Wednesday, October 21, 2020

स्वतंत्र भारत की अस्थायी सरकार ( आज़ाद हिन्द सरकार) का स्थापना दिवस

         आज 21 अक्टूबर है। आज के दिन  1943 में नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने आजाद हिन्द फौज के सर्वोच्च सेनापति के रूप में सिंगापुर में स्वतंत्र भारत की अस्थायी सरकार 'आज़ाद हिन्द सरकार 'की स्थापना की थी। नेताजी सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्व में भारतीय स्वाधीनता के लिये  'आज़ाद हिंद फौज'  के संघर्ष की गाथा भारतीय स्वाधीनता  के इतिहास का स्वर्णिम अध्याय है। 
              'आज़ाद हिन्द फ़ौज ' के नाम से सेना का गठन पहली बार राजा महेन्द्र प्रताप सिंह द्वारा 29 अक्टूबर 1915 को अफगानिस्तान में हुआ था। यह उनकी  ऐसी सेना थी, जिसका लक्ष्य अंग्रेजों से लड़कर भारत को स्वतंत्रता दिलाना था। पर उनका यह प्रयास सफल नहीं हो पाया। 
              द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान सन 1943 में जापान की सहायता से टोकियो में रासबिहारी बोस ने भारत को अंग्रेजों से स्वतन्त्र कराने के लिये इन्डियन नेशनल आर्मी (INA) नामक सशस्त्र सेना का संगठन किया जिसे 'आज़ाद हिंद फौज ' कहा गया। इस सेना के गठन में कैप्टन मोहन सिंह, रासबिहारी बोस एवं निरंजन सिंह गिल का   महत्वपूर्ण योगदान था। 
             आरम्भ में इस फौज़ में जापान द्वारा युद्धबन्दी बना लिये गये भारतीय सैनिकों को लिया गया था। बाद में इसमें बर्मा और मलाया में स्थित भारतीय स्वयंसेवक भी भर्ती हो गये। आरंभ में इस सेना में लगभग 16,300 सैनिक थे। कालान्तर में जापान ने 60,000 युद्ध बंदियों को आज़ाद हिन्द फ़ौज में शामिल होने के लिए छोड़ दिया । 
             पर इसके बाद ही जापानी सरकार और मोहन सिंह के अधीन भारतीय सैनिकों के बीच आज़ाद हिन्द फ़ौज की भूमिका के संबध में विवाद उत्पन्न हो जाने के कारण मोहन सिंह एवं निरंजन सिंह गिल को गिरफ्तार कर लिया गया। 
             'आज़ाद हिन्द फ़ौज' का दूसरा चरण तब प्रारम्भ होता है, जब सुभाषचन्द्र बोस सिंगापुर गये। सुभाषचन्द्र बोस ने 1941 ई. में बर्लिन में इंडियन लीग की स्थापना की, किन्तु जर्मनी ने उन्हें रूस के विरुद्ध प्रयुक्त करने का प्रयास किया, तब उनके सामने कठिनाई उत्पन्न हो गई और उन्होंने दक्षिण पूर्व एशिया जाने का निश्चय किया।
              सुभाष चन्द्र बोस पनडुब्बी द्वारा जर्मनी से जापानी नियंत्रण वाले सिंगापुर पहुँचे और पहुँचते ही जून 1943 में टोकियो रेडियो से घोषणा की कि अंग्रेजों से यह आशा करना बिल्कुल व्यर्थ है कि वे स्वयं अपना साम्राज्य छोड़ देंगे। हमें भारत के भीतर व बाहर से स्वतंत्रता के लिये स्वयं संघर्ष करना होगा।  सुभाष  बोस से प्रभावित होकर रासबिहारी बोस ने 4 जुलाई 1943 को 46 वर्षीय सुभाष को 'आजाद हिन्द फौज' का नेतृत्व सौंप दिया।
               नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने 5 जुलाई 1943 को सिंगापुर के ' टाउन हाल' के सामने 'आज़ाद हिंद फौज ' के सुप्रीम कमाण्डर के रूप में  सेना को सम्बोधित करते हुए ' दिल्ली चलो!'का नारा दिया । 
               जापानी सेना के सहयोग से  'आज़ाद हिन्द फ़ौज ' बर्मा के रंगून (यांगून) से होती हुई थलमार्ग से भारत की ओर बढ़ी और 18 मार्च 1944 ई. को कोहिमा और इम्फ़ाल के भारतीय मैदानी क्षेत्रों में पहुँच गई । वहाँ इसका ब्रिटिश व कामनवेल्थ सेना से जमकर संघर्ष हुआ।       
              सुभाष चंद्र बोस ने अपने अनुयायियों को 'जय हिन्द ' का  नारा दिया और 21 अक्टूबर 1943 को उन्होंने 'आजाद हिन्द फौज'  के सर्वोच्च सेनापति के रूप सिंगापुर में स्वतंत्र भारत की अस्थायी सरकार 'आज़ाद हिन्द सरकार ' की स्थापना की। 
              नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने इस सरकार के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री तथा सेनाध्यक्ष तीनों  पद स्वयं ग्रहण किये । इसके साथ ही अन्य जिम्मेदारियां जैसे वित्त विभाग एस.सी चटर्जी को, प्रचार विभाग एस.ए. अय्यर को तथा महिला संगठन लक्ष्मी स्वामीनाथन को सौंपा गया। 
              इस सरकार को जर्मनी, जापान, फिलीपीन्स, कोरिया, चीन, इटली, मान्चुको और आयरलैंड ने मान्यता दे दी। जापान ने अंडमान व निकोबार द्वीप इस अस्थायी सरकार को दे दिये। नेताजी उन द्वीपों में गये और उनका नया नामकरण किया। अंडमान का नया नाम 'शहीद' द्वीप तथा निकोबार का 'स्वराज्य' द्वीप रखा गया। 30 दिसम्बर 1943 को इन द्वीपों पर स्वतन्त्र भारत का ध्वज भी फहरा दिया गया। 
             इसके बाद नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने सिंगापुर एवं रंगून में आज़ाद हिन्द फ़ौज का मुख्यालय बनाया। 4 फ़रवरी 1944 को आजाद हिन्द फौज ने अंग्रेजों पर दोबारा भयंकर आक्रमण किया और कोहिमा, पलेल आदि कुछ भारतीय प्रदेशों को अंग्रेजों से मुक्त करा लिया। 6 जुलाई 1944 को उन्होंने रंगून रेडियो स्टेशन से महात्मा गांधी के नाम जारी एक प्रसारण में अपनी स्थिति  स्पष्ट की और आज़ाद हिन्द फौज़ द्वारा लड़ी जा रही इस निर्णायक लड़ाई की जीत के लिये उनकी शुभकामनाएँ माँगीं। उन्होंने कहा ," मैं जानता हूँ कि ब्रिटिश सरकार भारत की स्वाधीनता की माँग कभी स्वीकार नहीं करेगी। मैं इस बात का कायल हो चुका हूँ कि यदि हमें आज़ादी चाहिये तो हमें खून के दरिया से गुजरने को तैयार रहना चाहिये। अगर मुझे उम्मीद होती कि आज़ादी पाने का एक और सुनहरा मौका अपनी जिन्दगी में हमें मिलेगा तो मैं शायद घर छोड़ता ही नहीं। मैंने जो कुछ किया है अपने देश के लिये किया है। विश्व में भारत की प्रतिष्ठा बढ़ाने और भारत की स्वाधीनता के लक्ष्य के निकट पहुँचने के लिये किया है। भारत की स्वाधीनता की आखिरी लड़ाई शुरू हो चुकी है। आज़ाद हिन्द फौज़ के सैनिक भारत की भूमि पर सफलतापूर्वक लड़ रहे हैं। हे राष्ट्रपिता! भारत की स्वाधीनता के इस पावन युद्ध में हम आपका आशीर्वाद और शुभ कामनायें चाहते हैं।"
