जम्मू में गत दिवस लश्कर के आतंकवादियों द्वारा एक घर में घुस कर मारपीट करने पर परिवार की एक लड़की 'रुखसाना ' द्वारा अपने भाई के साथ ४ घंटों तक प्रतिरोध किया गया और एक आतंकवादी का हथियार छीन कर उसे मार दिया तथा अन्य आतंकवादियों को भागने पर विवश होना पड़ा।
यह घटना मात्र एक सनसनीखेज एवं अप्रत्याशित ख़बर ही नहीं है ,यह आतंकवाद से प्रभावित क्षेत्रों के लोगों के लिए एक सुखद मार्गदर्शन एवं प्रेरणा का संचार कने वाला वाकया है । यह उनमें खोये आत्मविश्वास को जगाने तथा केवल सुरक्षाबलों पर निर्भर न रह कर स्वयं मुकाबला करने का साहस दिखाने की भावना को निर्मित करेगा । यदि जनता जाग जाए और आतंकवादियों के खिलाफ उठ खड़ी हो तो इनके दिन गिने -चुने रह जायेगें। आतंकवादी जनता को दहशत के द्वारा उसका मनोबल गिराने का प्रयास करते है।
रुखसाना के साहस की जितनी अधिक तारीफ की जाए उतना कम है । उसके जज्बे को सलाम।
Wednesday, September 30, 2009
क्यों मर -मर कर जी उठता है रावण ?
हर साल हमारे देश में दशहरा पर रावण जलाया जाता है और 'बुराई पर अच्छाई की विजय' के प्रतीक के रूप में इसे ग्रहण किए जाने पर बल दिया जाता है । पर क्या यह मात्र रस्म- अदायगी नहीं होती है ? वास्तविक रावण तो हमारे अन्दर है और वह हमारी कुवृत्तियों ,स्वार्थों और सीमित दृष्टिकोणों के प्रतिबिम्ब के रूप में दृष्टिगोचर होता है। हमारे स्थापित एवं अनुभवसिद्ध सामाजिक व नैतिक मूल्यों के प्रति जनमानस की उदासीनता समाज में निरंतर विकसित होती नकारात्मक प्रवृत्तियों के लिए जिम्मेदार है।इसका परिणाम सामने है ।
हमारे जनतंत्र में जन गौण हो गया है और तंत्र मनमानी पर उतारू है । बुनियादी समस्याओं के प्रति व्यवस्था की उदासीनता स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है। चाहे बाढ़ हो या सूखा ,दंगे हों या एक्सीडेंट ,तंत्र संवेदनहीन रुख अपनाता है । राहत के नाम पर खुली लूटपाट किसी से छिपी नहीं है । राजनैतिक परिवेश तो जनता को मोहरा समझता है । मंहगाई को चरम पर पहुँचाने के लिए जिम्मेवार सरकारें दलितों व शोषितों के नाम पर आँसू बहाने में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहतीं । वोट की राजनीति इनके लिए किसी भी दुःख -सुख से ऊपर है। जनता भी इतनी भोली है कि वह बुनियादी मुद्दों को भूल कर जाति,संप्रदाय ,क्षेत्र जैसे बहकावों में आकर सियासतदानों के कुचक्र का शिकार हो जाती है।
हमारा सामाजिक व राजनीतिक परिवेश इतना अधिक उलझावपूर्ण हो गया है कि आम आदमी भी ईमानदारी,सदाचरण एवं सिद्धान्तनिष्ठ्ता को मजबूरी मानने लगा है और भ्रष्ट आचरण और कमीशनखोरी आदि को मान्यता देने लगा है । मुझे सुकवि विनोद निगम की पंक्तियाँ याद आ रहीं हैं -
"बस्ती बड़ी अजीब यहाँ की;
न्यारी है तहजीब यहाँ की ;
जिनके सारे काम ग़लत हैं;
सुबह ग़लत है,शाम ग़लत है;
उनको लोग नमन करते हैं। "
यही कारण है कि रावण प्रतिवर्ष जल -जल कर भी मरता नहीं । रावण को यदि मारना है तो हमें जागरूक होना पड़ेगा । अपने अन्दर और समाज में व्याप्त नकारात्मक और स्वार्थी प्रवृत्तियों का दमन करने के लिए स्वयं को तैयार करना होगा । कोई राम हमारे उद्धार को नहीं आने वाला ,हमें स्वयं ही राम बन कर रावणों का संहार करने के लिए आत्मविश्वास अपने अंदर उत्पन्न करना होगा।
