Sunday, November 21, 2010

छेड़छाड़ का मैराथन

आज दिल्ली में हुई मैराथन दौड़ में कई हस्तियों ने भाग लिया। फिल्म जगत से अभिनेत्री विपासा बसु एवं गुल पनाग ने भी हिस्सा लिया आयोजन सफल रहा पर इस की गरिमा को ठेस तब पहुंची जब मीडिया चैनलों ने अभिनेत्री गुल पनाग की आपबीती टेलीकास्ट की । गुलपनाग का कहना था की दौड़ के दौरान कई लागों ने उनसे छेड़छाड़ कीउनके शब्दों में ,"जिसको भी मौका मिला उसने हाथ मार दिया" उन्होंने इसे दिल्लीवासियों की कुंठित मानसिकता बताते हुए कहा कि उन्होंने सात साल पहले दिल्ली छोड़ी थी और उन्हें उम्मीद थी कि यहाँ के लोग ,जो कामनवेल्थ गेम जैसा आयोजन गरिमापूर्ण तरीके से कराचुके हैं , अब कुछ बदले होगे ,पर उनकी मानसिकता जस की तस है । लगता है सात साल पहले भी उन्हें कुछ इसी प्रकार की स्थिति झेलनी पड़ी होगी । उन्होंने मुंबई के माहौल को अधिक श्रेष्ठ बताया ।
गुल पनाग का यह बयान दिल्लीवासियों के मुँह पर तो करारा तमाचा है ही ,केंद्र एवं राज्य सरकार के लिये भी शर्मिन्दिगी की स्थिति उत्पन्न करता है । दिल्ली में आपराधिक तत्व बेलगाम हो रहे है ,पर मैराथन में तो देश के सभ्य एवं ख्यातिप्राप्त लोग भाग ले रहे थे । यदि किसी ट्रेन या बस में यह घटना होती इसे सामान्य वाकया कह कर टाला जा सकता था पर इस आयोजन में तो पर्याप्त सुरक्षा इंतजाम भी रहे होगे फिर भी ऐसी ओछी हरकतें हो गयी, यह हमारे सम्पूर्ण समाज की दूषित मानसिकता का परिचायक है , यह इस आयोजन में सहभागिता कर रहे लोगों के लिये भी शर्मनाक है । इसकी कड़े स्वर में निंदा की जानी चाहिए । पर इस घटना पर सरकार व आयोजकों का मौन रहना व अब तक कोई भी टिप्पणी न करना और भी अधिक शर्मनाक है

Monday, November 8, 2010

ओबामा की ऐतिहासिक भारत यात्रा


अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा की भारत यात्रा ऐतिहासिक रही। मुंबई आते ही उन्होंने भारत की गौरव गाथा का गुणगान किया ।आतंकवाद (२६/11) का सामना करने में मुंबई की जनता की भूमिका सराहना की । गाँधी जी को अपना प्रेरणाश्रोत बताते हुए उनसे सम्बंधित संग्रहालयों का दौरा किया । भारतीय उद्योगपतियों को संबोधित करते हुए भारत की प्रगति का बखान किया .उसकी अर्थव्यवस्था की प्रशंसा की । झोली फैला कर अपने देश में पूंजीनिवेश का अनुरोध किया जिससे अमेरिकनों को नौकरियाँ उपलब्ध हो सकें । बड़े ही सहज भाव से बच्चों के साथ घुले मिले। पत्नी मिशेल के साथ बच्चों के बीच डांस किया । छात्रों के साथ संवाद कर उनके प्रश्नों के उत्तर दिये।
दिल्ली आकर उनका मिशन तारीफे इण्डिया थमा नहीं । भारत को इक्कीसवीं सदी की एक महाशक्ति बताया । भारत व अमेरिका के साझे मूल्यों व हितों का बखान कर उनके साथ -साथ कार्य करने को सामयिक जरूरत बताया। राष्ट्रपति ,प्रधानमंत्री, नेता विपक्ष एवं सोनिया जी से भेट की। पाकिस्तान को अमेरिका के सामरिक हितों के लिये अपरिहार्य बताते हुए आतंकवाद को ख़त्म करने के प्रति अपनी प्रतिबद्धता बतायी ।संयुक्त प्रेस कांफ्रेंस में उन्होंने कश्मीर समस्या को भारत व पाकिस्तान के बीच का मसला बताते हुए आपसी संवाद से हल करने पर जोर देते हुए कहा कि विकसित पाकिस्तान भारत के हित में है । प्रधनमंत्री ने दो टूक शब्दों में कहा कि भारत किसी भी मसले पर चर्चा से डरता नहीं ,पर वार्ता व आतंकवाद को प्रश्रय साथ साथ नहीं चल सकते। उन्होंने कहा भारत किसी देश कि नौकरियों को चुराने में यकीन नहीं करता ।उन्होंने कहा आउट्सोर्सिंग से अमेरिका की उत्पादकता बढ़ाने में भारतीयों ने योगदान दिया है।
संसद के दोनों सदनों के संयुक्त अधिवेशन को संबोधित करते हुए ओबामा ने अपने करिश्माई व्यक्तित्व ,कुशल वक्ता , सहजता व अमेरिकी हितों को साधने के अपने मिशन में भारत के सहयोग की पृष्ठभूमि बनाने में अपनी राजनयिक कुशलता का परिचय देते हुए न केवल सांसदों बल्कि देश की जनता का मन मोह लिया । उन्होंने गाँधी जी को याद किया ;भारत की स० राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता का समर्थन किया ;आतंकवाद के प्रति संघर्ष में सहयोग का वचन दिया ; सीमापार आतंकवाद की भर्त्सना की ,मुंबई हमलों के आरोपियों को दण्डित करने का समर्थन किया और दोनों देशों के बीच बहुपक्षीय सहयोग की नयी संभावनाओं के द्वार खोले। अपने भाषण के प्रारंभ में हिंदी में स्वागत के लिये 'बहुत धन्यवाद' और अंत में 'जय हिंद 'कह कर सबका दिल खुश कर दिया ।
कुल मिला कर ओबामा की यात्रा सफल मानी जा रही है । मीडिया व विपक्षियों को कुछ भी आलोचना का मसाला नहीं मिला मनमोहन सिंह के नेतृत्त्व , उनकी साफगोई एवं राजनयिक कुशलता की सराहना ने भी की । अमेरिका को जहाँ अपने आर्थिक हितों को पूरा करने में सफलता मिली तो भारत के भी राजनीतिक व अन्य बहुपक्षीय हितों की पूर्ति होती दिखायी दे रही है । अमेरिका जैसे महाबली देश के राष्ट्रपति को भारत के समक्ष अपनी अर्थव्यस्था में सहयोग की याचक की भांति अपील करते देख यहाँ की जनता को निश्चित ही गर्व एवं प्रसन्नता का अनुभव हुआ होगा ।
पर ये वादे व्यावहारिक रूप में कितने सार्थक होगें ,इसका उत्तर आने वाला समय ही डे सकेगा । पर इस यात्रा से भारत और अमेरिकी दोनों सरकारों को अपने अपने देश में चुनोंतियों का सामना करने में राहत मिलेगी ।

