्थ सेना से जमकर संघर्ष हुआ।       
              सुभाष चंद्र बोस ने अपने अनुयायियों को 'जय हिन्द ' का  नारा दिया और 21 अक्टूबर 1943 को उन्होंने 'आजाद हिन्द फौज'  के सर्वोच्च सेनापति के रूप सिंगापुर में स्वतंत्र भारत की अस्थायी सरकार 'आज़ाद हिन्द सरकार ' की स्थापना की। 
              नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने इस सरकार के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री तथा सेनाध्यक्ष तीनों  पद स्वयं ग्रहण किये । इसके साथ ही अन्य जिम्मेदारियां जैसे वित्त विभाग एस.सी चटर्जी को, प्रचार विभाग एस.ए. अय्यर को तथा महिला संगठन लक्ष्मी स्वामीनाथन को सौंपा गया। 
              इस सरकार को जर्मनी, जापान, फिलीपीन्स, कोरिया, चीन, इटली, मान्चुको और आयरलैंड ने मान्यता दे दी। जापान ने अंडमान व निकोबार द्वीप इस अस्थायी सरकार को दे दिये। नेताजी उन द्वीपों में गये और उनका नया नामकरण किया। अंडमान का नया नाम 'शहीद' द्वीप तथा निकोबार का 'स्वराज्य' द्वीप रखा गया। 30 दिसम्बर 1943 को इन द्वीपों पर स्वतन्त्र भारत का ध्वज भी फहरा दिया गया। 
             इसके बाद नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने सिंगापुर एवं रंगून में आज़ाद हिन्द फ़ौज का मुख्यालय बनाया। 4 फ़रवरी 1944 को आजाद हिन्द फौज ने अंग्रेजों पर दोबारा भयंकर आक्रमण किया और कोहिमा, पलेल आदि कुछ भारतीय प्रदेशों को अंग्रेजों से मुक्त करा लिया। 6 जुलाई 1944 को उन्होंने रंगून रेडियो स्टेशन से महात्मा गांधी के नाम जारी एक प्रसारण में अपनी स्थिति  स्पष्ट की और आज़ाद हिन्द फौज़ द्वारा लड़ी जा रही इस निर्णायक लड़ाई की जीत के लिये उनकी शुभकामनाएँ माँगीं। उन्होंने कहा ," मैं जानता हूँ कि ब्रिटिश सरकार भारत की स्वाधीनता की माँग कभी स्वीकार नहीं करेगी। मैं इस बात का कायल हो चुका हूँ कि यदि हमें आज़ादी चाहिये तो हमें खून के दरिया से गुजरने को तैयार रहना चाहिये। अगर मुझे उम्मीद होती कि आज़ादी पाने का एक और सुनहरा मौका अपनी जिन्दगी में हमें मिलेगा तो मैं शायद घर छोड़ता ही नहीं। मैंने जो कुछ किया है अपने देश के लिये किया है। विश्व में भारत की प्रतिष्ठा बढ़ाने और भारत की स्वाधीनता के लक्ष्य के निकट पहुँचने के लिये किया है। भारत की स्वाधीनता की आखिरी लड़ाई शुरू हो चुकी है। आज़ाद हिन्द फौज़ के सैनिक भारत की भूमि पर सफलतापूर्वक लड़ रहे हैं। हे राष्ट्रपिता! भारत की स्वाधीनता के इस पावन युद्ध में हम आपका आशीर्वाद और शुभ कामनायें चाहते हैं।"
