Tuesday, December 10, 2024

चिंताजनक स्थिति में मानवाधिकार

         आज अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार दिवस (Human Rights Day) है. पूरे विश्व में 10 दिसंबर को इसे मनाया जाता है. संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा ने 10 दिसंबर  1948 को पेरिस में  'मानवाधिकारों की सार्वजनिक घोषणा'  की थी. तबसे इस दिन को ' मानवाधिकार दिवस' के रूप में मनाया जाता है. यह घोषणा एक ऐसा ऐतिहासिक दस्तावेज हैं जो उन अविभाज्य अधिकारों को सुनिश्चित करता हैं जो हर व्यक्ति को एक मानव के रूप में प्राप्त हैं.
         यद्यपि आधिकारिक तौर पर इस दिन को मनाने की घोषणा 1950 में हुई. 1950 में संयुक्त राष्ट्र असेंबली ने सभी देशों को आमंत्रित किया. असेंबली ने 423 (V) रेज़्योलुशन पास कर सभी देशों और संबंधित संगठनों को इस दिन को 'मानवाधिकार दिवस'  के रूप में मनाने की अधिसूचना जारी की . 
         अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार दिवस  लोगों को उनके अधिकारों के प्रति जागरूक करने के उद्देश्य से मनाया जाता है. मानवाधिकार में स्वास्थ्य, आर्थिक सामाजिक, और शिक्षा का अधिकार भी शामिल है. मानवाधिकार वे मूलभूत नैसर्गिक अधिकार हैं जिनसे मनुष्य को नस्ल, जाति, राष्ट्रीयता, धर्म, लिंग आदि के आधार पर वंचित या प्रताड़ित नहीं किया जा सकता. संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने कहा है- " मानवाधिकार शांतिपूर्ण, न्यायपूर्ण और समावेशी समाजों की नींव हैं ."  
         मानवाधिकार दिवस 2024  की थीम हैं, " हमारे अधिकार, हमारा भविष्य, अभी ( Our Rights, Our Future,Right now) '
         भारत में मानवाधिकार कानून  'मानवाधिकारों की सार्वजनिक घोषणा' 1948 के 45 वर्षों बाद   28 सितंबर 1993 में अस्तित्व में आया. जिसके बाद सरकार ने 12 अक्टूबर 1993 को 'राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग' का गठन किया. मानवाधिकार आयोग राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक कार्यक्षेत्रों में भी काम करता है. जैसे मज़दूरी, HIV एड्स, हेल्थ, बाल विवाह, महिला अधिकार. मानवाधिकार आयोग का काम ज्यादा से ज्यादा लोगों को उनके अधिकारों के प्रति जागरूक करना है. लेकिन भारत में भी साम्प्रदायिकता, क्षेत्रीय असंतुलन जनित संघर्षों और महिलाओं तथा वंचितों के उत्पीड़न की घटनाओं से मानवाधिकारों की स्थिति  चिंतनीय बनी हुई  है.
         आज का वैश्विक परिदृश्य भी मानवाधिकारों का उपहास उड़ाता दृष्टिगोचर हो रहा है.  द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद हुई भीषण जनहानि ने लोकतांत्रिक विश्व का पथ प्रशस्त किया था. मानवाधिकारों की अवधारणा का प्रतिपादन लोकतांत्रिक विश्व में मानव व्यक्तित्व की गरिमा को स्थापित करने  के उद्देश्य से किया गया था. पर  महाशक्तियों की महत्वाकांक्षाओं और निहित स्वार्थों से उपजी प्रतियोगिता ने  विश्व शांति को एक स्वप्न बना दिया. विश्व के अनेक क्षेत्रों में सशत्र संघर्षों ने महाशक्तियों को हस्तक्षेप का अवसर दिया और स्थिति अत्यंत जटिल होती जा रही है. विकास शील देशों में  भी मानवाधिकारों की स्थिति अधिक शोचनीय है.
            वर्तमान में रूस- यूक्रेन युद्ध, इजरायल- हमास, हिजबुल्लाह युद्ध से तृतीय विश्वयुद्ध की आहट आने लगी है.  युद्धों में मानवाधिकारों का व्यापक स्तर पर हनन हो रहा है जिसे रोकने में संयुक्त राष्ट्र संघ भी अप्रासंगिक प्रतीत हो रहा है.   यह स्थिति अत्यंत शर्मनाक एवं चिंतनीय है. सभी देशों  को  गंभीरता से इस समस्या के समाधान के प्रयास खोजने चाहिये.