Sunday, October 17, 2010

शुभकामना

" आज राम ने जीती लंका , और बजाया विजय का डंका ;
हुई पराजित आज बुराई , फिर से जीत गयी अच्छाई ;
काश ! देश में ऐसा होवे , अच्छाई का मान न खोवे ;
हारें सारे गलत इरादे , पूरे हों जन-जन से वादे ;
शासकगण हों उत्तरदायी , बने माहौल जन - सुखदायी ;
हो साकार ऐसा सपना ,.यही दशहरा पर शुभकामना ."

Saturday, October 2, 2010

गाँधी जी का डंडा

कालेज में गाँधी जयंती का कार्यक्रम चल रहा था ।एक पुराने बुजुर्ग सदस्य एक बड़ा सा डंडा लेकर उसके सहारे चलते हुए आये । वाह डंडा क्या था ,उनके कद से एक फिट ऊंची एक नक्काशीदार लाठी थी । लोगों ने मजाक किया की गाँधी जी का डंडा लाये हैं आप । यह तो बहुत बड़ा है ।उन्होंने कहा कि अगर आज गाँधी जी जिन्दा होते तो इतना बड़ा डंडा लेकर ही उन्हें चलना पड़ता तभी लोग उनकी बात सुनते । बात छोटी सी थी थी पर सोचने पर विवश कर गयी । आज डंडे कि भाषा ही जल्दी समझ में आती है आदमी को । कथनी -करनी में अंतर न हो ,यह बात गाँधी ने कही थी पर कौन उसे अपनाना चाहता है ? गाँधी को तो अप्रासंगिक मानते हैं हम लोग

जेब में हैं गाँधी जी .

गाँधी जयंती पर आज हमारे शहर में एक कार्यक्रम गांधीजी के दुर्लभ चित्रों की प्रदर्शनी के रूप में हुआ । प्रदर्शनी नगर के एक संग्रहालय ने लगाई थी जो कि आयोजकों के समर्पण और कड़ी मेहनत का परिणाम थी । इसका उदघाटन प्रदेश सरकार के एक मंत्री ने किया। मंत्री जी कभी आर० एस ० एस ० के कार्यकर्ता रहे थे , अब बसपा के ब्राहमण कार्ड के बदौलत बसपा सरकार में मंत्री हैं । आर ० एस ० एस ० और बसपा दोनों के गाँधी जी के कितने प्रखर आलोचक रहे हैं ,यह सभी को पता है । कार्यक्रम के इस विरोधाभासी पक्ष पर कितने लोगों का ध्यान गया यह पता नहीं पर जब मुख्य अतिथि प्रदर्शनी का अवलोकन कर रहे थे उस समय आयोजन करने वाली संस्था के एक कार्यकर्त्ता ने मंत्री को समझाया कि गाँधी जी हमारे देश में इतने लोकप्रिय हैं कि हमारी जेब में रहते हैं। शायद उनका आशय नोटों पर छपे गाँधी जीके चित्र से था। यह सुन कर प्रदर्शनी देख रहे एक दर्शक ने टिप्पणी कि हमारा दुर्भाग्य है कि हमने गांधीजी को जेब में बंद कर रखा है ,आवश्यकता उन्हें जेब से निकल कर उनके कृतित्व से कुछ सीखने की है ।

Tuesday, September 14, 2010

हिंदी दिवस -रस्म अदायगी


हिंदी दिवस प्रति वर्ष १४ सितम्बर को मनाया जाता है। सरकारी एवं गैर सरकारी स्तर पर प्रतिवर्ष अनेक कार्यक्रम होते हैं । लगता है जैसे यह दिवस मात्र रस्म अदायगी तक ही सीमित रह गया है । हिंदी की क्लिष्टता इसे आम आदमी से दूर कर रही है । भाषा संवाद का माध्यम है । यदि यह सहज ग्राह्य न होगी तो इसका विकास और विस्तार भी द्रुत गति से नहीं हो पायेगा । इस दिवस पर होती जा रही रस्म अदायगी की प्रवृत्ति और हिंदी के प्रति बढती जा रही उदासीनता पर स्वाभाविक प्रतिक्रिया निम्नांकित पंक्तियों के रूप में व्यक्त हुई -
हम 'हिंदी दिवस' बस मनाते रहेंगे ,
व्यथा हिंदी की सबको सुनाते रहेंगे
दिवस हम मनाते यह अहसान कम है,
है यह राजभाषा ,हमें अब क्या गम है?
आज हिंदी की गाथा सुनाने का दिन है,
या हिंदी पर मातम मनाने का दिन है?
दुर्दशा हिंदी की हम बताते रहेंगे,
पर भाषा का गौरव भुलाते रहेंगे