हमारे जनतंत्र में जन गौण हो गया है और तंत्र मनमानी पर उतारू है । बुनियादी समस्याओं के प्रति व्यवस्था की उदासीनता स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है। चाहे बाढ़ हो या सूखा ,दंगे हों या एक्सीडेंट ,तंत्र संवेदनहीन रुख अपनाता है । राहत के नाम पर खुली लूटपाट किसी से छिपी नहीं है । राजनैतिक परिवेश तो जनता को मोहरा समझता है । मंहगाई को चरम पर पहुँचाने के लिए जिम्मेवार सरकारें दलितों व शोषितों के नाम पर आँसू बहाने में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहतीं । वोट की राजनीति इनके लिए किसी भी दुःख -सुख से ऊपर है। जनता भी इतनी भोली है कि वह बुनियादी मुद्दों को भूल कर जाति,संप्रदाय ,क्षेत्र जैसे बहकावों में आकर सियासतदानों के कुचक्र का शिकार हो जाती है।
हमारा सामाजिक व राजनीतिक परिवेश इतना अधिक उलझावपूर्ण हो गया है कि आम आदमी भी ईमानदारी,सदाचरण एवं सिद्धान्तनिष्ठ्ता को मजबूरी मानने लगा है और भ्रष्ट आचरण और कमीशनखोरी आदि को मान्यता देने लगा है । मुझे सुकवि विनोद निगम की पंक्तियाँ याद आ रहीं हैं -
"बस्ती बड़ी अजीब यहाँ की;
न्यारी है तहजीब यहाँ की ;
जिनके सारे काम ग़लत हैं;
सुबह ग़लत है,शाम ग़लत है;
उनको लोग नमन करते हैं। "
यही कारण है कि रावण प्रतिवर्ष जल -जल कर भी मरता नहीं । रावण को यदि मारना है तो हमें जागरूक होना पड़ेगा । अपने अन्दर और समाज में व्याप्त नकारात्मक और स्वार्थी प्रवृत्तियों का दमन करने के लिए स्वयं को तैयार करना होगा । कोई राम हमारे उद्धार को नहीं आने वाला ,हमें स्वयं ही राम बन कर रावणों का संहार करने के लिए आत्मविश्वास अपने अंदर उत्पन्न करना होगा।
Monday, September 21, 2009
सदभाव व भाईचारे की प्रतीक - ईद
आज सारा देश ईद मना रहा है। ईद -उल- फ़ित्र का पर्व रमजान के बाद ऐसी प्रसन्नता को अभिव्यक्त करता है जो एकता ,सदभाव,भाईचारा और सब कुछ भूल कर नए प्रेम संबंधों को प्रारम्भ करने पर बल देता है । ईद की नमाज रमजान की बाध्यताओं से मुक्ति के बाद ईश्वर के प्रति आभार प्रकट करती है । ईद दीन- दुखियों के प्रति करुणा प्रदार्शित करने का भी संदेश देती है । सेवईयों से आदर- सत्कार खुशियों की मिठास को आपस बाँटना ही है। यह भावना हिन्दुओं के त्यौहार होली की याद दिलाता है जो आपस में बैर -भाव भुला कर प्रेम संबंधों की नई शुरुआत पर बल देता है। नजीर अकबराबादी ने ईद के माहौल व्यक्त करते हुए लिखा है-
" पिछले पहर से उठ के नहाने की धूम है ;
शीरो -शकर सेवईयाँ पकाने की धूम है ;
पीरो -जवां को नेमतें खाने की धूम है ;
लड़कों को ईदगाह में जाने की धूम है । "
हमारा देश' गंगा -जमुनी 'संस्कृति का वाहक रहा है । हिंदू -मुस्लिम के बीच मतभेद सियासी कुचक्र अधिक हैं ,आम आदमी एक दुसरे के सुख -दुःख में सदैव सहभागी रहा है । होली ,ईद ,रक्षाबंधन सभी में दोनों कोमों की प्रेमपूर्ण भागीदारी रहती है। शायर जावेद 'कुदारी' लिखते है -
