Friday, June 4, 2021

प्रकृति से अनुकूलता के दृढ़ संकल्प की आवश्यकता

              आज सारे संसार में आज  5 जून को  ' विश्व पर्यावरण दिवस '  मनाया जा रहा  है। इसे मनाने का उद्देश्य दुनियाँ भर में लोगों को पर्यावरण की सुरक्षा के प्रति जागरूक और सचेत करना है।
               इस दिवस को मनाने की शुरुआत 1972 में 'संयुक्त राष्ट्र महासभा' द्वारा आयोजित 'विश्व पर्यावरण सम्मेलन ' में चर्चा के बाद लिये निर्णय के पश्चात् हुई  और  5 जून 1973 को प्रथम 'विश्व पर्यावरण दिवस' मनाया गया।
               प्रति वर्ष   'विश्व पर्यावरण दिवस' की एक थीम (theme) रखी जाती  है l गत वर्ष (2020 ) की थीम  ‘जैव-विविधता’ ( ‘Celebrate Biodiversity’ )  रखी गयी थी जिसके माध्यम से  संदेश दिया गया कि 'जैव विविधता संरक्षण एवं प्राकृतिक संतुलन' होना मानव जीवन के अस्तित्व के लिए अति आवश्यक है।   
                 इस वर्ष 2021  के लिये 'विश्व पर्यावरण दिवस ' की थीम  'पारिस्थितिकी तंत्र की बहाली (Ecosystem Restoration)'  रखी गयी है l  इसका आशय है कि वनों को नया जीवन देकर, पेड़-पौधे लगाकर, बारिश के पानी को संरक्षित करके और तालाबों का निर्माण करके हम पारिस्थितिकी तंत्र को फिर से बहाल कर सकते हैं l यह निर्विवाद है कि  संपूर्ण मानवता का अस्तित्व प्रकृति पर निर्भर है। इसलिए एक स्वस्थ एवं सुरक्षित पर्यावरण के बिना मानव समाज की कल्पना अधूरी है। 
              हमारे देश प्राचीन परंपराओं में 'प्रकृति संरक्षण' को विशेष महत्व दिया गया हैl भारत में पेड़-पौधों, नदी-पर्वत, ग्रह-नक्षत्र, अग्नि-वायु सहित प्रकृति के विभिन्न रूपों के साथ मानवीय संबंध स्थापित  किये गये हैं। पेड़ की तुलना संतान से की गई है तो नदी को मातृ स्वरूप माना गया है। ग्रह-नक्षत्र, पहाड़ और वायु देवरूप माने गए हैं।  भारत के वैज्ञानिक दृष्टि रखने वाले ऋषि-मुनि को प्रकृति संरक्षण और मानव के स्वभाव की गहरी समझ रखते थे। वे जानते थे कि मानव अपने क्षणिक लाभ के लिए कई अवसरों पर गंभीर भूल कर अपनी ही भारी हानि कर सकता है। इसलिए उन्होंने प्रकृति के साथ मानव के संबंध विकसित करने का प्रयास किया। ताकि मनुष्य को प्रकृति को गंभीर क्षति पहुंचाने से रोका जा सके। यही कारण है कि प्राचीन काल से ही भारत में प्रकृति के साथ संतुलन करके चलने का महत्वपूर्ण संस्कार रहा l कवि व साहित्यकार भी इसके प्रति सचेष्ट थे l महात्मा कबीर  की निम्नांकित सीख दृष्टव्य है-
   " वृक्ष कबहुँ न फल भखें, नदी न संचै नीर, 
              परमारथ  के  कारने ,  साधुन  धरा  शरीर l"
            हमारे ऋषि- मुनि अच्छी तरह जानते थे कि वृक्षों में भी चेतना होती है। इसलिए उन्हें मनुष्य के समतुल्य माना गया है। ऋग्वेद से बृहदारण्यकोपनिषद्, पद्मपुराण और मनुस्मृति सहित अन्य वाङमयों में इसके संदर्भ मिलते हैं। छान्दोग्यउपनिषद् में उद्दालक ऋषि अपने पुत्र श्वेतकेतु से आत्मा का वर्णन करते हुए कहते हैं कि वृक्ष जीवात्मा से ओतप्रोत होते हैं और मनुष्यों की भाँति सुख-दु:ख की अनुभूति करते हैं। एक वृक्ष की मनुष्य के दस पुत्रों से तुलना की गई है l