Monday, January 22, 2024

भारतीय स्वाधीनता संघर्ष के प्रमुख नायक नेता जी सुभाष चंद्र बोस


        आज भारत के स्वाधीनता संग्राम के  सशस्त्र संघर्ष के माध्यम से ब्रिटिश सत्ता को उखाड़ने का एक संगठित प्रयास करने वाले प्रमुख नायक सुभाष चंद्र बोस  की जयंती है।वे उन भारतीय क्रांतिकारियों में से थे, जिन्होंने सक्रिय रूप से विश्व बड़ी शक्तियों के साथ  गठबंधन का प्रयास किया और ब्रिटिश सत्ता का प्रतिरोध  करने के लिए एक भारतीय राष्ट्रीय सैनिक संगठन 'आज़ाद हिंद फौज'  का नेतृत्व किया जिसमें ब्रिटिश साम्राज्यवाद का मुकाबला करने के लिए हिंदू और मुस्लिम  एकजुट होकर उनके पीछे लामबंद हो गये।
           वे  कांग्रेस के युवा नेता थे। संवैधानिक सुधारों के बजाय समाजवादी सुधारों की ओर बोस के झुकाव ने उन्हें कांग्रेस के राजनेताओं के बीच लोकप्रिय बना दिया था। 1939 तक कांग्रेस में उनका एक प्रमुख स्थान था। उन्होंने कांग्रेस के अध्यक्ष (त्रिपुरी सत्र) के पद से इस्तीफा देने के बाद अपनी पार्टी (फॉरवर्ड ब्लॉक) बनाई। 
         उड़ीसा में एक धनी बंगाली परिवार में जन्मे सुभाष चंद्र बोस प्रारंभ से ही अत्यंत मेधावी थे। वे भारतीय सिविल सेवा में भी चयनित  हुये  जिससे उन्होंने 1921 में त्यागपत्र दे दिया और गाँधीजी  के नेतृत्व में नेहरू के साथ राष्ट्रीय आंदोलन में भाग लिया।  पर गाँधी जी के शांतिपूर्ण और समझौतावादी रवैये की तुलना में उनकी राजनीतिक सोच अधिक उग्रवादी और क्रांतिकारी थीं। 
        1941 में, उन्होंने हिटलर से मुलाकात की और भारतीय सशस्त्र बलों को जर्मनी की सहायता के लिए अनुरोध किया। 
उन्होंने आज़ाद हिंद रेडियो शुरू कर दिया था और जर्मनी से भारतीय युद्धबंदियों (POW) को सुरक्षित लाने में  सफल हुये। 1941-42 में जापानी सेनाओं ने प्रीतम सिंह के नेतृत्व में प्रवासी भारतीयों को अपना समर्थन दिया था। जून 1942 में कैप्टन मोहन सिंह और दक्षिण पूर्व एशिया के कुछ अन्य युद्धबंदियों के नेतृत्व में 'इंडियन इंडिपेंडेंस लीग' की एक सेना का गठन किया गया। 
        रासबिहारी बोस के कहने पर सुभाष चंद्र बोस ने 1943 में भारतीय राष्ट्रीय सेना का (INA) का नेतृत्व ग्रहण किया जिसे  'आज़ाद हिंद फ़ौज' के नाम से जाना जाता है। इस संगठन की गतिविधियों और किसी भी मूल्य पर भारत को स्वाधीन कराने की बोस के संकल्प ने उन्हें  और भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का एक महान नायक बना दिया था। बोस और 'आज़ाद हिंद फौज'  तत्समय युवाओं के लिए प्रेरणा के स्रोत थे उनके नेतृत्व कौशल और प्रेरक भाषणों ने देशवासियों  के हृदय  और मस्तिष्क  पर अमिट प्रभाव छोड़ा । 
         ब्रिटिश सत्ता के प्रतिरोध में सुभाष चंद्र बोस के संघर्षों ने उन्हें बर्लिन में 'नेताजी' की उपाधि दिलाई थी। उनके सर्वोत्तम प्रयासों के  बाद भी द्वितीय विश्व युद्ध में जापान और जर्मनी जैसी शक्तियों के साथ-साथ सामरिक सैन्य विफलताओं से वे सफल नहीं हो सके लेकिन उनके विचारों और प्रयासों ने भारतीय स्वाधीनता की नींव तैयार कर दी। भारत के इस महानायक को कोटि कोटि नमन। 
                                🙏🙏🙏