             नेताजी सुभाषचन्द्र बोस द्वारा ही गांधी जी के लिए प्रथम बार राष्ट्रपिता शब्द का प्रयोग किया गया था।इसके अतिरिक्त सुभाष चन्द्र बोस ने फ़ौज के कई बिग्रेड राष्टीय आंदोलन के नेताओं के नाम पर रखे जैसे- महात्मा गाँधी ब्रिगेड, अबुल कलाम आज़ाद ब्रिगेड, जवाहरलाल नेहरू ब्रिगेड तथा सुभाषचन्द्र बोस ब्रिगेड। सुभाषचन्द्र बोस ब्रिगेड के सेनापति शाहनवाज ख़ाँ थे।
             21 मार्च 1944 को दिल्ली चलो के नारे के साथ आज़ाद हिंद फौज का हिन्दुस्तान की धरती पर आगमन हुआ। 22 सितम्बर 1944 को 'शहीदी दिवस' मनाते हुये सुभाषचन्द्र बोस ने अपने सैनिकों से मार्मिक अपील की -
                 " हमारी मातृभूमि स्वतन्त्रता की खोज में है। तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूँगा। यह स्वतन्त्रता की देवी की माँग है।"
           फ़रवरी 1944 से लेकर जून 1944 ई. के मध्य तक आज़ाद हिन्द फ़ौज की तीन ब्रिगेडों ने जापानियों के साथ मिलकर भारत की पूर्वी सीमा एवं बर्मा से युद्ध लड़ा किन्तु दुर्भाग्यवश द्वितीय विश्व युद्ध का पासा पलट गया। जर्मनी ने हार मान ली और जापान को भी घुटने टेकने पड़े। ऐसे में नेताजी को टोकियो की ओर पलायन करना पड़ा और कहते हैं कि हवाई दुर्घटना में उनका निधन हो गया किन्तु इस बात की पुष्टि अभी तक नहीं हो सकी है।      
           'आज़ाद हिन्द फ़ौज 'के अनेक सैनिकों एवं अधिकारियों को अंग्रेज़ों ने 1945 ई. में गिरफ़्तार कर लिया और उनका सैनिक अभियान असफल हो गया, किन्तु इस असफलता में भी उनकी जीत छिपी थी। 
          'आज़ाद हिन्द फ़ौज ' के गिरफ़्तार सैनिकों एवं अधिकारियों पर अंग्रेज़ सरकार ने दिल्ली के लाल किले में नवम्बर, 1945 में मुकदमा चलाया और फौज के मुख्य सेनानी कर्नल सहगल, कर्नल ढिल्लों एवं मेजर शाह नवाज ख़ाँ पर राजद्रोह का आरोप लगाया गया। इनके पक्ष में सर तेजबहादुर सप्रू, जवाहरलाल नेहरू, भूला भाई देसाई और के.एन. काटजू ने पैरवी की पर फिर भी इन तीनों की फाँसी की सज़ा सुनाई गयी। 
           इस निर्णय के विरुद्ध पूरे देश में कड़ी प्रतिक्रिया हुई, जनमानस भड़क उठा और  मशालों को हाथों में थाम कर उन्होंने इसका विरोध किया । इस समय नारे लगाये गये- 'लाल क़िले को तोड़ दो, आज़ाद हिन्द फ़ौज को छोड़ दो।'  विवश होकर तत्कालीन वायसराय लॉर्ड वेवेल ने अपने विशेषाधिकार का प्रयोग कर इन सबकी मृत्युदण्ड की सज़ा को माफ कर दिया।
           सुभाष चंद्र बोस एक सच्चे राष्ट्रवादी थे। यद्यपि उनके मन में फासीवाद के अधिनायकों के सबल तरीकों के प्रति भावनात्मक झुकाव था पर उनका मूल उद्देश्य  भारत को शीघ्रातिशीघ्र स्वतन्त्रता दिलाना था इसके लिये उन्होंने हिंसात्मक संघर्ष का रास्ता अपना कर 'आजाद हिन्द फौज' के माध्यम से संघर्ष किया।
          आज का दिन  एक गौरवपूर्ण ऐतिहासिक दिवस है जब स्वतंत्र भारत की अस्थाई सरकार की घोषणा नेताजी सुभाष चंद्र बोस के द्वारा की गयी। 



