आखिर सांसदों की सेलरी को लेकर संसद में हुआ हंगामा थम ही गया । हमारे जनप्रतिनिधियों को यकायक आभास हुआ कि प्रोटोकोल में उनका ओहदा ज्यादा ऊँचा है , ब्यूरोक्रेट्स का कम । सो वे फ़ैल गये संसद में । हंगामा करने का तो उन्हें जन्मसिद्ध न सही ,कर्मसिद्ध अधिकार तो है ही । उनकी माँग थी की सांसदों की सेलरी सेक्रेटरी की सेलरी से ,एक रुपये ही सही ,अधिक होनी चाहिए।( सांसदों को जो भत्ते या अन्य सुविधाएँ मिलती है वह तो उनका विशेषाधिकार है ।)बहुत मनाया उन्हें हमारे मनमोहन जी व उनके संकटमोचक प्रणव दा ने । पर "नहीं माने , तो नहीं माने मचल गये सांसद गण "।
विपक्षी सांसद हंगामे की फ्रंट लाइन में थे । सत्ता पक्ष के सांसद भी मन ही मन उनके इस अभियान में दिल से साथ थे। अपने लालूजी फिल्म में भी काम कर चुके हैं, सो उन्होंने संसद की बैठक स्थगित होने के बाद ठेठ फ़िल्मी अंदाज में संसद भवन में ही नौटंकी कर डाली । अपने आप को प्रधानमंत्री घोषित कर दिया , भाजपा के मुंडे को स्पीकर और सपा के मुलायम सिंह को' नौटंकी गठबंधन' संयोजक । फटाफट कई प्रस्ताव भी पास किये गये जिसमें मनमोहन सरकार को बर्खास्त करने का प्रस्ताव भी था । विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के सांसदों यह नौटंकी सारी दुनिया ने देखी ।
इस मुद्दे पर दल, जाति,अगड़े -पिछड़े , दलित व सवर्ण का भेद भुला कर हमारे जनप्रतिनिधियों में जो एकता देखी गयी वह बेमिसाल थी। इसका यदि दशांश भी यदि इनके आचरण में ईमानदारी से दिखने लगे तो देश व समाज का काया-कल्प हो जाये। पर वे ऐसा क्यों करना चाहेंगे?
राजनीति के मंतर ही अलग होते हैं जिन्हें आम आदमी समझ ही नहीं पाता । संसद व मीडिया के सामने ये जन -प्रतिनिधि आतंकवाद का विरोध करेंगे ,पर परोक्ष में आतंकवादी गुटों पर हाथ फेरेगें व उनकी रैलियों में शिरकत करेंगें । संसद में मंहगाई पर चिल्लायेंगे व जनता के हितैषी बनने का स्वाँग रचेगें ,पर यह सारा नाटक जनता को दिखाने के लिये होता है.व्यवहार में इनकी संवेदनशीलता नगण्य होती है ।
सुप्रीमकोर्ट यदि निर्देश देता है की अनाज यदि सड़ रहा है तो इससे अच्छा है की गरीबों को बाँट दो । पर मंत्री कहता है कि अनाज सड़ भले ही जय पर उसे गरीबों को मुफ्त में नहीं बाँटा जायेगा। शकर के महँगे होने पर मंत्री जी फरमाते हैं कि मँहगी शकर होने पर लोग उसका सेवन कम करेंगें इससे मधुमेह कम होगा । ऐसी बातें हमारे लोकतंत्र का हिस्सा बन गयी हैं और ऐसे बयानों पर सरकार के नुमाइंदों को शर्म भी नहीं आती ।
संसदीय लोकतंत्र में ,विशेषकर गठबंधन संस्कृति में ,सत्ता संतुलन बनाये रखने एवं सरकार बचाने के लिये ऐसे ईडियट्स को भी मंत्री बनाये रखना प्रधानमंत्री की मजबूरी को समझ पाना कठिन नहीं है ।
सरकार भी सांसदों को लुभाने का मंतर जानती है । आखिर उसे परमाणु समझौते से सम्बंधित दायित्व विधेयक भी पारित कराना है । अतः सरकार ने भी कुछ टुकड़े सांसदों की सेलरी में और नत्थी कर दिये । संस्कृत में कहा गया है -' को न वशं याति लोके मुखे पिण्डेन पूरितं ' (अर्थात इस संसार में ऐसा कौन है जो मुख भर दिये जाने पर वश में नहीं हो जाता ।) फिर ये तो बेचारे लालची जन -प्रतिनिधि हैं । सरकार चलानी है तो सांसदों का निरंतर फैलता जा रहा पेट भरना सरकार की मजबूरी है । जनता को तो कष्ट सहने की आदत है , चाहे बाढ़ हो या सूखा ,बंद व हड़ताल हो या आतंकवाद व जिहाद। ये सारे दंश झेलना जनता की हमारे लोकतान्त्रिक देश में नियति बन गयी है।
Wednesday, August 25, 2010
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रक्षाबंधन पर हार्दिक बधाइयाँ एवं शुभकामनायें! बहुत बढ़िया लिखा है आपने! उम्दा प्रस्तुती!
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