बनी आज हिंदी है अनुवाद -भाषा
करें इससे कैसे प्रगति की हम आशा ?
रहेगी गर इसमें शाब्दिक कठिनता,
सहज रूप में कैसे अपनाए जनता ?
होगी लोकप्रिय यह जब होगी सहजता,
करें इसको विकसित कि आये सरलता
तब हिंदी लगेगी जन -जन की भाषा .
तभी दूर होगी छायी निराशा
अन्यथा,गोष्ठियाँ -सेमिनार कराते रहेगे ,
और दिवस यूँ ही हरदम मनाते रहेंगे

हिंदी का विकास -एक व्यापक दृष्टिकोण की अपनाने की जरूरत

प्रति वर्ष की तरह हिंदी दिवस मनाने की औपचारिकता आज हिंदी दिवस पर पूरी की गयी । हिंदी की याद बुद्धिजीवियों ,साहित्यकारों को आज के दिन ही आती है । हिंदी की दुर्दशा एवं स्थिति पर आँसू बहाए जाते हैं । सरकार को कोसा जाता है और दूसरे दिन हिंदी को कोई नहीं याद करता ।
भाषा का सम्बन्ध किसी राष्ट्र की अस्मिता से होता है । एक राष्ट्र के लोगों के लिये उनकी भाषा पर गर्व होता है । अपनी भाषा के विकास उन्नयन के लिये प्रयास करना शासन एवं नागरिकों का कर्तव्य है । पर हमारा देश आज तक अपनी भाषा के लिये सर्वसम्मति नहीं बना पाया । इसके लिये सरकार ,राजनीतिक दल ,वोट पालिटिक्स तो जिम्मेवार है ही , हिंदी के उदभट विद्वान् कम उत्तरदायी नहीं है जिन्होंने हिंदी को सेमिनारों एवं गोष्ठियों तक सीमित कर लिया है । संस्कृतनिष्ठ क्लिष्ट हिंदी आम आदमी से दूर होती जा रही है ।
किसी भी भाषा का विकास उसमे लोगों की सक्रिय सहभागिता से होता है । भाषा संवाद एवं सम्प्रेषण का एक माध्यम है । यदि इसमें सहजता व सरलता का अभाव रहता है तो आम आदमी इससे दूर हो जायेगा। भारत जैसे विकासशील देश में जहाँ आज भी साक्षरता का प्रतिशत बहुत कम है ,भाषा को ग्राह्य बनाने के लिये जमीनी सच्चाई को समझना होगा। हिंदी को लोगो की भाषा बनाने के लिये इसे क्लिष्टता के चंगुल से तो दूर करना ही होगा अपितु अन्य भाषा विशेषकर अंग्रेजी के लोकग्राह्य शब्दों को अपनाना होगा ,बिना यह चिंता किये कि इससे भाषा का शास्त्रीय स्वरूप प्रभावित होगा ।
विश्व की कोई भी ऎसी भाषा नहीं है जिसमे अन्य भाषाओँ के शब्दों को ग्रहण न किया हो । अंग्रेजी भाषा में ही दस लाख से अधिक शब्द अन्य भाषाओँ के हैं ,पर इससे उसके अस्तित्व पर कोई संकट नहीं आया । हिंदी के विकास और विस्तार के लिये हमें यह व्यापक दृष्टिकोण अपनाना होगा।
आज का युग वैश्वीकरण का युग है। भारत विश्व के विकसित देशों की नजर में एक बड़ा बाजार है । बड़े देशो ने अपने तकनीकी विशेषज्ञों को हिंदी सिखाने की शुरूआत कर दी है जिससे वे यहाँ की भाषा में आम लोगों से संवाद कर अपने उत्पादों को जन -जन तक पहुंचा सकें । जाहिर है ऐसी भाषा संस्कृतनिष्ठ हिंदी नहीं वरन आम लोगों की सहज संवाद की भाषा ही हो सकती है । इससे हिंदी रोटी -रोजी से जुड़ सकती है । ऐसा हो भी रहा है । आर्थिक कारण किसी भी सामाजिक , राजनीतिक परिवर्तन में निर्णायक होते हैं , भाषा का विकास और विस्तार इससे अछूता कैसे रह सकता है ?हिंदी भी इसका अपवाद कैसे हो सकती है ?

Wednesday, August 25, 2010

को न वशं याति लोके मुखे पिण्डेन पूरितं.