Sunday, October 11, 2020

विश्व में चुनौतियों व असुरक्षा से जूझती बालिकायें

          आज ' अंतर्राष्ट्रीय बालिका दिवस ' है। ' संयुक्त राष्ट्र संघ' की महासभा ने 19 दिसंबर 2011 को इस संबंध में एक प्रस्ताव पारित किया था, जिसमें बालिकाओं के अधिकारों को मान्यता देने के लिए 11 अक्टबर 2012 को 'अंतरराष्ट्रीय बालिका दिवस '  मनाने का निर्णय लिया गया। 
          वर्तमान परिवेश में  पूरे विश्व में बालिकाओं के प्रति अमानवीय व्यवहार की घटनाओं में एकाएक बढ़ोत्तरी हुई है। जिन देशों में गृहयुद्ध चल रहा है अथवा जहाँ  आतंकवादी गुट सक्रिय हैं, वहाँ महिलाओं और बालिकाओं के साथ हिंसा व अमानवीय व्यवहार आम बात है। विकासशील देशों ( जिनमें भारत भी शामिल है) में सामाजिक व आर्थिक स्थितियों के कारण बालिकाओं की स्थिति शोचनीय हुई है। ऐसे परिवेश में अंतर्राष्ट्रीय बालिका दिवस की सार्थकता बढ़ जाती है। 
          इस दिवस मनाने की प्रेरणा कनाडियाई संस्था 'प्लान इंटरनेशनल ' ( Plan International) के 'बिकॉज आई एम गर्ल' (Because I am Girl) अभियान से मिली। इस अभियान का उद्देश्य अंतर्राष्ट्रीय स्तर  पर बालिकाओं के पोषण के लिए जागरूकता लाना, विभिन्न क्षेत्रों अपना योगदान करने वाली और चुनौतियों का सामना कर रही बालिकाओं के अधिकारों के प्रति लिए विश्व का ध्यान आकर्षित करना और उनके प्रोत्साहन हेतु लोगों को प्रेरित करना था।,
         'अंतरराष्ट्रीय बालिका दिवस' मनाने  का  प्रमुख उद्देश्य है  विश्व में बालिकाओं की समस्याओं पर विचार कर इनके कल्याण हेतु  सक्रिय प्रयास करना। गरीबी, संघर्ष, शोषण और भेदभाव का शिकार होती  बालिकाओं की शिक्षा और उनके सपनों को पूरा करने के लिए प्रयास करने पर ध्यान केंद्रित करना  है।
         विश्व  में आज भी बालिकाएं  अपने अधिकारों के लिए संघर्षरत हैं।  चाँद व मंगल तक पहुंच चुके विश्व  में, बालिकायें आज भी खतरे में है। अपनी खिलखिलाहट से सभी का मन हरने वाली बच्चियाँ  आज भी  उपेक्षा और अभावों का सामना कर रही हैं। गरीबी और रूढ़ियों के चलते उन्हें  स्कूल नहीं भेजा जाता।  प्रतिभाशाली होने के बावजूद वह प्राथमिक शिक्षा से आगे नहीं बढ़ पाती। कम उम्र में ही उनकी शादी कर दी जाती है ।   'संयुक्त राष्ट्र संघ'  की रिपोर्ट के   विश्व में विभिन्न  देशों में अनेक लड़कियां गरीबी के बोझ तले जी रही हैं लड़कियों को शिक्षा मुहैया नहीं हो पाती। दुनिया में हर तीन में से एक लड़की शिक्षा से वंचित है। प्रतिभा होते हुये भी वे भेदभाव की शिकार हैं।
           यह स्थिति बाहर ही नहीं बल्कि  परिवार में भी है। घर में भी  वे भेदभाव, घरेलू हिंसा, यौन उत्पीड़न का शिकार हो रही हैं। अतः बालिकाओं को शिक्षित करना हम सभी का न केवल कर्तव्य वरन् नैतिक दायित्व भी है  । शिक्षा से लड़कियाँ  न केवल शिक्षित होतीं हैं हैं बल्कि उनके अंदर आत्मविश्वास भी उत्पन्न  होता है और वे अपने अधिकारों के प्रति जागरूक होती हैं । कहा जाता है कि एक शिक्षित लड़की अनेक परिवारों का सकारात्मक निर्माण करती है। 
           भारत में भी केंद्र व राज्य  सरकारों ने बालिकाओं को शिक्षित व सशक्त बनाने के लिए अनेक योजनायें क्रियान्वित की हैं।  'बेटी बचाओ और बेटी पढ़ाओ'  एक अच्छी योजना है। इसके अतिरिक्त अनेक महत्वपूर्ण योजनाएं शुरू की जा रही हैं। भारत में 24 जनवरी को प्रति वर्ष ' राष्ट्रीय बालिका दिवस' भी मनाया जाता है।
             आज आवश्यकता बालिकाओं को शिक्षित बनाने के साथ साथ उन्हें सुरक्षा देने की भी है। आये दिन मासूम व अवयस्क बच्चियों के साथ दुर्व्यवहार की घटनायें सामने आतीं रहतीं हैं, जो एक सभ्य समाज के लिये न केवल शर्मनाक वरन् एक अभिशाप है। आज बालिकाओं की सुरक्षा के लिये समाज  (विशेषकर दिग्भ्रमित युवाओं) की मानसिकता  को बदलने की भी गंभीर आवश्यकता है। 