Friday, September 15, 2023

अंतर्राष्ट्रीय लोकतंत्र दिवस

      आज  अंतर्राष्ट्रीय लोकतंत्र दिवस(International day of democracy) है।  यह दिवस एक वैश्विक पालन ही है जो मौलिक मानव अधिकार, सुशासन एवं शांति  की आधारशिला के रूप में लोकतंत्र के महत्व को रेखांकित करता है।
      इस दिवस के अस्तित्व का श्रेय 'लोकतंत्र पर सार्वभौमिक  घोषणा' (Universal Declaration of Democracy) को जाता है जिसे 15 सितंबर 1997 को अंतर्- संसदीय संघ (IPU) द्वारा स्वीकार किया गया था जो कि एक अंतर्राष्ट्रीय संगठन है जिसमें विभिन्न देसों की संसदों के प्रतिनिधि होते हैं। 
       8 नवंबर 2007  को IPU के सुझाव पर संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा ने सर्वसम्मति से 'अंतर्राष्ट्रीय लोकतंत्र दिवस'  15 सितंबर को मनाने का प्रस्ताव पारित किया गया jजिसका शीर्षक था- " नये अथवा वर्तमान लोकतंत्रों को बढ़ावा देने और समेकित करने  के लिये सरकारों के प्रयासों  का संयुक्त राष्ट्र प्रणाली द्वारा समर्थन।"
       सर्वप्रथम  2008 में  'अंतर्राष्ट्रीय लोकतंत्र  दिवस' को मनाया गया और तबसे  यह दिवस लोकतांत्रिक मूल्यों और सिद्धांतों के प्रति प्रतिबद्धता की पुष्टि करने का एक वार्षिक अवसर बन गया। 
       अंतर्राष्ट्रीय लोकतंत्र दिवस 2023 की थीम है  "Empowering the next generation"।  यह दिवस  मात्र औपचरिकता नहीं बल्कि एक आव्हान है  जो मानवाधिकारों की रक्षा, नागरिक जुड़ाव को बढ़ावा देने और दुनिया भर में शांति और स्थिरता सुनिश्चित करने में लोकतंत्र के महत्व को रेखांकित करता है। यह प्रत्येक लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिये आत्म- मूल्यांकन का भी दिवस है। 

