Tuesday, July 7, 2009

दृष्टिकोण को व्यापक बनाने की जरूरत

हम एक लोकतान्त्रिक समाज में रहते है। लोकतान्त्रिक व्यवस्था को तो हमने अपना तो लिया है और इस व्यवस्था में अपना बहुपक्षीय विकास भी किया है किंतु बौद्धिक स्तर पर भी हम प्रजातान्त्रिक मानसिकता बना सके हों,यह प्रायः देखने को कम मिलता है। मैंने अनेक ऎसी बहुमुखी प्रतिभाओं ,विद्वानों,प्रबुद्ध एवं स्थापित विचारकों ,लोकप्रिय राजनेताओं एवं सक्रिय समाजशास्त्रियों में भी उस वैचारिक व्यापकता एवं सहिष्णुता का अभाव देखा है जो एक प्रजातान्त्रिक समाज में होनी चाहिए। यह दृष्टिकोण कि 'जो हमसे सहमत नहीं वह हमारा विरोधी है' प्रजातान्त्रिक मानसिकता को व्यक्त नहीं करता । प्रजातान्त्रिक मानसिकता असहमति को भी सुनने और अपने तर्कों (कुतर्क नहीं) से उसकी काट करने में विश्वास रखती है । मैंने विभिन्न अकादमिक संगोष्ठियों एवं विधायिका में होने वाली बहसों में यह भी देखा है कि वक्ता उत्तेजित हो कर उनसे पृथक मत व्यक्त करने वाले वक्ताओं पर ऐसी व्यक्तिगत टिप्पणी कराने लगते है जिसका बहस से कोई सम्बन्ध नहीं होता । मै यह अनुभव करता हूँ कि हम सभी को अपने संपर्क में आने वाले सभी प्रियजनों,बुद्धिजीवियों और विचारकों से ऎसी प्रजातान्त्रिक बौद्धिक प्रवृत्ति अपनाने का आग्रह करना चाहिए जिससे वैचारिक बहसों में सार्थकता व सहजता दृष्टिगोचर हो ,न कि कटुता । हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि आप जिसे सही समझते है उसके लिए प्रजातंत्र में केवल आग्रह ही कर सकते है,किसी पर अपनी बात थोप नहीं सकते। यदि हर व्यक्ति ऐसा प्रयास करे तो देर से ही सही ,समाज में बौद्धिक समरसता एवं बहसों में सार्थकता दिखने लगेगी ,ऐसा मेरा विश्वास है। मै यह भी आशा नहीं करता कि सभी ( मेरे अत्यन्त निकटस्थ भी ) मेरे उक्त विचार से सहमत ही होंगे।

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