             नेताजी सुभाषचन्द्र बोस द्वारा ही गांधी जी के लिए प्रथम बार राष्ट्रपिता शब्द का प्रयोग किया गया था।इसके अतिरिक्त सुभाष चन्द्र बोस ने फ़ौज के कई बिग्रेड राष्टीय आंदोलन के नेताओं के नाम पर रखे जैसे- महात्मा गाँधी ब्रिगेड, अबुल कलाम आज़ाद ब्रिगेड, जवाहरलाल नेहरू ब्रिगेड तथा सुभाषचन्द्र बोस ब्रिगेड। सुभाषचन्द्र बोस ब्रिगेड के सेनापति शाहनवाज ख़ाँ थे।
             21 मार्च 1944 को दिल्ली चलो के नारे के साथ आज़ाद हिंद फौज का हिन्दुस्तान की धरती पर आगमन हुआ। 22 सितम्बर 1944 को 'शहीदी दिवस' मनाते हुये सुभाषचन्द्र बोस ने अपने सैनिकों से मार्मिक अपील की -
                 " हमारी मातृभूमि स्वतन्त्रता की खोज में है। तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूँगा। यह स्वतन्त्रता की देवी की माँग है।"
           फ़रवरी 1944 से लेकर जून 1944 ई. के मध्य तक आज़ाद हिन्द फ़ौज की तीन ब्रिगेडों ने जापानियों के साथ मिलकर भारत की पूर्वी सीमा एवं बर्मा से युद्ध लड़ा किन्तु दुर्भाग्यवश द्वितीय विश्व युद्ध का पासा पलट गया। जर्मनी ने हार मान ली और जापान को भी घुटने टेकने पड़े। ऐसे में नेताजी को टोकियो की ओर पलायन करना पड़ा और कहते हैं कि हवाई दुर्घटना में उनका निधन हो गया किन्तु इस बात की पुष्टि अभी तक नहीं हो सकी है।      
           'आज़ाद हिन्द फ़ौज 'के अनेक सैनिकों एवं अधिकारियों को अंग्रेज़ों ने 1945 ई. में गिरफ़्तार कर लिया और उनका सैनिक अभियान असफल हो गया, किन्तु इस असफलता में भी उनकी जीत छिपी थी। 
          'आज़ाद हिन्द फ़ौज ' के गिरफ़्तार सैनिकों एवं अधिकारियों पर अंग्रेज़ सरकार ने दिल्ली के लाल किले में नवम्बर, 1945 में मुकदमा चलाया और फौज के मुख्य सेनानी कर्नल सहगल, कर्नल ढिल्लों एवं मेजर शाह नवाज ख़ाँ पर राजद्रोह का आरोप लगाया गया। इनके पक्ष में सर तेजबहादुर सप्रू, जवाहरलाल नेहरू, भूला भाई देसाई और के.एन. काटजू ने पैरवी की पर फिर भी इन तीनों की फाँसी की सज़ा सुनाई गयी। 
           इस निर्णय के विरुद्ध पूरे देश में कड़ी प्रतिक्रिया हुई, जनमानस भड़क उठा और  मशालों को हाथों में थाम कर उन्होंने इसका विरोध किया । इस समय नारे लगाये गये- 'लाल क़िले को तोड़ दो, आज़ाद हिन्द फ़ौज को छोड़ दो।'  विवश होकर तत्कालीन वायसराय लॉर्ड वेवेल ने अपने विशेषाधिकार का प्रयोग कर इन सबकी मृत्युदण्ड की सज़ा को माफ कर दिया।
           सुभाष चंद्र बोस एक सच्चे राष्ट्रवादी थे। यद्यपि उनके मन में फासीवाद के अधिनायकों के सबल तरीकों के प्रति भावनात्मक झुकाव था पर उनका मूल उद्देश्य  भारत को शीघ्रातिशीघ्र स्वतन्त्रता दिलाना था इसके लिये उन्होंने हिंसात्मक संघर्ष का रास्ता अपना कर 'आजाद हिन्द फौज' के माध्यम से संघर्ष किया।
          आज का दिन  एक गौरवपूर्ण ऐतिहासिक दिवस है जब स्वतंत्र भारत की अस्थाई सरकार की घोषणा नेताजी सुभाष चंद्र बोस के द्वारा की गयी। 



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