Wednesday, October 7, 2020

क्रांतिकारी आंदोलन की दीपशिखा -दुर्गा भाभी

             आज भारतीय स्वाधीनता संघर्ष में क्रांतिकारी संगठन 'हिंदुस्तान सोस्लिस्ट रिपब्लिक आर्मी के सक्रिय क्रांतिकारी भगवती चरण बोहरा की धर्मपत्नी 'दुर्गा भाभी ' के नाम से विख्यात क्रांतिकारी दुर्गावती की जयंती है।     

              उनका जन्म सात अक्टूबर 1907 को उ. प्र. के शहजादपुर गांव में पंडित बांके बिहारी के घर हुआ था. पिता ने संन्यास ले लिया था जिस कारण दस साल की उम्र में ही उनका विवाह श्रीभगवती चरण वोहरा से हो गया जो क्रांतिकारी संगठन 'हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक आर्मीी' के साथ मिलकर दुर्गा भाभी ने भी आज़ादी की लड़ाई के लिए काम करना शुरू कर दिया. वोहरा जी की पत्नी होने की वजह से क्रांतिकारी साथी उन्हें दुर्गा भाभी कहते थे जो उनकी पहचान बन गया.दुर्गा भाभी को पिस्तौल चलाने में महारथ हासिल थी. वे बम बनाना भी जानती थीं.जब उनके बेटे सचिन्द्र का जन्म हुआ, तब उन्होंने क्रांतिकारी गतिविधियों से दूरी बना ली. 

                लाहौर में ब्रिटिश पुलिस अफसर जॉन सौन्डर्स की हत्या के आरोप में भगत सिंह और राजगुरु को अंग्रेज सरकार ढूंढ रही थी. लाहौर के चप्पे-चप्पे पर जांच जारी थी. ट्रेन के स्टेशनों पर पुलिस तैनात थी. जो भी नौजवान लाहौर छोड़कर निकल रहे थे, उन पर CID की कड़ी नज़र थी. 

                 राजगुरु ने लाहौर से बाहर निकलने की योजना बना कर दुर्गा भाभी से सहायता माँगी. दुर्गा भाभी अपने बेटे के जन्म के बाद से क्रांतिकारी गतिविधियों से थोड़ी दूर थीं. लेकिन जब उन्हें पता चला कि भगत सिंह और राजगुरु को उनकी ज़रूरत है, वे तुरंत तैयार हो गईं.

जाने से एक रात पहले राजगुरु एक नौजवान को लेकर दुर्गा भाभी से मिलने पहुंचे. दुर्गा भाभी इस नौजवान को पहचान नहीं पायीं. राजगुरु ने उन्हें बताया, ये सरदार भगत सिंह हैं. अंग्रेजों से अपनी पहचान छुपाने के लिए भगत सिंह ने अपनी दाढ़ी हटा दी थी. सिर पर पगड़ी के स्थान पर हैट पहन रखा था. दुर्गा भाभी देखतीं रह गईं.