" ग़ालिब मेरे चचा थे ,तुलसी थे मेरे बाबा ,
मैं शेर भी पढ़ूँगा ,चौपाइयों के साथ। "
यह सामंजस्य और सदभाव ही हमारे सामाजिक परिवेश की ताकत है ,जिसके लिए' इकबाल' ने लिखा था -
'क्या बात की मिटती हस्ती नहीं हमारी '
" पिछले पहर से उठ के नहाने की धूम है ;
शीरो -शकर सेवईयाँ पकाने की धूम है ;
पीरो -जवां को नेमतें खाने की धूम है ;
लड़कों को ईदगाह में जाने की धूम है । "
हमारा देश' गंगा -जमुनी 'संस्कृति का वाहक रहा है । हिंदू -मुस्लिम के बीच मतभेद सियासी कुचक्र अधिक हैं ,आम आदमी एक दुसरे के सुख -दुःख में सदैव सहभागी रहा है । होली ,ईद ,रक्षाबंधन सभी में दोनों कोमों की प्रेमपूर्ण भागीदारी रहती है। शायर जावेद 'कुदारी' लिखते है -
" ग़ालिब मेरे चचा थे ,तुलसी थे मेरे बाबा ,
मैं शेर भी पढ़ूँगा ,चौपाइयों के साथ। "
यह सामंजस्य और सदभाव ही हमारे सामाजिक परिवेश की ताकत है ,जिसके लिए' इकबाल' ने लिखा था -
'क्या बात की मिटती हस्ती नहीं हमारी '
Saturday, September 19, 2009
फ़िर जागा समलैंगिकता का जिन्न
समलेंगिकता का मुद्दा एक बार फिर गरमा गया है। हाई कोर्ट के निर्णय पर सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्र से जबाब माँगा तो मंत्रिमंडल की बैठक में निर्णय हुआ कि सरकार हाईकोर्ट के निर्णय का न तो विरोध करेगी और न समलैंगिकता का समर्थन। अजीब बात है । क्या समलैंगिक भारत में इतने ताक़तवर हो गए है कि सरकार उनके अप्राकृतिक कृत्य का विरोध करने में हिचक रही है?
समलैगिकता को विश्व में किसी भी समाज की स्थापित सामाजिक एवं नैतिक मान्यतायें जायज नहीं मान सकती, क्योकि यह अप्राकृतिक प्रवृत्ति है। मानव सभ्यता के विकास के साथ -साथ कुछ प्रकृति विरोधी प्रवृत्तियाँ भी विकसित हुईं जिनमें कुछ परिस्थतिजन्य थी और कुछ मजबूरी का परिणाम । समलैगिकता भी ऎसी ही प्रवृत्ति है जिसका प्रसार शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति की सामान्य परिस्थितियों के अभाव में हुआ । इसके प्रमुख कारण थे - विवाह में देरी या विवाह न हो पाना,परिवार से दूरी और सामान्य सेक्स पूर्ति की वैकल्पिक व्यवस्था का अभाव (जैसी कि सेना और पुलिस में स्थितियाँ बन जाती हैं )एवं संचार माधयमों - टी वी और इन्टरनेट - के द्वारा ग्लोबल जानकारी के नाम पर विकृत सेक्स का प्रसार आदि।
विश्व के अधिकतर विकसित देशों में समलैंगिकता की प्रवृत्ति तेजी से फ़ैल रही है । समलैंगिकों की लाबी इतनी मजबूत हो रही है कि राजनीतिक तंत्र को उनकी बात सुनने और मानने पर विवश होना पड़ रहा है । भारत में यह सम्बन्ध दण्ड के दायरे में आता है पर हाई कोर्ट ने व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार के आधार पर , पारस्परिक सहमति से वयस्कों के बीच स्थापित समलैंगिक संबंधों को दण्ड के दायरे से बाहर कर दिया है।
अब मामला सुप्रीम कोर्ट के सामने है ,पर इसने देश में एक बहस को जन्म दे दिया है। अधिकतर लोगों को लगता है कि इससे समाज में अनाचार व अपराधों को बढ़ावा मिलेगा ; समाज की सेक्स पूर्ति की स्थापित व्यवस्था छिन्न -भिन्न हो जायेगी ;हाई कोर्ट का यह निर्णय व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार का दुरूपयोग है एवं यह शारीरिक स्वास्थ्य के लिए घातक है ।