             प्राचीन समय से ही हमारे देश के सामाजिक जीवन में घर-घर में तुलसी का पौधा लगाने की परंपरा हैl तुलसी का पौधा मनुष्य को सबसे अधिक प्राणवायु ऑक्सीजन देता है। तुलसी के पौधे में अनेक औषधीय गुण भी मौजूद हैं। पीपल को देवता मानकर भी उसकी पूजा नियमित इसीलिए की जाती है क्योंकि वह भी अधिक मात्रा में ऑक्सीजन देता है।
             भारतीय लोक जीवन में   पर्वों को प्रकृति से जोड़ दिया गया था  जैसे- 'वट पूर्णिमा 'और 'आंवला नवमी' का पर्व मनाने का उद्देश्य वटवृक्ष और आंवले के वृक्षों के संरक्षण की चेतना उत्पन्न करना है ।   मकर संक्रान्ति, वसंत पंचमी, महाशिवरात्रि, होली, नवरात्र, गुड़ी पड़वा, ओणम्, दीपावली, कार्तिक पूर्णिमा, छठ पूजा, शरद पूर्णिमा, अन्नकूट, देव प्रबोधिनी एकादशी, हरियाली तीज, गंगा दशहरा आदि सभी पर्वों में प्रकृति संरक्षण का संदेश छिपा है।  विद्या की देवी 'सरस्वती जी' को पीले फूल पसंद हैं। धन-सम्पदा की देवी ' लक्ष्मी जी 'को कमल और गुलाब के फूल से प्रसन्न किया जा सकता है। ' गणेशजी' दूर्वा से प्रसन्न हो जाते हैं।  प्रत्येक देवी-देवता भी पशु-पक्षी और पेड़-पौधों से लेकर प्रकृति के विभिन्न अवयवों के संरक्षण का संदेश देते हैं।
              जलस्रोतों के  महत्व को भी हमारे यहाँ  सदैव से स्वीकार किया गया है। ज्यादातर ग्राम एवं नगर नदियों के किनारे पर बसे हैं। जो ग्राम व नगर नदी किनारे नहीं थे, वहाँ  तालाब बनाए जाते थे। बिना नदी या ताल के गांव-नगर के अस्तित्व की कल्पना नहीं है।  जल दीर्घायु प्रदायक, कल्याणकारक, सुखमय और प्राणरक्षक होता है। शुद्ध जल के बिना जीवन संभव नहीं है। यही कारण है कि जलस्रोतों को बचाए रखने के लिए हमारे ऋषियों ने इन्हें सम्मान दिया। हमारे यहाँ गंगा सहित सभी जीवनदायनी नदियों को माँ का स्थान दिया  गया है।
              पर्यावरण संरक्षण में जीव-जन्तुओं के महत्व को पहचानकर हमारे महर्षियों ने उनकी भी देवरूप में अर्चना की है। मनुष्य और पशु परस्पर एक-दूसरे पर निर्भर हैं। हमारे  परिवारों में पहली रोटी गाय के लिए और आखिरी रोटी कुत्ते के लिए निकालने की परंपरा है। लोग चींटियों कोआटा डालते हैं ; चिडिय़ों और कौओं के लिए घर की मुंडेर पर दाना-पानी रखा जाता है।  नाग पंचमी पर नाग की पूजा की जाती है  l नाग-विष से मनुष्य के लिए प्राणरक्षक औषधियों का निर्माण होता है। नाग पूजन के पीछे का रहस्य ही यह है। 
              प्रकृति से खिलवाड़ विनाशकारी होता है, कोरोना संकट ने यह पूर्णतया स्पष्ट कर दिया है l विकास के नाम पर वृक्षों के अंधाधुंध कटान ने प्राकृतिक संतुलन बिगाड़ दिया है l इस संकट में आक्सीजन की कमी  से अनेक व्यक्ति काल के गाल में समा गये l अब आक्सीजन देने वाले एव  प्रदूषण  हरने वाले पेड़ों को लगाने पर  जोर दिया जा रहा l मुझे सुकवि जय शंकर प्रसाद जी की निम्नांकित याद आ रहीं हैं-
        "प्रकृति करती अपने अनुकूल, 
                 हम नही कर सकते प्रतिकूल ;
            हमारा    अपना   ही    दुर्बोध, 
                  लिया  करता हमसे  प्रतिशोध."l
                       
               आइये! पर्यावरण दिवस पर प्रकृति से अनुकूलता का संकल्प लें l

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