                 अगले दिन सुबह उन्होंने लाहौर से कलकत्ता जाने वाली ट्रेन के तीन टिकट लिए. भगत सिंह और उनकी ‘पत्नी’ बनीं दुर्गा भाभी अपने बच्चे के साथ पहले दर्जे में बैठने वाले थे. उनके ‘नौकर’ बने राजगुरु के लिए तीसरे दर्जे का टिकट कटाया गया. स्टेशन पर पहुंचते हुए सबके दिल में धुकधुकी लगी हुई थी. कि कहीं कोई पहचान न ले. लेकिन अंग्रेज तो एक पगड़ीधारी सिख को ढूंढ रहे थे. अंग्रेजी सूट-बूट और हैट में सज़ा parivaar सहित नौजवान उनकी नज़रों में आया ही नहीं. किसी को कोई शक नहीं हुआ.

                  स्टेशन के अंदर जाकर उन्होंने कानपुर की ट्रेन ली, फिर लखनऊ में ट्रेन बदल ली, क्योंकि लाहौर से आने वाली सीधी ट्रेनों में भी चेकिंग जारी थी. लखनऊ में राजगुरु अलग होकर बनारस चले गए. वहीं भगत सिंह, दुर्गा भाभी, और उनका छोटा बच्चा हावड़ा के लिए निकल गए. कलकत्ता में ही भगत सिंह की वो मशहूर तस्वीर ली गई थी जिसमें उन्होंने हैट पहन रखा है.

इस तरह दुर्गा भाभी भगत सिंह को अंग्रेजों की नाक के नीचे से निकाल लाईं और बाद में वे लाहौर लौट आई थीं. 

                  जब 1929 में भगत सिंह और राजगुरु ने आत्म समर्पण किया, तब उन्होंने अपनी सारी बचत उनके ट्रायल में लगा दी थी. गहने भी बेच दिए थे. और उस समय तीन हजार रुपयों का इंतजाम किया था. 1930 में उनके पति भगवती चरण वोहरा की बम बनाते हुए विस्फोट में मौत हो गई. उसके बाद वे एक शिक्षिका के रूप में कार्य करती रहीं.

                    स्वतंत्रता के बाद उन्होंने गाज़ियाबाद में रहना शुरू किया. मारिया मोंटेसरी ( जिन्होंने मोंटेसरी स्कूलों की शुरुआत की) से ट्रेनिंग लेकर उन्होंने लखनऊ में मोंटेसरी स्कूल खोला. इस स्कूल को देखने तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू भी आए थे. 15 अक्टूबर 1999 को क्रांतिकारी आंदोलन की दीपशिखा ' दुर्गा भाभी ' का निधन हो गया. इस महान हुतात्मा को विनम्र श्रद्धांजलि. 