आखिर सांसदों की सेलरी को लेकर संसद में हुआ हंगामा थम ही गया । हमारे जनप्रतिनिधियों को यकायक आभास हुआ कि प्रोटोकोल में उनका ओहदा ज्यादा ऊँचा है , ब्यूरोक्रेट्स का कम । सो वे फ़ैल गये संसद में । हंगामा करने का तो उन्हें जन्मसिद्ध सही ,कर्मसिद्ध अधिकार तो है ही । उनकी माँग थी की सांसदों की सेलरी सेक्रेटरी की सेलरी से ,एक रुपये ही सही ,अधिक होनी चाहिए।( सांसदों को जो भत्ते या अन्य सुविधाएँ मिलती है वह तो उनका विशेषाधिकार है ।)बहुत मनाया उन्हें हमारे मनमोहन जी व उनके संकटमोचक प्रणव दा ने । पर "नहीं माने , तो नहीं माने मचल गये सांसद गण "।
विपक्षी सांसद हंगामे की फ्रंट लाइन में थे । सत्ता पक्ष के सांसद भी मन ही मन उनके इस अभियान में दिल से साथ थे। अपने लालूजी फिल्म में भी काम कर चुके हैं, सो उन्होंने संसद की बैठक स्थगित होने के बाद ठेठ फ़िल्मी अंदाज में संसद भवन में ही नौटंकी कर डाली । अपने आप को प्रधानमंत्री घोषित कर दिया , भाजपा के मुंडे को स्पीकर और सपा के मुलायम सिंह को' नौटंकी गठबंधन' संयोजक । फटाफट कई प्रस्ताव भी पास किये गये जिसमें मनमोहन सरकार को बर्खास्त करने का प्रस्ताव भी था । विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के सांसदों यह नौटंकी सारी दुनिया ने देखी
इस मुद्दे पर दल, जाति,अगड़े -पिछड़े , दलित व सवर्ण का भेद भुला कर हमारे जनप्रतिनिधियों में जो एकता देखी गयी वह बेमिसाल थी। इसका यदि दशांश भी यदि इनके आचरण में ईमानदारी से दिखने लगे तो देश व समाज का काया-कल्प हो जाये। पर वे ऐसा क्यों करना चाहेंगे?
राजनीति के मंतर ही अलग होते हैं जिन्हें आम आदमी समझ ही नहीं पाता । संसद व मीडिया के सामने ये जन -प्रतिनिधि आतंकवाद का विरोध करेंगे ,पर परोक्ष में आतंकवादी गुटों पर हाथ फेरेगें व उनकी रैलियों में शिरकत करेंगें । संसद में मंहगाई पर चिल्लायेंगे व जनता के हितैषी बनने का स्वाँग रचेगें ,पर यह सारा नाटक जनता को दिखाने के लिये होता है.व्यवहार में इनकी संवेदनशीलता नगण्य होती है ।
सुप्रीमकोर्ट यदि निर्देश देता है की अनाज यदि सड़ रहा है तो इससे अच्छा है की गरीबों को बाँट दो । पर मंत्री कहता है कि अनाज सड़ भले ही जय पर उसे गरीबों को मुफ्त में नहीं बाँटा जायेगा। शकर के महँगे होने पर मंत्री जी फरमाते हैं कि मँहगी शकर होने पर लोग उसका सेवन कम करेंगें इससे मधुमेह कम होगा । ऐसी बातें हमारे लोकतंत्र का हिस्सा बन गयी हैं और ऐसे बयानों पर सरकार के नुमाइंदों को शर्म भी नहीं आती
संसदीय लोकतंत्र में ,विशेषकर गठबंधन संस्कृति में ,सत्ता संतुलन बनाये रखने एवं सरकार बचाने के लिये ऐसे ईडियट्स को भी मंत्री बनाये रखना प्रधानमंत्री की मजबूरी को समझ पाना कठिन नहीं है
सरकार भी सांसदों को लुभाने का मंतर जानती है । आखिर उसे परमाणु समझौते से सम्बंधित दायित्व विधेयक भी पारित कराना है । अतः सरकार ने भी कुछ टुकड़े सांसदों की सेलरी में और नत्थी कर दिये । संस्कृत में कहा गया है -' को वशं याति लोके मुखे पिण्डे पूरितं ' (अर्थात इस संसार में ऐसा कौन है जो मुख भर दिये जाने पर वश में नहीं हो जाता ।) फिर ये तो बेचारे लालची जन -प्रतिनिधि हैं । सरकार चलानी है तो सांसदों का निरंतर फैलता जा रहा पेट भरना सरकार की मजबूरी है । जनता को तो कष्ट सहने की आदत है , चाहे बाढ़ हो या सूखा ,बंद हड़ताल हो या आतंकवाद जिहादये सारे दंश झेलना जनता की हमारे लोकतान्त्रिक देश में नियति बन गयी है

Sunday, August 15, 2010

हैप्पी इंडिपेंडेंस डे ?

हो रहा क्या आज अपने देश में ,
द्वेष , नफरत व्याप्त है परिवेश में;
खो रहीं अस्तित्व अपना मान्यतायें,
चल रहीं सर्वत्र अवसरवादी हवायें ;
त्रस्त है मंहगाई से सम्पूर्ण जनता ,
आज बेमानी लगे 'स्वाधीनता';
बैठा है हर कुर्सी पर छल ,
सब सुविधायें रहा निगल ;
ठगा - ठगा सा दिखे गरीब,
कैसा यह जनतंत्र और उसका नसीब ?
स्पीचें संसद में धाँसू ,
पोंछ न पायें गरीब के आँसू ;
जाति , धर्म में बँटता देश ,
आम जनों के बढ़ते क्लेश ;
नक्सल , माओ , सब आतंक ,
जनता झेले इनके डंक ;
कोई न देखे इनके छाले ,
उदर - भरण के इनको लाले ;
मुश्किल लगता अब जीना रे ,
कैसे मने 'स्वतंत्रता दिवस ' रे । "