समलैंगिकता पर हाई कोर्ट के इस निर्णय को समाज के एक बड़े वर्ग का समर्थन भी मिला है। युवाओं में इस निर्णय को लेकर एक नया उत्साह दिखाई दे रहा है । अनेक व्यक्ति अब स्वयं को गे ( gay) कहने में अब संकोच का अनुभव नहीं करते। सार्वजानिक रूप से समलैंगिकता के पक्ष में प्रदर्शन हो रहें हैं।
महिलाएं भी इसके समर्थन में पीछे नहीं हैं । कुछ महिलाएं इसे पुरूष- वर्चस्व को चुनौती एवं नारी की मुक्ति के रूप में भी देख रही हैं ।समलैंगिक संबंधों पर कई फिल्में भी बन चुकी है ।
हमारा समाज एक लोकतान्त्रिक समाज है। लोकतंत्र में व्यक्तिगत स्वतंत्रता एवं लोकमत का महत्वपूर्ण स्थान होता है। भारत जैसे देश में जहाँ लोकतंत्र 'वोट की राजनीति' पर टिका है ,सरकारे राजनीतिक हित को देख कर प्रतिक्रिया व्यक्त करती हैं .केन्द्र सरकार का इस मुद्दे पर तटस्थ रहने का निर्णय इसी का परिणाम है।
पर \ चुप्पी इस समस्या का समाधान नहीं है। इस पर एक सार्थक बहस होना चाहिए । समाज के व्यापक हित में न तो स्वतंत्रता का दुरूपयोग करने की अनुमति दी जा सकती है और न ही उसे बाधित होने दिया जा सकता है एवं न ही वास्तविकता से आँखे मूँदी जा सकतीं हैं । इस मुद्दे पर अतिवादिता से दूर रह कर विवेकसम्मत तरीके से गंभीरतापूर्वक विचार करने की आवश्यकता है ।
समलैगिकता को विश्व में किसी भी समाज की स्थापित सामाजिक एवं नैतिक मान्यतायें जायज नहीं मान सकती, क्योकि यह अप्राकृतिक प्रवृत्ति है। मानव सभ्यता के विकास के साथ -साथ कुछ प्रकृति विरोधी प्रवृत्तियाँ भी विकसित हुईं जिनमें कुछ परिस्थतिजन्य थी और कुछ मजबूरी का परिणाम । समलैगिकता भी ऎसी ही प्रवृत्ति है जिसका प्रसार शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति की सामान्य परिस्थितियों के अभाव में हुआ । इसके प्रमुख कारण थे - विवाह में देरी या विवाह न हो पाना,परिवार से दूरी और सामान्य सेक्स पूर्ति की वैकल्पिक व्यवस्था का अभाव (जैसी कि सेना और पुलिस में स्थितियाँ बन जाती हैं )एवं संचार माधयमों - टी वी और इन्टरनेट - के द्वारा ग्लोबल जानकारी के नाम पर विकृत सेक्स का प्रसार आदि।
विश्व के अधिकतर विकसित देशों में समलैंगिकता की प्रवृत्ति तेजी से फ़ैल रही है । समलैंगिकों की लाबी इतनी मजबूत हो रही है कि राजनीतिक तंत्र को उनकी बात सुनने और मानने पर विवश होना पड़ रहा है । भारत में यह सम्बन्ध दण्ड के दायरे में आता है पर हाई कोर्ट ने व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार के आधार पर , पारस्परिक सहमति से वयस्कों के बीच स्थापित समलैंगिक संबंधों को दण्ड के दायरे से बाहर कर दिया है।
अब मामला सुप्रीम कोर्ट के सामने है ,पर इसने देश में एक बहस को जन्म दे दिया है। अधिकतर लोगों को लगता है कि इससे समाज में अनाचार व अपराधों को बढ़ावा मिलेगा ; समाज की सेक्स पूर्ति की स्थापित व्यवस्था छिन्न -भिन्न हो जायेगी ;हाई कोर्ट का यह निर्णय व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार का दुरूपयोग है एवं यह शारीरिक स्वास्थ्य के लिए घातक है ।
