Tuesday, June 30, 2009
मत बांटिये देश को
Sunday, June 21, 2009
Father is not among us;Long live the father
Saturday, June 20, 2009
बहारों के दिन है या पतझर का मौसम ?
चुनावो में जनता की सहभागिता पचास प्रतिशत भी नहीं रहती है ,कन्या भ्रूण हत्या व महिलाओं पर अत्याचार बढ रहे है ,कानून व्यवस्था को आतंकवाद एवं नक्सलवाद की चुनोती निरंतर बढ रही है , गरीबों की हितैषी होने का दावा करने वाली सरकारें उनकी बढती भुखमरी नहीं देख पा रहीं है। आंकडो और वास्तविकता में जितना अन्तर हमारे देश में पाया जा रहा है उतना किसी भी विकसित लोकतंत्र में विश्व में नहीं दिखता ।
इस सम्बन्ध में मुझे बुंदेलखंड के प्रसिद्ध गीतकार ‘ मंजुल मयंक ’ की निम्नांकित पंक्तियाँ प्रासंगिक लगती हैं -
“बहारों के दिन है कि पतझड़ का मौसम , यही प्रश्न फुलवारियों से तो पूछो ;
है शबनम में भीगी कि आंसू में डूबी , जरा बाग की क्यारियों से तो पूछो ;
अभी भी हजारों अधर ऐसे जिन पर , न मुस्कान के पान अब तक रचे है ;
हसीं चीज क्या है , खुशी चीज क्या है , यही प्रश्न लाचारियों से तो पूछो ।”
ईश्वर के मायने
मेरा विचार है कि यदि ईश्वर का विचार अस्तित्व में न होता तो अधिकांश मानव विक्षिप्त हो जाते। अतः हमें इसके लिए समाज निर्माताओं का ऋणी होना चाहिए। जरूरत इस बात की है कि ईश्वर के नाम पर धार्मिक ठेकेदारों के शोषण से भोलीभाली जनता को बचाया जाए । ईश्वर के सम्बन्ध में एक विवेकपूर्ण एवं व्यवहारिक दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है।