Wednesday, July 7, 2010

loyal और कुत्ते

आज हमारे एक मित्र राम प्रताप जी अरसे बाद मिले । उनका सर घुटा हुआ था । हिन्दुओं में किसी परिजन कि मृत्यु पर ही अधिकतर सर के बाल मुंडाये जाते हैं । मैंने उनसे पूछा कि सब खैरियत तो है । वे बोले मेरा टामी मर गया था। मैंने पूछा कि टामी कौन ? वे बोले मेरा प्यारा वफादार कुत्ता । मै चौंका । आज तो आदमी इतना संवेदनहीन है कि माँ -बाप की मृत्यु पर भी कर्म कांड करने में हिचकता है । ये कुत्ते की मौत पर भी सर घुटाये हुए हैं।
मैंने उनसे पूछा बहुत प्यार करते थे आप उसे ? वे बोले आज इंसानों के बीच प्यार खोजना पड़ता है। आदमी आदमी का शत्रु बन गया है। कोई किसी को पनपते नहीं देखना चाहता । फिर कुत्ता तो जानवरों में सबसे ज्यादा वफादार है , उसे कितना भी झिड्को , रूखी -सूखी खाने को दो पर मालिक के सदा वफादार रहते है। जरा सा पुचकारो, मालिक के सामने दुम हिला कर सेवा तत्पर हो जाते है। हालाकि दुम- हिलाऊ संस्कृति को आज की प्रगतिशील संस्कृति में मानव समाज में भी मान्यता मिल रही है । नेता ,अधिकारी , सभी दुम हिलाऊ लोगों को अपने आस -पास रखना पसंद करते हैं । वे उन्हें एक सोफिस्टीकेटिड नाम लायल (Loyal) से पुकारते हैं ।
बहुत से अधिकारियों के आस -पास विदेशी नस्ल के कुत्ते और loyal दोनों होते हैं । वे दोनों का बराबर ख्याल रखते हैं ।
पर loyal और कुत्तों में कुछ अंतर पाया जाता है- मसलन loyal चूकि आदमी होते हैं इसलिए वे दिमाग का खेल खेलते हैं । अपने अधिकारी की जी- हजूरी कर वे उनके इतने विश्वासपात्र बन जाते हैं कि अधिकारी केवल उन्ही की आँखों से ही देखता है । फिर वे अपनी हित -सिद्धि ज्यादा करते हैं ।अधिकारी जब फँसता है तो वे इतने दूर खड़े हो जाते हैं ,जैसे कि वे उसे पहचानते नहीं । कुत्ते चूकि जानवर होते हैं अतः उनमें इतना दिमाग नहीं होता । वे मालिक की डांट, मार खा कर भी मालिक के प्रति समर्पित रहते हैं । मालिक को कोई आँख उठ कर भी देखे तो वे अपनी जान की बाजी लगा कर प्रतिरोध करते हैं ।
राम प्रताप जी बोले कि मेरा टामी भी ऐसा ही वफादार था। इतना कहते हुए उनकी आँख से झर -झर आंसू बहने लगे । मुझे लगा कि राम प्रताप जी ने मेरी आँखे खोल दी । हमारे आस -पास कुत्ते व तथाकथित loyal दोनों ही मौजूद रहते हैं पर हम पहचानने में भूल कर जाते हैं । शायद इस पोस्ट को पढ़ कर आपकी भी आँखे खुल जाएँ ।

Tuesday, July 6, 2010

भारत बंद -मोगाम्बे बहुत खुश हुये


पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों के विरोध में देश के विपक्षी दलों द्वारा किया गया भारत बंद का आवाहन उनकी नजर में सफल रहा । बड़े खुश थे विपक्षी नेता । बहुत दिनों बाद जनता ने बंद में सहयोग दिया । अपने खोये जनाधार को पाने की आशा जगी।
पर आम जनता को इससे क्या मिला? रोज कमाने वाले लाखों लोगों के घर शाम को चूल्हा नहीं जला । महानगरों में लोगों को आने जाने में तकलीफें झेलनी पड़ी । इसे जनता का समर्थन कहा जाये या राजनीतिक दलों की गुंडा बिग्रेड का डर कि मन मसोस कर दूकानदारों ,टैक्सी या रिक्शा वालों को अपना काम बंद करना पड़ा कई जगह मल्टी नेशनल एवं आई टी कंपनियों ने शनिवार की वीक एंड की छुट्टी इसलिए रद्द कर दी क्योकि इस बंद के चलते कर्मचारी काम पर नहीं पहुँच सके। टी० वी ० पर मुंबई का यह नजारा भी दिखाया गया जिसमें शिव सेना के एक कार्यकर्त्ता ने एक दूकानदार को थप्पड़ मारते हुए कहा कि हम यह सब तुम लोगों के लिये कर रहे हैं। इस पर उसने कहा किसने कहा था यह करने के लिये।
कीमतें कम हों या हों इससे राजनीतिक दलों को कोई सरोकार नहीं , उन्हें तो यह दिखाने का एक मौका मिला कि वे ही जनता के हितों के सच्चे पैरोकार हैं अतः जनता को उन्हें समर्थन देना चाहिए जिससे वे अगली बार उस सत्ता -सुख का पुनः उपभोग कर सकें जिससे जनता ने उन्हें वंचित कर दिया है ।
कई जगह सरकारों से उनका टकराव भी हुआ । यू ० पी ० में सपा के नेताओं ने खूब लाठियाँ खायीं और शहीदाना अंदाज में मीडिया के सामने रूबरू हुए कि वे जनता के सच्चे हमदर्द हैं । बिहार में मोदी के नाम पर बी. जे. पी . और जे .डी.यू. के कार्यकर्त्ता बंद के दौरान झगड़ते दिखे। प . बंगाल में नीलोत्पल बसु साहब बहुत खुश दिखे ,आखिर वहाँ उनकी सरकार थी इसलिए लाठी -डंडे नहीं खाने पड़े ।
बंद का सरकार पर क्या असर हुआ ? सरकार ने कीमतों को बढ़ने अपने निर्णय पर डटे रहने का इरादा पुनः व्यक्त कर दिया। कुल मिला कर ' भारत बंद ' का आवाहन विपक्षी दलों की एक औपचरिकता लगा और हमेशा की तरह आमलोगों को तरह -तरह की तकलीफे झेलनी पड़ी जो हमारे लोकतंत्र में जनता की नियति बन गयी है
बंद के बाद शाम को गिरफ़्तारी का नाटक ख़त्म होने के बाद विपक्षी नेताओं की प्रतिक्रिया देखने लायक थी। भाजपा के अरुण जेटली और राजनाथ सिंह ,माकपा के नीलोत्पल बसु ने बंद की सफलता को ऐतिहासिक बताया । जनता को क्या तकलीफें हुयीं ,इसकी चिंता लेशमात्र भी नेताओं के चेहरे पर दिखाई नहीं दी। ..बंद की सफलता से ये राजनीतिक मोगाम्बे बहुत खुश हुए

