Saturday, September 19, 2009

फ़िर जागा समलैंगिकता का जिन्न

समलेंगिकता का मुद्दा एक बार फिर गरमा गया है। हाई कोर्ट के निर्णय पर सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्र से जबाब माँगा तो मंत्रिमंडल की बैठक में निर्णय हुआ कि सरकार हाईकोर्ट के निर्णय का न तो विरोध करेगी और न समलैंगिकता का समर्थन। अजीब बात है । क्या समलैंगिक भारत में इतने ताक़तवर हो गए है कि सरकार उनके अप्राकृतिक कृत्य का विरोध करने में हिचक रही है?
समलैगिकता को विश्व में किसी भी समाज की स्थापित सामाजिक एवं नैतिक मान्यतायें जायज नहीं मान सकती, क्योकि यह अप्राकृतिक प्रवृत्ति है। मानव सभ्यता के विकास के साथ -साथ कुछ प्रकृति विरोधी प्रवृत्तियाँ भी विकसित हुईं जिनमें कुछ परिस्थतिजन्य थी और कुछ मजबूरी का परिणाम । समलैगिकता भी ऎसी ही प्रवृत्ति है जिसका प्रसार शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति की सामान्य परिस्थितियों के अभाव में हुआ । इसके प्रमुख कारण थे - विवाह में देरी या विवाह न हो पाना,परिवार से दूरी और सामान्य सेक्स पूर्ति की वैकल्पिक व्यवस्था का अभाव (जैसी कि सेना और पुलिस में स्थितियाँ बन जाती हैं )एवं संचार माधयमों - टी वी और इन्टरनेट - के द्वारा ग्लोबल जानकारी के नाम पर विकृत सेक्स का प्रसार आदि।
विश्व के अधिकतर विकसित देशों में समलैंगिकता की प्रवृत्ति तेजी से फ़ैल रही है । समलैंगिकों की लाबी इतनी मजबूत हो रही है कि राजनीतिक तंत्र को उनकी बात सुनने और मानने पर विवश होना पड़ रहा है । भारत में यह सम्बन्ध दण्ड के दायरे में आता है पर हाई कोर्ट ने व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार के आधार पर , पारस्परिक सहमति से वयस्कों के बीच स्थापित समलैंगिक संबंधों को दण्ड के दायरे से बाहर कर दिया है
अब मामला सुप्रीम कोर्ट के सामने है ,पर इसने देश में एक बहस को जन्म दे दिया है। अधिकतर लोगों को लगता है कि इससे समाज में अनाचार अपराधों को बढ़ावा मिलेगा ; समाज की सेक्स पूर्ति की स्थापित व्यवस्था छिन्न -भिन्न हो जायेगी ;हाई कोर्ट का यह निर्णय व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार का दुरूपयो है एवं यह शारीरिक स्वास्थ्य के लिए घातक है ।
समलैंगिकता पर हाई कोर्ट के इस निर्णय को समाज के एक बड़े वर्ग का समर्थन भी मिला है। युवाओं में इस निर्णय को लेकर एक नया उत्साह दिखाई दे रहा है । अनेक व्यक्ति अब स्वयं को गे ( gay) कहने में अब संकोच का अनुभव नहीं करते सार्वजानिक रूप से समलैंगिकता के पक्ष में प्रदर्शन हो रहें हैं।
महिलाएं भी इसके समर्थन में पीछे नहीं हैं । कुछ महिलाएं इसे पुरूष- वर्चस्व को चुनौती एवं नारी की मुक्ति के रूप में भी देख रही हैं ।समलैंगिक संबंधों पर कई फिल्में भी बन चुकी है ।
हमारा समाज एक लोकतान्त्रिक समाज है। लोकतंत्र में व्यक्तिगत स्वतंत्रता एवं लोकमत का महत्वपूर्ण स्थान होता है। भारत जैसे देश में जहाँ लोकतंत्र 'वोट की राजनीति' पर टिका है ,सरकारे राजनीतिक हित को देख कर प्रतिक्रिया व्यक्त करती हैं .केन्द्र सरकार का इस मुद्दे पर तटस्थ रहने का निर्णय इसी का परिणाम है।
पर \ चुप्पी इस समस्या का समाधान नहीं है। इस पर एक सार्थक बहस होना चाहिए । समाज के व्यापक हित में तो स्वतंत्रता का दुरूपयोग करने की अनुमति दी जा सकती है और ही उसे बाधित होने दिया जा सकता है एवं ही वास्तविकता से आँखे मूँदी जा सकतीं हैं । इस मुद्दे पर अतिवादिता से दूर रह कर विवेकसम्मत तरीके से गंभीरतापूर्वक विचार करने की आवश्यकता है ।

1 comment:

  1. इस मुद्दे पर अतिवादिता से दूर रह कर विवेकसम्मत तरीके से गंभीरतापूर्वक विचार करने की आवश्यकता है


    aur yahi to nahi ho raha hai........ Sir........

    aapka poora lekh bahut hi achcha hai.....

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