आज सारा देश' हिन्दी दिवस' मनाने की रस्म अदायगी कर रहा है। मुझे ऐसा लगता है कि इस दिन हिन्दी के विकास और गौरव की बात कम होती है हिन्दी की दशा पर मातम अधिक मनाया जाता है। अशोक चक्रधर कल सायं NDTV पर कल कह रहे थे -
' चाहे सब कुछ अंग्रेजी में सर्व करो ,पर हिन्दी पर गर्व करो। '
हिन्दी अब तक वह स्थान क्यों नहीं पा सकी है जो उसे मिलना चाहिए था ,आज इस पर विचार करने की आवश्यकता है । मुझे लगता है कि इसका सबसे बड़ा कारण हिन्दी को सेमिनारों व गोष्ठियों तक सीमित रख उसे आम आदमी से न जोड़ पाना है। कोई भी भाषा जन -भाषा तभी बन पाती है जब वह पूर्वाग्रहों एवं क्लिष्टता के आवरण से मुक्त होकर विकसित हो । हमें ध्यान रखना चाहिए कि पहले भाषा बनती है ,बाद में व्याकरण। गाँधी जी हिन्दी को हिन्दुस्तानी भाषा के रूप में विकसित करना चाहते थे जिसमें भारतीय संस्कृति की तरह किसी भी भाषा के लोक-प्रचलित ग्राह्य शब्दों का सामंजस्य सम्भव हो । पर हिन्दी के विकास के लिए अब तक सरकारी व अकादमिक स्तर पर जो भी प्रयास हुए हैं वे हिन्दी के संस्कृतनिष्ठ एवं क्लिष्ट रूप को ही प्रोत्साहित करते है ।
यह भी देखा गया है कि विदेशी छात्र जो हिन्दी सीखते हैं वह भाषा का सहज रूप न होकर कठिन रूप होती है।इससे कभी-कभी बड़ी ही हास्यास्पद स्थिति उत्पन्न हो जाती है। एक घटना याद आती है कि इलाहाबाद में कुछ जर्मन छात्र ,जो हिन्दी का अध्ययन कर रहे थे ,साईकिल से यात्रा करते समय रुके। वहाँ एक छात्र की साईकिल के एक पहिये की हवा कम हो गयी । उसने साईकिल का पंचर बनने वाले से कहा ," श्रीमन! इस द्वै-चक्रिका के अग्र चक्र में पवन प्रविष्ट करा दीजिये ।" पंचर बनने वाला मुँह बाए उसकी बात समझने का प्रयास करता रहा।
मेरे एक मित्र एक महाविद्यालय में हिन्दी के प्रवक्ता है और अति शुद्ध हिन्दी बोलते हैं। एक बार वे मेरे साथ एक परिचित ,जो बुखार व जुकाम से पीडित थे ,को देखने गए। उनसे मिलने पर उन्होंने देखा कि पीडित सज्जन की नाक का कुछ पदार्थ उनकी मूछ पर लग गया है । वे बोले," श्रीमन ! आपके श्मश्रु प्रदेश में आपकी नासा प्रदेश का एक आगंतुक विराजमान है ,कृपया उसका कर्षण करें। " भाषा की ऐसी क्लिष्टता ,क्या कभी सहज रूप में ग्राह्य हो सकती है?
अतः आज इस बात पर सम्यक् रूप से विचार करने की जरूरत है कि कैसे हिन्दी को सहज भाषा के रूप में विकसित कर आम जन के मन उसके प्रति अनुराग उत्पन्न किया जाए ?हिन्दीभाषी अंग्रेजी का ज्ञान पायें ,पर अपने समाज में अंग्रेजी बोलने में अपनी शान न समझें। हिन्दी का भविष्य उसे कबीर एवं प्रेमचंद कि भाषा के रूप में विकसित करने में ही है ,हमें इस जमीनी वास्तविकता को समझना होगा।
Monday, September 14, 2009
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इस जमीनी वास्तविकता को समझना होगा।
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yahi poori post ka SAAR hai.