Monday, July 5, 2010

इन्हें सलाम करो ये अधिक महान हैं ..........

हमारे देश का एक अलग ही कल्चर दिखाई देता है। खेलों में क्रिकेट का वाइरस ऐसा पैर जमा चुका है कि अन्य खेलों की उपलब्धियाँ नजर ही नहीं आती । लोगों से ज्यादा मीडिया इसके लिये अधिक दोषी है । भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान महेंद्र सिंह धोनी की शादी की खबर को इलेक्ट्रोनिक और प्रिंट मीडिया ने इतना अधिक महत्व दिया कि उसके आगे बिम्बलडन में लिएंडर पेस के मिक्स डबल के ख़िताब की महत्वपूर्ण उपलब्धि , जिससे देश का गौरव बढ़ा है, की खबर गौण हो गयी ।
धोनी की शादी व्यक्तिगत मसला है पेस की उपलब्धि बेजोड़ है। कुछ दिन पहले साइना महिवाल ने बैडमिन्टन में ख़िताब प्राप्त कर देश का सिर गर्व से ऊंचा किया था , पर मीडिया ने उस पर भी अधिक ध्यान नहीं दिया था जबकि क्रिकेट के खिलाडियों के जीवन की व्यक्तिगत बातें ( उनका नाचना,मारना ,प्रेम कहानियां ,बर्थडे पार्टियाँ आदि ) मीडिया में सुर्खियाँ बन जाती है। पता नहीं कब मीडिया बिकाऊ ख़बरों के जाल से मुक्त होकर राष्ट्र समाज के हित का दृष्टिकोण अपनाने की ओर अग्रसर होगा और अपने नायकों को उचित सम्मान देना सीखेगा .
क्रिकेट का व्यवसायीकरण हो चुका है .वहाँ खिलाडी पैसे के पीछे अधिक दीवाने है और देश का सम्मान उनके लिये पीछे है .ऎसी स्थितियां क्रिकेट में प्रायः देखने को मिलती है , पर टेनिस और बैडमिन्टन में पेस और साइना ने जो कीर्तिमान बनाये हैं वे अतुलनीय हैं । ऎसी प्रतिभाओं को सम्मान देना सरकार ,समाज ,मीडिया व जागरूक जनता का कर्तव्य है .ये खिलाडी क्रिकेट के नायकों से कही अधिक सम्मान के पात्र हैं । इनके जज्बे सलाम करना चाहिये।

Saturday, February 27, 2010

छाये रंगों की ऐसी बहार होली में

होली का त्यौहार भारतीय सांस्कृतिक जीवन में एक नये उल्लास का संचार करता है । गरीब हो या अमीर ,सभी अपनी समस्याओं को इस अवसर पर भुला कर मस्ती से सराबोर हो जाते हैं और जीवन की जटिलताओं से पल भर को पा लेते है । इस पावन अवसर पर कुछ काव्यात्मक अभिव्यक्ति की इच्छा हुई ।
............... होली में ..................
छाये रंगों की ऐसी बहार होली में ,
आये मन में ऐसा खुमार होली में ,
तन के संग , मन भी रँग जाएँ ;
उठे ऐसी हुँकार होली में
भूलें सब राग-द्वेष होली में ,
दिखे सदभाव का परिवेश होली में ,
भूल जायें क्षेत्र,भाषा,जाति की बातें ;
दिखायें एकता का वेष होली में
दिल जोड़ने का आये विचार होली में ,
खुशियों की छाये बहार होली में ,
भूले सभी सारे गिले -शिकवे ;
बहे देश में ऐसी बयार होली में
..........................ब्लॉग जगत के सभी पाठकों को होली की हार्दिक शुभकामनायें ..............................