समलैंगिकता पर हाई कोर्ट के इस निर्णय को समाज के एक बड़े वर्ग का समर्थन भी मिला है। युवाओं में इस निर्णय को लेकर एक नया उत्साह दिखाई दे रहा है । अनेक व्यक्ति अब स्वयं को गे ( gay) कहने में अब संकोच का अनुभव नहीं करते। सार्वजानिक रूप से समलैंगिकता के पक्ष में प्रदर्शन हो रहें हैं।
महिलाएं भी इसके समर्थन में पीछे नहीं हैं । कुछ महिलाएं इसे पुरूष- वर्चस्व को चुनौती एवं नारी की मुक्ति के रूप में भी देख रही हैं ।समलैंगिक संबंधों पर कई फिल्में भी बन चुकी है ।
हमारा समाज एक लोकतान्त्रिक समाज है। लोकतंत्र में व्यक्तिगत स्वतंत्रता एवं लोकमत का महत्वपूर्ण स्थान होता है। भारत जैसे देश में जहाँ लोकतंत्र 'वोट की राजनीति' पर टिका है ,सरकारे राजनीतिक हित को देख कर प्रतिक्रिया व्यक्त करती हैं .केन्द्र सरकार का इस मुद्दे पर तटस्थ रहने का निर्णय इसी का परिणाम है।
पर \ चुप्पी इस समस्या का समाधान नहीं है। इस पर एक सार्थक बहस होना चाहिए । समाज के व्यापक हित में न तो स्वतंत्रता का दुरूपयोग करने की अनुमति दी जा सकती है और न ही उसे बाधित होने दिया जा सकता है एवं न ही वास्तविकता से आँखे मूँदी जा सकतीं हैं । इस मुद्दे पर अतिवादिता से दूर रह कर विवेकसम्मत तरीके से गंभीरतापूर्वक विचार करने की आवश्यकता है ।
Monday, September 14, 2009
हिन्दी को सहज बनाइये
आज सारा देश' हिन्दी दिवस' मनाने की रस्म अदायगी कर रहा है। मुझे ऐसा लगता है कि इस दिन हिन्दी के विकास और गौरव की बात कम होती है हिन्दी की दशा पर मातम अधिक मनाया जाता है। अशोक चक्रधर कल सायं NDTV पर कल कह रहे थे -
' चाहे सब कुछ अंग्रेजी में सर्व करो ,पर हिन्दी पर गर्व करो। '
हिन्दी अब तक वह स्थान क्यों नहीं पा सकी है जो उसे मिलना चाहिए था ,आज इस पर विचार करने की आवश्यकता है । मुझे लगता है कि इसका सबसे बड़ा कारण हिन्दी को सेमिनारों व गोष्ठियों तक सीमित रख उसे आम आदमी से न जोड़ पाना है। कोई भी भाषा जन -भाषा तभी बन पाती है जब वह पूर्वाग्रहों एवं क्लिष्टता के आवरण से मुक्त होकर विकसित हो । हमें ध्यान रखना चाहिए कि पहले भाषा बनती है ,बाद में व्याकरण। गाँधी जी हिन्दी को हिन्दुस्तानी भाषा के रूप में विकसित करना चाहते थे जिसमें भारतीय संस्कृति की तरह किसी भी भाषा के लोक-प्रचलित ग्राह्य शब्दों का सामंजस्य सम्भव हो । पर हिन्दी के विकास के लिए अब तक सरकारी व अकादमिक स्तर पर जो भी प्रयास हुए हैं वे हिन्दी के संस्कृतनिष्ठ एवं क्लिष्ट रूप को ही प्रोत्साहित करते है ।
यह भी देखा गया है कि विदेशी छात्र जो हिन्दी सीखते हैं वह भाषा का सहज रूप न होकर कठिन रूप होती है।इससे कभी-कभी बड़ी ही हास्यास्पद स्थिति उत्पन्न हो जाती है। एक घटना याद आती है कि इलाहाबाद में कुछ जर्मन छात्र ,जो हिन्दी का अध्ययन कर रहे थे ,साईकिल से यात्रा करते समय रुके। वहाँ एक छात्र की साईकिल के एक पहिये की हवा कम हो गयी । उसने साईकिल का पंचर बनने वाले से कहा ," श्रीमन! इस द्वै-चक्रिका के अग्र चक्र में पवन प्रविष्ट करा दीजिये ।" पंचर बनने वाला मुँह बाए उसकी बात समझने का प्रयास करता रहा।
