महाराष्ट्र विधान सभा में आज राज ठाकरे की पार्टी का हंगामा और एम ० एन ० एस ० विधायक कदम द्वारा सपा विधायक अबू सलेम को मारे गए थप्पड़ की गूँजती आवाज फ़िर एक सवाल पूछती है कि कितना मजबूत है हमारा लोकतंत्र ? लोकतान्त्रिक व्यवस्था को अंगीकार किये छः दशकों से अधिक का समय बीतने के बाद भी बार -बार ऐसा प्रश्न हमारे सामने प्रायः आता है ,जो हमारे जनप्रतिनिधियों की असलियत को उजागर करता है । विधानसभाओं में हुई हिंसा और मारपीट की घटनायें प्रायः हमारे देश होती रहतीं है। संसद में भी लोकतान्त्रिक व संसदीय मर्यादाओं का कई बार मखौल उड़ता रहता है । हम केवल उनकी निंदा करके अथवा निराशा व्यक्त करके अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते है। कैसे इन प्रतिनिधि संस्थाओं में संसदीय अनुशासन स्थापित हो ? विरोधी दृष्टिकोण को भी सुनने की सहनशीलता विकसित हो ,यह आज की प्रमुख समस्या है ।
यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि राजनीतिक दलों की भूमिका इस सम्बन्ध में निराशाजनक एवं अवसरवादी रही है । वोट कि राजनीति में ये इतने अधिक लिप्त हो गये है कि राष्ट्रीय हित कि उपेक्षा करते इन्हें कोई संकोच नहीं होता । महाराष्ट्र का उदाहरण हमारे सामने है। चुनाव से पहले भी मराठी कार्ड को लेकर राज ठाकरे व शिव सेना की नूराकुश्ती को राष्ट्रीय दल मजा लेकर देखते रहे। २८८ सदस्यीय विधानसभा में राज के दल को मात्र तेरह सीटें मिलीं और पच्चीस सीटों पर दूसरा स्थान मिला,पर शिवसेना -भाजपा गठजोड़ का बंटाधार हो गया। इतनी छोटी सफलता से ही एम० एन० एस० के दिमाग सातवें आसमान पर पहुँच गये । राज ठाकरे ने हिटलरी फरमान जारी कर दिया कि सभी विधानसभा सदस्य मराठी में ही शपथ लें अन्यथा उन्हें सबक सिखाया जायेगा । सपा विधायक अबू सलेम ने हिन्दी में शपथ लेने कि घोषणा कर राज को चुनौती दी।
इस सारे घटनाक्रम का शर्मनाक पक्ष यह है कि केन्द्रीय सरकार अथवा राज्यसरकार के किसी भी नेता ने राज के इस फरमान का न तो विरोध किया और न ही विधानसभा में किसी अप्रिय घटना को रोकने कि कोई तैयारी ही की। घटना के समय सदन के मार्शलों का प्रयोग न किया जाना इस तथ्य की ओर संकेत करता है।
घटना के बाद यद्यपि सभी प्रमुख राजनीतिक दलों ने इस घटना की निंदा की। पर उनके स्वरों में औपचारिकता अधिक थी । दोषियों को दण्डित कराने इच्छा अथवा ऐसी स्थितियों की पुनरावृत्ति न होने देने की संकल्पबद्धता दूर -दूर तक नजर नहीं आयी । यद्यपि दोषी विधायकों को चार वर्ष के लिए निलंबित कर दिया गया पर राज ठाकरे के फरमान का मुखर विरोध महाराष्ट्र में किसी दल ने नहीं किया , केवल मीडिया ने इसे व्यापक स्तर पर चर्चा का विषय बनाया । ऐसी चुप्पी से ग़लत तत्वों का हौसला बढ़ता है और लोकतंत्र निरंतर गिरावट की ओर अग्रसर होता है।
जनप्रतिनिधियों की छवि समाज में निरंतर गिरती जा रही है जो इनकी अवसरवादिता ,गुंडई और असहिष्णुता का परिणाम है । कुछ वर्ष पूर्व उत्तर प्रदेश में हाईस्कूल में नागरिकशास्त्र के प्रश्नपत्र में एक प्रश्न पूछा गया ,"जनता द्वारा विधानसभा में चुने गये प्रतिनिधि को क्या कहते हैं ? " इसका सही उत्तर था -विधायक । पर एक छात्र ने उत्तर लिखा -'हरामी '। कई समाचार पत्रों में यह वाकया छापा । यह घटना हमारे जनप्रतिनिधियों के कार्य-कलापों से बनी समाज में उनकी छवि की ओर इशारा तो करती ही है ।
महाराष्ट्र की घटना अत्यन्त दुर्भाग्यपूर्ण है । इसके लिए न केवल दोषियों के विरुद्ध कड़ी कार्यवाही होनी चाहिए वरन ऐसी उपाय किये जाने चाहिए जिनसे इस प्रकार का आचरण करने का किसी को भी दोबारा साहस न हो और हमारी जनतांत्रिक संसदीय पद्धति बार -बार विश्व में मजाक का पात्र न बने।
Monday, November 9, 2009
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nice
ReplyDeleteअभी थप्पड़ ही पडा है, आगे - आगे देखिएगा कट्टे, बम आदि चला करेंगे. हमने खुद ऎसी व्यवस्था कर दी है कि अब भले आदमी सदन में पहुंचेंगे ही नहीं..........बाकी तो राम ही राखे.............
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