Wednesday, February 24, 2010

इतिहासपुरुष 'सचिन ' को सलाम

ग्वालियर वन डे में भारत की जीत के नायक सचिन तेंदुलकर ने अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट में साऊथ अफ्रीका जैसी शक्तिशाली टीम के खिलाफ वन डे में दोहरा शतक लगा कर एक असंभव सा लगने वाला कारनामा प्रस्तुत किया है । यह उपलब्धि पाने के बाद भी उनकी स्वाभाविक विनम्रता में कोई कमी नहीं आयी है । सचिन अपनी फिटनेस ,एकाग्रता और कुशलता के लिये सभी खिलाडियों के लिये एक आदर्श कहे जा सकते हैं। मैदान के बाहर और भीतर उनका व्यवहार सदैव शालीन रहा है । ख़राब फार्म के समय भी अपने आलोचकों का जबाब उन्होंने सदैव अपनी नई उपलब्धि से दिया है। वे भारत के अनमोल रत्न हैं जिन पर सभी देशवासी गर्व कर सकते हैं। उन्होंने अपना शतक भी देश के नाम समर्पित किया है। ऐसी जांबाज व्यक्तित्व को हम सबका सलाम -
" हजारों साल जब धरती अपनी बेनूरी पर रोती है ;
बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा । "

Saturday, February 13, 2010

आतंकी हिट और सरकार फ्लाप

आई .पी. एल. में पाकिस्तानी खिलाडियों के न लिये जाने पर शाहरुख़ खान के बयान के बाद बाल ठाकरे एवं शिव सेना की प्रतिक्रिया उदारमना भारतीय मानस को भले ही रास नहीं आयी हो और कांग्रेस ,भाजपा सहित सभी राजनीतिक दलों ने अपने सियासी गणित से शिवसेना बैक फुट पर भले ही चली गयी हो ; केंद्र व महाराष्ट्र की कांग्रेस सरकार ने अपनी पीठ थपथपा ली हो और सारे देश के अख़बार व मीडिया चैनल 'खान हिट और ठाकरे फ्लाप ' के स्लोगन से अटे पड़े हों, १३ फरवरी को पुणे के जर्मन बेकरी रेस्तरां पर हुए आतंकी हमलों ने २६/११ के आतंकी हमले की न केवल याद दिला दी वरन आतंकी हमलों से बचाव की हमारी तैयारी पर फिर से कुछ अनसुलझे सवाल उठा दिए ।
जहाँ एक ओर भारत सरकार व जनता का एक बड़ा वर्ग खेल में राजनीति से परे रह कर पाकिस्तानी खिलाडियों के प्रति सहानुभूतिपरक दृष्टिकोण अपनाने का हिमायती था वहाँ दूसरी ओर पाकिस्तान भारत की विदेश सचिव वार्ता पर असहयोगात्मक रवैया अपना रहा था । पुणे के बम ब्लास्ट ने रही- सही कसर पूरी कर दी और आतंकियों को पाकिस्तानी शह के संदेह और भी पुख्ता हो गये।
शिवसेना की क्षेत्रीय राजनीति की निंदा की जानी चाहिये पर सरकार के पाकिस्तान के प्रति नरमी के प्रति उसके विरोध को ख़ारिज नहीं किया जा सकता । जाने -अनजाने हमारी सरकार विदेश नीति के क्षेत्र में पाकिस्तानी चालों के जबाब में असहाय सी दिखती है। पाकिस्तान से वार्ता की पेशकश के दौरान आतंकी हमला भारत तथाकथित चाक -चौबंद सुरक्षा के सरकारी दावे पर एक करारा तमाचा है। मुंबई में 'खान हिट और शिवसेना फ्लाप' भले ही हो गयी पर पुणे में हुए इस आतंकी हमले से हमारी सरकार की आतंकवाद के खिलाफ पुख्ता तैयारियों के दावे पूरी तरह फ्लाप हो गये हैं ।

Monday, February 8, 2010

इन्हें शर्म भी नहीं आती

कल के समाचार पत्रों का अवलोकन करने दो समाचारों ने ध्यान खीचा -
पहली खबर आस्ट्रेलिया से थी जहाँ विक्टोरिया के पुलिस प्रमुख साइमन ओवरलैंड ने भारतीयों को सुझाव दिया कि वे हमलों से बचने के लिये गरीबकी तरह दिखें, 'लो प्रोफाइल ' रहें और चमक -दमक से दूर रहें ।(द एज ) इस घटना से सिद्ध होता है की अभी भी विकसित देशों संकीर्ण और भेदभावपूर्ण मानसिकता में अभी भी बदलाव नहीं आया है । यह शुद्ध नस्लवाद नहीं तो क्या है ?भारत सरकार को इस पर कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त करना चाहिए और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इस प्रवृत्ति के विरुद्ध जनमत बनाना चाहिए।
दूसरी खबर अपने भारत की आथिक राजधानी मुंबई से है । बढती मंहगाई पर कड़ी आलोचना झेल रहे कृषिमंत्री शरद पवार की पार्टी राकांपा की पत्रिका 'राष्ट्रवादी' के सम्पादकीय में लिखा गया है ,"चीनी नहीं खायेगें तो मर नहीं जायेगें "(दैनिक हिंदुस्तान ,८ फरवरी २०१०)। इसमें फ़रमाया गया है कि' चीनी नहीं खाने से किसी की मौत नहीं होती और इसे कहने से मधुमेह बढता है॥ अतः जरूरी नहीं है कि हर कोई चीनी खाए "
एक ओर हम इक्कीसवीं सदी में वैचरिक एवं भौतिक प्रगति के नए क्षितिज छूने का प्रयास कर रहे हैं ,तो दूसरी ओर अभी तक नस्लवादी मानसिकता से मुक्त नहीं हो पा रहे है । राजनीतिक तौर पर गैर जिम्मेदार एवं संवेदनहीन बातें करने में अपनी शान समझते हैं । यह सब बेहद शर्मनाक है