मेरे एक मित्र एक महाविद्यालय में हिन्दी के प्रवक्ता है और अति शुद्ध हिन्दी बोलते हैं। एक बार वे मेरे साथ एक परिचित ,जो बुखार व जुकाम से पीडित थे ,को देखने गए। उनसे मिलने पर उन्होंने देखा कि पीडित सज्जन की नाक का कुछ पदार्थ उनकी मूछ पर लग गया है । वे बोले," श्रीमन ! आपके श्मश्रु प्रदेश में आपकी नासा प्रदेश का एक आगंतुक विराजमान है ,कृपया उसका कर्षण करें। " भाषा की ऐसी क्लिष्टता ,क्या कभी सहज रूप में ग्राह्य हो सकती है?
अतः आज इस बात पर सम्यक् रूप से विचार करने की जरूरत है कि कैसे हिन्दी को सहज भाषा के रूप में विकसित कर आम जन के मन उसके प्रति अनुराग उत्पन्न किया जाए ?हिन्दीभाषी अंग्रेजी का ज्ञान पायें ,पर अपने समाज में अंग्रेजी बोलने में अपनी शान न समझें। हिन्दी का भविष्य उसे कबीर एवं प्रेमचंद कि भाषा के रूप में विकसित करने में ही है ,हमें इस जमीनी वास्तविकता को समझना होगा।
' चाहे सब कुछ अंग्रेजी में सर्व करो ,पर हिन्दी पर गर्व करो। '
हिन्दी अब तक वह स्थान क्यों नहीं पा सकी है जो उसे मिलना चाहिए था ,आज इस पर विचार करने की आवश्यकता है । मुझे लगता है कि इसका सबसे बड़ा कारण हिन्दी को सेमिनारों व गोष्ठियों तक सीमित रख उसे आम आदमी से न जोड़ पाना है। कोई भी भाषा जन -भाषा तभी बन पाती है जब वह पूर्वाग्रहों एवं क्लिष्टता के आवरण से मुक्त होकर विकसित हो । हमें ध्यान रखना चाहिए कि पहले भाषा बनती है ,बाद में व्याकरण। गाँधी जी हिन्दी को हिन्दुस्तानी भाषा के रूप में विकसित करना चाहते थे जिसमें भारतीय संस्कृति की तरह किसी भी भाषा के लोक-प्रचलित ग्राह्य शब्दों का सामंजस्य सम्भव हो । पर हिन्दी के विकास के लिए अब तक सरकारी व अकादमिक स्तर पर जो भी प्रयास हुए हैं वे हिन्दी के संस्कृतनिष्ठ एवं क्लिष्ट रूप को ही प्रोत्साहित करते है ।
यह भी देखा गया है कि विदेशी छात्र जो हिन्दी सीखते हैं वह भाषा का सहज रूप न होकर कठिन रूप होती है।इससे कभी-कभी बड़ी ही हास्यास्पद स्थिति उत्पन्न हो जाती है। एक घटना याद आती है कि इलाहाबाद में कुछ जर्मन छात्र ,जो हिन्दी का अध्ययन कर रहे थे ,साईकिल से यात्रा करते समय रुके। वहाँ एक छात्र की साईकिल के एक पहिये की हवा कम हो गयी । उसने साईकिल का पंचर बनने वाले से कहा ," श्रीमन! इस द्वै-चक्रिका के अग्र चक्र में पवन प्रविष्ट करा दीजिये ।" पंचर बनने वाला मुँह बाए उसकी बात समझने का प्रयास करता रहा।
मेरे एक मित्र एक महाविद्यालय में हिन्दी के प्रवक्ता है और अति शुद्ध हिन्दी बोलते हैं। एक बार वे मेरे साथ एक परिचित ,जो बुखार व जुकाम से पीडित थे ,को देखने गए। उनसे मिलने पर उन्होंने देखा कि पीडित सज्जन की नाक का कुछ पदार्थ उनकी मूछ पर लग गया है । वे बोले," श्रीमन ! आपके श्मश्रु प्रदेश में आपकी नासा प्रदेश का एक आगंतुक विराजमान है ,कृपया उसका कर्षण करें। " भाषा की ऐसी क्लिष्टता ,क्या कभी सहज रूप में ग्राह्य हो सकती है?
