Tuesday, June 30, 2009

मत बांटिये देश को

लिब्राहम आयोग की रिपोर्ट आने के बाद से देश में सियासी माहौल गर्म होने लगा है । पार्टियाँ हिन्दू - मुस्लिम राग अलापने लगीं हैं । बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद का माहौल बनाने की कोशिशें की जाने लगी हैं । हम इस बात को भूल जाते है कि साम्प्रदायिकता देश को कितना नुकसान पहुँचा चुकी है ?वोट बैंक की राजनीति को त्याग कर हमारे राजनेता कब देशहित की बात सोचेंगे ?बात तुष्टीकरण या उसके विरोध की नहीं है,बात सही और ग़लत की एवं कानून को हाथ में लेने की प्रवृत्ति की है । इस पर अंकुश लगाये बिना नेताओं की आदतें सही नही होंगी । जनता को मजहबी राजनीति करने वाले नेताओं के बहकावे में नहीं आना चाहिए। ऐसे हथकंडे अपनाने वालों से मुझे कहना है - "कब तक यह मजहबीं समां बंधियेगा , यह उन्माद वाली हवा बांटिएगा ; ये हिन्दू ,मुस्लिम की बेसुरी रट में , वतन रहेगा तो क्या बांटिएगा ? "

Sunday, June 21, 2009

Father is not among us;Long live the father

Whole world is celebrating 'Father's day' today.My father is not amoung us but I always feel his presence .A son is a creation of his father's efforts and ambitions.Father gives a shape to his personality and future , makes him a good human being and a sensible citizen, provides a broad outlook to see the things in a rational and practical manner. Every father wants to provide all the things to his children within his reach and capacity .My father has been an ideal for me. So always remember your father any pay respect him.' Long live the father'

Saturday, June 20, 2009

बहारों के दिन है या पतझर का मौसम ?

हमारा देश विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है । इस पर हम गर्व कर सकते है ।पर साथ वर्षों की जनतांत्रिक व्यवस्था के बाद भी आज हम आम जन की स्थिति सुधारने में कितने सफल हो सके हैं ,यह एक विचारणीय विषय है । आकडों में प्रगति के नए सोपान गिनाये जाते है पर जमीनी वास्तविकता कुछ और ही कहानी कहती है ।देश प्रगति कर रहा है ,विदेश में हमारी साख बढ़ी है ,महिलाओं के लिए काम हो रहा है ,गरीबों के लिए नयी नयी योजनाये लायी जा रहीं हैं । किंतु इनका लाभ आम आदमी तक कितना पंहुचा है ?

चुनावो में जनता की सहभागिता पचास प्रतिशत भी नहीं रहती है ,कन्या भ्रूण हत्या व महिलाओं पर अत्याचार बढ रहे है ,कानून व्यवस्था को आतंकवाद एवं नक्सलवाद की चुनोती निरंतर बढ रही है , गरीबों की हितैषी होने का दावा करने वाली सरकारें उनकी बढती भुखमरी नहीं देख पा रहीं है। आंकडो और वास्तविकता में जितना अन्तर हमारे देश में पाया जा रहा है उतना किसी भी विकसित लोकतंत्र में विश्व में नहीं दिखता ।

इस सम्बन्ध में मुझे बुंदेलखंड के प्रसिद्ध गीतकार ‘ मंजुल मयंक ’ की निम्नांकित पंक्तियाँ प्रासंगिक लगती हैं -

बहारों के दिन है कि पतझड़ का मौसम , यही प्रश्न फुलवारियों से तो पूछो ;

है शबनम में भीगी कि आंसू में डूबी , जरा बाग की क्यारियों से तो पूछो ;

अभी भी हजारों अधर ऐसे जिन पर , न मुस्कान के पान अब तक रचे है ;

हसीं चीज क्या है , खुशी चीज क्या है , यही प्रश्न लाचारियों से तो पूछो ।”

ईश्वर के मायने

ईश्वर क्या है ? यह एक मिथ है या वास्तविकता ,इस पर प्रायः विद्वानों में बहस चलती रहती है । विद्वानों का एक वर्ग ईश्वर के अस्तित्व को नकार कर प्रगतिशील होने का दंभ भरता है । मेरा मत है कि ईश्वर की अवधारणा सामाजिक विकास का ही एक चरण है । यह लोगों को समस्याओं के बीच संबल प्रदान करता है ,उनका आत्मबल बढाता है। जब मानव का आत्मबल ऊँचा होता है तो वह किसी भी विपरीत परिस्थिति का सामना करने में सफल होता है।
मेरा विचार है कि यदि ईश्वर का विचार अस्तित्व में न होता तो अधिकांश मानव विक्षिप्त हो जाते। अतः हमें इसके लिए समाज निर्माताओं का ऋणी होना चाहिए। जरूरत इस बात की है कि ईश्वर के नाम पर धार्मिक ठेकेदारों के शोषण से भोलीभाली जनता को बचाया जाए । ईश्वर के सम्बन्ध में एक विवेकपूर्ण एवं व्यवहारिक दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है।