Friday, May 21, 2021

लेकिन लगते सबसे अच्छे....वे तारे ...जो टूट गये है...

               याद आती है 22 मई 2002 की वह मनहूस शाम जब  मेरे अग्रज एवम् जनपद जालौन के प्रसिद्ध कवि एवम् साहित्यकार सुकवि आदर्श 'प्रहरी' को एकाएक दिल का दौरा पडा और आधे घंटे में ही क्रूर काल ने उन्हें हम से छीन लिया । वे केवल 52 वर्ष के थे। मेरे परिवार के लिये यह वज्रपात ही था ।
              आज उनके महाप्रयाण को 19 वर्ष हो गये.......उनके साथ बीता बचपन , उनका  मेरी पढ़ाई में मार्गदर्शन , साथ बैठ कर विभिन्न विषयों पर चर्चा.......उनके साथ कवि गोष्ठियों मे जाना और यह समझना कि  कविताओं में जितना आदर्श बघारा जाता है व्यवहार  सब कुछ अलग ही  होता है .........उनके विवाह की स्मृतियाँ........मधुमेह से जूझते हुये उनका संघर्ष ......सभी कुछ आज चलचित्र की भाँति नेत्रों के सम्मुख आ रहा है।
              ईश्वर की कृपा से आज पारिवारिक समस्यायें काफी  हद तक हल हो चुकी है ......परिवार बढ़ गया है.... तीन - तीन दामाद एवं दो- दो बहुयें परिवार में आ चुकीं हैं .....भाई साहब की तीनों बेटियाँ अच्छी शिक्षा पाकर अपनी-अपनी ससुराल में सुखपूर्वक जीवन व्यतीत कर रहीं हैं और पुत्रवती हैं.......नाती,पोते जब भी आते हैं, सारे घर को गुंजित कर देते हैं......पर उनकी कमी आज भी महसूस होती है।
        आज बुन्देलखण्ड के सुप्रसिद्ध कवि ' मंजुल मयंक' के गीत की  पंक्तियाँ याद आ रही है-

  " प्यारे लगते चाँद ,सितारे, अच्छे लगते हैं ये सारे ,
      लेकिन लगते सबसे अच्छे,वे तारे जो टूट गये है ।"
             
               सुकवि आदर्श प्रहरी जनपद के काव्य जगत के सशक्त हस्ताक्षर थे।उनके गुरु स्व.डा . राम स्वरुप खरे  ने उनकी काव्य प्रतिभा को निखारने में महत्वपूर्ण योगदान दिया था. उन्हें अपने अन्य गुरुओं डा. बी. बी. लाल, डा. राम शंकर द्विवेदी, डा. दुर्गा  प्रसाद खरे एवं डा. यामिनी  श्रीवास्तव का अमूल्य मार्गदर्शन मिला.
                प्रहरी जी ने अनेक गीत व मुक्तक लिखे. वे अपने कवि मित्रों के बीच 'मुक्तक सम्राट ' कहे जाते थे। उनके सौ गीतों संग्रह ' प्यास लगी तो दर्द पिया है ' प्रकाशित हो चुका है । उनके कुछ अविस्मरणीय मुक्तक निम्नांकित हैं-

            "बिना तपे  तुम कैसे कंचन?
             नागपाश   बिन कैसे चंदन? 
             विषपायी जब तक न बनोगे, 
             तब तक कौन करे अभिनंदन."
                          
                        "दृष्टिकोणों की बात   होती  है, 
                         पथ के मोड़ों की बात होती है, 
                         जो भी संघर्ष    में  विहँसते हैं, 
                         उनकी करोड़ो में बात होती है."
  
                  आज कोरोना की विभीषिका से सारा देश त्रस्त है.  ऐसे समय में प्रहरी जी की एक रचना याद आती है -
                 
                 समझौतों  का  नाम जिंदगी.

                 बाहर- बाहर     सूर्योदय  सी, 
                 भीतर- भीतर  शाम  जिंदगी.
             
                  जीवन  के प्रस्तुत   करती  है, 
                  नित्य  नये  आयाम  जिंदगी.
        
                  कभी रश्मि-रेखा सी उज्ज्वल, 
                  कभी घटा  सी श्याम  जिंदगी.
       
                   घुटने  लगती  साँस  दु:खों से, 
                   लगता   प्राणायाम     जिंदगी.

                   समझौतों   का   नाम जिंदगी.

 
                   अंत में मै उन्हीं की पंक्तियों से उनको श्रद्धांजलि व्यक्त करता हूँ-

         " गीत  में   जो  दर्द  गाते  हैं , उन्हें  मेरा  नमन  है, 
           दर्द में   जो   मुस्कुराते  हैं, उन्हें   मेरा   नमन है, 
           जो व्यथाओं में ,कथाओं की नई नित सृष्टि करते, 
           मान्यताओं  को   बनाते  हैं,  उन्हें   मेरा  नमन है." 

                               🙏🙏🙏

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