अतः आज इस बात पर सम्यक् रूप से विचार करने की जरूरत है कि कैसे हिन्दी को सहज भाषा के रूप में विकसित कर आम जन के मन उसके प्रति अनुराग उत्पन्न किया जाए ?हिन्दीभाषी अंग्रेजी का ज्ञान पायें ,पर अपने समाज में अंग्रेजी बोलने में अपनी शान न समझें। हिन्दी का भविष्य उसे कबीर एवं प्रेमचंद कि भाषा के रूप में विकसित करने में ही है ,हमें इस जमीनी वास्तविकता को समझना होगा।
Friday, September 11, 2009
बिनोबा जी की याद में
आज गाँधी जी के आध्यात्मिक उत्तराधिकारी बिनोबा जी का जन्म दिवस है। उन्हें भूदान आन्दोलन के प्रणेता के रूप में भी याद किया जाता है। उनसे सम्बंधित एक घटना याद आती है । एक बार एक विदेशी पत्रकार बिनोबा जी के पास आया और भारतीय समाज में प्रचलित वर्ण व्यवस्था की चर्चा करते हुए पूछा कि आपकी जाति क्या है। बिनोबा जी ने कहा कि जब मैं प्रातः उठ कर शौच आदि क्रियायें करता हूँ तब मै शूद्र होता हूँ ,इसके बाद जब स्नान आदि से निवृत्त हो कर ध्यान ,पूजन एवं अध्ययन करता हूँ तो मैं ब्राह्मण होता हूँ , तदोपरांत जब मै अपने उदर पोषण एवं अपनी जीविका से सम्बंधित चिंता करता हूँ तो वैश्य होता हूँ और जब मै समाज के कल्याण और ग़रीबों के हित के बारे मै सोचता हूँ तो मै क्षत्रिय होता हूँ। अब आप ही बताइये कि मेरी जाति क्या है ?