Saturday, February 6, 2010

कराहती जनता और संवेदनहीन तंत्र

कमरतोड़ मंहगाई से कारण आज देश की जनता कराह रही है और सरकारें उस पर राजनीति करने से बाज नहीं रहीं हैं। रोजमर्रा की चीजें आम आदमी की पहुँच से दूर होती जा रहीं हैं। चीनी की कीमतें आसमान पर है और कृषि मंत्री की एन सी पी का मुखपत्र जनता को चीनी खाना छोड़ने की सलाह दे रहा है। बेशर्मी की पराकाष्ठा है यह। मुख्यमंत्रियों की बैठक में मँहगाई की समस्या पर सार्थक विचार- विमर्श की बजाय राजनीतिक रोटियाँ सेंकने की प्रवृत्ति ज्यादा दिखी अधिकतर मुख्यमंत्रियों ने कोई सार्थक सुझाव न देकर केंद्र सरकार को कटघरे में करने में और चुटकी लेने में ज्यादातर दिलचस्पी दिखाई जैसेकि राज्य सरकार का मंहगाई से कोई वास्ता ही न हो।
राजनीतिक व प्रशासनिक स्तर परजिम्मेदार पदों बैठे राजनेताओं की यह संवेदनहीनता अत्यंत शर्मनाक है। ऐसा लगता है की बेशर्मी ने हमारे देश के राजनीतिक कल्चर को आच्छादित कर लिया है प्रधान मंत्री राजनीतिक गणित के कारण कृषि मंत्री को हटा पाने की हिम्मत नहीं रखते। वे केवल आशावादिता में ही जी रहें हैं कि 'बुरा दौर ख़त्म हो गया है ,अब मंहगाई कम होने वाली है। ' पर कब ? इसका स्पष्ट उत्तर उनके भी पास नहीं है।
साठ वर्षों से अधिक की हमारी लोकतान्त्रिक यात्रा का निष्कर्ष आज यही दिखाई दे रहा है कि तंत्र , जन से बहुत दूर ही नहीं वरन उसके प्रति संवेदनहीन होता जा रहा है नेताओं के पेट मोटे होते जा रहे हैं और गरीब दो जून रोटी को मोहताज होता जा रहा है। गरीबों के प्रति संवेदनशीलता को प्रदर्शित करने यदि कोई लोकतान्त्रिक दल का राजकुमार निकलता भी है तो उसका प्रयास वोट बटोरने की राजनीति का एक हिस्सा ही लगता है
सरकार अपनी पीठ थपथपा सकती है कि उसने कई जनोन्मुखी योजनायें लागू की हैं , सूचना का अधिकार उपलब्ध कराया है और गरीबों व दलितों की स्थिति सूधारने के लिये काफी काम किया है । पर मंहगाई का दानव इन सब पर भारी है । जब तक पेट खाली है तब तक सारे स्वतंत्रता अधिकार बेमानी हैं । बड़ी प्रचलित उक्ति है - ' भूखे भजन होय गोपाला ,ये लो अपनी कंठी माला '

Friday, February 5, 2010

- 'सामना का सच' बनाम 'सामने का सच '

महाराष्ट्र फिर सुर्ख़ियों में है और सारा देश सकते में । शाहरुख़ खान ने आई पी एल में पाकिस्तानी खिलाडियों को न लिये जाने पर अपना विरोध क्या दर्ज क्या करा दिया , पिछले विधानसभा चुनाव में बुरी तरह पिटी शिवसेना को एक मुद्दा मिल गया । शिवसेना के मुखपत्र 'सामना' का सच अलग ही होता है । कभी सचिन को नसीहत देना ,कभी अमिताभ को । इस बार बाल ठाकरे ने किंग खान को देशद्रोही ठहरा दिया जिसकी प्रतिक्रिया में अन्य राजनीतिक दलों को भी अपनी राजनीतिक रोटी सेकने का मौका मिल गया । अपने राहुल बाबा भी अखाड़े में कूद पड़े । मुंबई सबकी है या मराठों की ,यह मुद्दा भी साथ में गरमा गया । शिवसेना व मनसे की गुंडागर्दी को कांग्रेस सरकार अब तक परोक्ष रूप से मान्यता देती रही थी । पर राहुल बाबा के महाराष्ट्र दौरे से सरकार को सक्रिय होना पड़ा और शिवसेना का राहुल विरोध एक 'फ्लॉप शो ' सिद्ध हुआ ।फासिस्ट बाल ठाकरे के बेटे उद्धव को भी महसूस हुआ कि मुसोलिनी जैसा शासन का क्या होता है
इस घटनाक्रम में कुछ सकारात्मक बातें भी दिखाई दीं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह मोहन भागवत ने शिवसेना की लाइन का विरोध किया। अब तक शिवसेना की सहयोगी रही भाजपा ने भी खुल कर मुंबई को सारे देश का बताया । करूणानिधि ने स्वयं को हिंदी विरोधी कहने पर आपत्ति जताई।कांगेस के केन्द्रीय नेताओं ने खुल कर शिवसेना की क्षेत्रीय भाषाई संकीर्णता का विरोध किया ।
यह स्थिति हमारी व्यवस्था के सामने कुछ सवाल भी खड़े करती है -
क्या सरकार को राजनीतिक नफा-नुकसान के आधार पर ही काम करना चाहिए ?
राहुल के दौरे पर सरकार ने जो कठोरता बरती ,क्या अन्य अवसरों पर भी कानून व व्यवस्था को हाथ में लेने वालों के विरुद्ध वैसी ही सख्ती बरती जाएगी ?
क्या क्षेत्रीय व भाषायी संकीर्णता के विरुद्ध राष्ट्रीय दलों में जैसी सहमति महाराष्ट्र के घटनाक्रम इस समय दिख रही है ,वह आगे भी दिखेगी ?
क्या कला , खेल व संस्कृति के मामलों को हम राजनीतिक चश्मे से देखना छोड़ सकेगें ?
इन प्रश्नों का उत्तर आने वाला समय ही देगा और तभी हम जान पायेगे 'सामने का सच '