                             🙏🙏🙏

Monday, October 5, 2020

अंतर्राष्ट्रीय (विश्व) शिक्षक दिवस


             विश्व में 5 अक्टूबर ' विश्व शिक्षक दिवस  (World Teachers Day) मनाया जाता है। इसे अंतरराष्ट्रीय शिक्षक दिवस (International Teachers Day) के रूप में भी जाना जाता है ।
             यह दिवस दुनिया में शिक्षकों की स्थिति में सुधार लाने के उद्देश्य से मनाया जाता है। 5  अक्टूबर 1966 को पेरिस में  संयुक्त राष्ट्र संघ की संस्थाओं 'यूनेस्को 'और 'अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन' का एक सम्मेलन का आयोजित हुआ था जिसमें 'टीचिंग इन फ्रीडम' संधि पर हस्ताक्षर किये गये थे। इस सम्मेलन में अध्यापकों की स्थिति पर व्यापक चर्चा हुई थी। अब प्रति वर्ष यूनिसेफ, यूएनडीपी, अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन और शिक्षा अंतरराष्ट्रीय द्वारा एक साथ मिलकर  प्रति वर्ष 'विश्व शिक्षक दिवस' का आयोजन किया जाता है। 
             यूनेस्को और अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन द्वारा साल 1966 में शिक्षकों के अधिकारों, जिम्मेदारियों, रोजगार और आगे की शिक्षा के साथ सभी गाइडलाइन बनाने की बात कही गई थी।
             'विश्व शिक्षक दिवस ' की शुरुआत साल 1994 में हुई थी। संयुक्त राष्ट्र संघ ने 'विश्व शिक्षक दिवस' को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मनाने हेतु वर्ष 1994 में यूनेस्को की सिफारिश पर लगभग 100 देशों के समर्थन देने के बाद इससे संबंधित प्रस्ताव पारित किया।  इसके बाद 5 अक्टूबर को ' विश्व शिक्षक दिवस'  मनाये जाने की शुरुआत हो गई। 
             इस दिवस को 1994 के बाद से प्रतिवर्ष अधिकांश देशों द्वारा मनाया जा रहा है। इस वर्ष 2020 में यह 26वाँ विश्व शिक्षक दिवस है। 
             विभिन्न देशों में अलग-  अलग तिथियों में 'शिक्षक दिवस 'मनाया जाता है। समाज में शिक्षकों के प्रति सहयोग को बढ़ावा दिया जाए और शिक्षक की जिम्मेदारियों का अहसास कराने के लिए ' विश्व शिक्षक दिवस' की शुरुआत की गई  ।
             चीन ने  1931 में शिक्षक दिवस की शुरुआत की थी पर 1932 में चीन की सरकार ने यह निश्चित किया कि 27 अगस्त को शिक्षक दिवस(Teacher Day) मनाया जाये, पर बाद में इस घोषणा को  वापस ले लिया गया।चीन में वर्ष 1985 में यह घोषणा की गई कि 10 सितम्बर को शिक्षक दिवस मनाया जाएगा । चीन में आज भी शिक्षक दिवस को लेकर मतभेद है ।चीन में बहुत से लोग यह चाहते हैं कि कंफ्यूशियस का जन्मदिन ही शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाये। 
              रूस में पहले शिक्षक दिवस(Teacher Day) अक्टूबर महीने के पहले सप्ताह को मनाया जाता था पर 1994 में तय हुआ कि रूस में शिक्षक दिवस 5 अक्टूबर को मनाया जाएगा ।
              अमेरिका में भी शिक्षक दिवस  को लेकर काफी मतभेद रहे ।अब मई के पहले सप्ताह में शिक्षक दिवस मनाना निश्चित हुआ। अमेरिका में शिक्षक दिवस पूरे सप्ताह मनाया जाता है.
               ईरान में   अयातुल्लाह मोर्तेजा की हत्या के बाद ईरान में 2 मई को शिक्षक दिवस मनाया जाता हैl अयातुल्लाह मोर्तेजा ईरान के मशहूर प्रोफेसरों में से एक थे जिनकी याद में 2 मई को वहाँ शिक्षक दिवस मनाया जाता है। 
                भारत में जहाँ ' शिक्षक दिवस' 5 सितंबर को मनाया जाता है, वहीं 5 अक्तूबर को 'विश्व शिक्षक दिवस' भी मनाया जाता है। भारत में दूसरे राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्म दिवस को 'शिक्षक दिवस' के रूप में मनाने की शुरुआत हुई थी। 
                यूनेस्को और अंतरराष्ट्रीय शिक्षा (ईआई) विश्व शिक्षक दिवस मनाने हेतु प्रति वर्ष एक अभियान चलाता है जिससे की लोगों को शिक्षकों की बेहतर समझ तथा छात्रों और समाज के विकास में उनकी भूमिका निभाने में सहायता मिल सके। 
                'विश्व शिक्षक दिवस 2019' की थीम "युवा शिक्षक: पेशे का भविष्य (“Young Teachers: The Future of the Profession)” रखी गई  थी।
इस दिवस को 2019 में 'एजुकेशन इंटरनेशनल ' नामक संस्था "गुणवत्ता परक शिक्षा के लिये एकजुट हों" के नारे के साथ मनाया।
               ' विश्व शिक्षक दिवस 2020' की थीम 'लीडिंग इन क्राइसिस, रीइमेनेजिंग द फ्यूचर' ( Leading in Crisis, Remanaging the Future) रखी गयी है।  संयुक्त राष्ट्र (UN) ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शिक्षा के क्षेत्र में उपलब्धियों को जानने तथा उससे जुड़ी समस्याओं को पहचानने हेतु साल 2030 का लक्ष्य रखा है।