यदि हम लोग आज वर्ण व्यवस्था को बिनोबा जी के कहे अनुसार ग्रहण करें तो बहुत सी सामाजिक समस्याएं स्वतः समाप्त हो जायेगीं । ऐसे महापुरुष को मेरा शत् शत् नमन।
यदि हम लोग आज वर्ण व्यवस्था को बिनोबा जी के कहे अनुसार ग्रहण करें तो बहुत सी सामाजिक समस्याएं स्वतः समाप्त हो जायेगीं । ऐसे महापुरुष को मेरा शत् शत् नमन।
Wednesday, September 9, 2009
स्मारकों के इस शहर में
उत्तर प्रदेश में सत्तासीन सरकार की वरीयता सूची में स्मारकों का विशेषकर कांशीराम स्मारक का स्थान सबसे ऊपर है । सुप्रीम कोर्ट ने इसके निर्माण में किए जा रहे सार्वजानिक धन के अपव्यय पर प्रश्न उठाया तो फिलहाल निर्माण रोक दिया गया है । मुख्यमंत्री का मान्यवर काशीराम के प्रति प्रेम समझा जा सकता है क्योंकि काशीराम जी की सारी राजनीतिक विरासत बैठे - बिठाये उन्हें मिल गयी । पर काशीराम ने जीवन भर जिन दलितों और शोषितों के आत्मसम्मान एवं स्थिति में सुधार के लिए संघर्ष किया उनकी ओर से वे आँखे मूंदे हैं।
प्रदेश में सूखे की त्रासदी किसान भोग रहे है ,उन्हें पेट की आग बुझाने के लिए अपनी बेटियों और पात्नियों तक को गिरवीरखना पड़ रहा है। इन किसानों में दलितों और शोषितों की संख्या काफी है। दबंगों के उन पर कहर की घटनायें आम हो गयीं है । प्रदेश में कानून व व्यवस्था जर्जर दिख रही है। हत्या ,बलात्कारऔर लूट की वारदातें निरंतर बढ़ रहीं हैं। पर मुख्यमंत्री ऐसे स्मारक बनवाने में रूचि ले रही हैं जो उन्हें अमर कर दें।
अमरता तो अपने कामों से प्राप्त होती है . अमर तो रावण भी नहीं हो पाया था। राम, कृष्ण .बुद्ध , कबीर ,रैदास , गाँधी , सुभाष ,अम्बेदकर,नेहरू, शास्त्री आदि अपने कामों के कारण जन-जन के सम्मान के पात्र आज भी बने हुए हैं न कि अपने स्मारकों के कारण। जनता कितनी भी अबोध व अशिक्षित क्यों न हो ,पर पेट की आग कभी भी किसी ऐसे विप्लव को जन्म दे सकती है जिसमें सारी व्यवस्था जल कर राख हो सकती है। राजनेताओं को इस तथ्य को समझना चाहिए।
ऐसा लगता है कि हमारे संघीय ढाँचे में सत्तासीनों के ऊपर अंकुश लगाने का काम सिर्फ़ सुप्रीम कोर्ट का ही रह गया है । हम सभी को ऐसे उपायों की खोज करनी चाहिए जिनसे सरकारों या किसी एक सत्तारूढ़ नेता की सनक के कारण जनता की गाढ़ी कमायी बर्बाद न हो। यह आज का एक ज्वलंत प्रश्न है।
प्रदेश में सूखे की त्रासदी किसान भोग रहे है ,उन्हें पेट की आग बुझाने के लिए अपनी बेटियों और पात्नियों तक को गिरवीरखना पड़ रहा है। इन किसानों में दलितों और शोषितों की संख्या काफी है। दबंगों के उन पर कहर की घटनायें आम हो गयीं है । प्रदेश में कानून व व्यवस्था जर्जर दिख रही है। हत्या ,बलात्कारऔर लूट की वारदातें निरंतर बढ़ रहीं हैं। पर मुख्यमंत्री ऐसे स्मारक बनवाने में रूचि ले रही हैं जो उन्हें अमर कर दें।
अमरता तो अपने कामों से प्राप्त होती है . अमर तो रावण भी नहीं हो पाया था। राम, कृष्ण .बुद्ध , कबीर ,रैदास , गाँधी , सुभाष ,अम्बेदकर,नेहरू, शास्त्री आदि अपने कामों के कारण जन-जन के सम्मान के पात्र आज भी बने हुए हैं न कि अपने स्मारकों के कारण। जनता कितनी भी अबोध व अशिक्षित क्यों न हो ,पर पेट की आग कभी भी किसी ऐसे विप्लव को जन्म दे सकती है जिसमें सारी व्यवस्था जल कर राख हो सकती है। राजनेताओं को इस तथ्य को समझना चाहिए।
ऐसा लगता है कि हमारे संघीय ढाँचे में सत्तासीनों के ऊपर अंकुश लगाने का काम सिर्फ़ सुप्रीम कोर्ट का ही रह गया है । हम सभी को ऐसे उपायों की खोज करनी चाहिए जिनसे सरकारों या किसी एक सत्तारूढ़ नेता की सनक के कारण जनता की गाढ़ी कमायी बर्बाद न हो। यह आज का एक ज्वलंत प्रश्न है।
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