Saturday, August 13, 2022

कट्टरता (असहिष्णुता) का प्रतिकार लोकतंत्र को बनाये रखने की अनिवार्य शर्त


            गत  12  अगस्त को अमेरिका के  न्यूयॉर्क शहर के चौटाउक्वा संस्थान में अपना संबोधन शुरू करने से ठीक पहले  भारतीय मूल के प्रसिद्ध ब्रिटिश लेखक (साहित्यकार) सलमान रुश्दी पर जो क़ातिलाना हमला हुआ, वह असहिष्णुता के नग्न प्रदर्शन का एक भयावह उदाहरण है. सभागार में  हजारों श्रोताओं की उपस्थिति में मंच पर चढ़कर श्री रुश्दी पर  एक युवा आतंकवादी द्वाराचाकू से हमला किया गया  जिसमें वे बुरी तरह घायल हो गये और जीवन -मृत्यु के बीच झूल रहे हैं.
          विचारों का प्रतिवाद विचार और तर्क-वितर्क से करने के स्थान पर हिंसा और ख़ून-खराबे से करना कट्टरपंथी ताक़तों की पुरानी फ़ितरत रही है.
         सलमान रुश्दी का पूरा नाम सर अहमद सलमान रुश्दी हैं और उनका जन्म 19 जून 1947 को बॉम्बे में हुआ था। वह एक ब्रिटिश भारतीय उपन्यासकार हैं. वह एक शिक्षित परिवार से थे.उनके पिता अनीस अहमद रुश्दी , कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के वकील थे और उनकी मां नेगिन भट्ट एक शिक्षिका थीं. वह मुंबई में 'कैथेड्रल' और 'जॉन कॉनन स्कूल' और इंग्लैंड में 'रग्बी ' स्कूल गए। उनका कॉलेज 'किंग्स कॉलेज' था और  'कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय ' से उन्होंने ग्रेजुयेशन किया.
          बचपन से ही  रश्दी में लेखक बनने की इच्छा थी जिसे उन्होंने अपनी प्रतिभा से साकार किया. वे एक विश्व प्रसिद्ध  साहित्यकार  (उपन्यासकार  एवं कहानीकार) के रूप में जाने जाते हैं. उन्होंने अनेक  पुस्तकें लिखीं जिन्हें विश्वव्यापी प्रसिद्धि मिली. 
         रुश्दी की पहली पुस्तक 'ग्रिमस' थी जो 1975 में प्रकाशित हुई थी. यह एक अमर अमेरिकी मूल-निवासी ईगल की कहानी थी, जो जीवन के सही अर्थों का पता लगाने के लिए एक अभियान पर जाता है.इस बीच रुश्दी अभी भी एक स्वतंत्र विज्ञापन लेखक के रूप में काम कर रहे थे, उनकी दूसरी पुस्तक  'मिडनाइट चिल्ड्रन' 1981 में प्रकाशित हुई जिसे उन्होंने पाँच वर्षों में पूरा किया.
        उनकी  अगली पुस्तक 'द सैटेनिक वर्सेज' 1988  में आई जिस पर विवाद छिड़ गया. इस पुस्तक में   कुछ कुरान की आयतों को संदर्भित किया गया था जो  पैगंबर के जीवन में एक ऐसे समय के बारे में थे जो मुसलमानों के लिए अपमानजनक था.इससे मुस्लिम जगत में आक्रोश फैल गया और  ईरान के सर्वोच्च नेता अयातुल्ला रहोला खुमैनी ने रुश्दी के लिए 'फतवा' जारी कर 'मौत की सजा' का ऐलान कर दिया.
          इसके बाद रुश्दी  के जीवन में उथल- पुथल मच गई  .सारे विश्व में इस पुस्तक और रश्दी की निंदा की गई. भारत में भी इस पुस्तक पर प्रतिबंध लगा दिया गयात. ऐसे कई लोगों की इस्लामी कट्टरपंथियों द्वारा हत्या कर दी  गई.लोग सार्वजनिक रूप से रुश्दी का पक्ष लेने की बात करते थे, उनकी हत्या कर दी गई. रश्दी भूमिगत हो गये. ब्रिटिश सरकार ने उन्हें कड़ी सुरक्षा प्रदान की.  अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का पैरोकार करने वाला विश्व का एक बड़ा वर्ग एवं कई देश  रश्दी को समर्थन देते रहे.
          1990 में रुश्दी का एक और उपन्यास 'हारून एंड द सी ऑफ स्टोरीज' जारी किया गया. उनकी पुस्तक 'द मूर्स लास्ट सीघ'  हिंदूवादियों के बीच आलोचना का पात्र बनी. 
           रश्दी की  रचनाएँ  अधिकतर भारतीय उपमहाद्वीप पर केंद्रित हैं और उनमें  पूर्व और पश्चिम की ओर पलायन और उनके बीच होने वाली घटनाओं जैसे विषय शामिल हैं.
           रश्दी को अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया गया. उनकी पुस्तक 'द मिडनाइट्स चिल्ड्रन' को 'बुकर प्राइज' मिला.अंग्रेजी साहित्य में उनके अपार योगदान के कारण उन्हें 2007 में क्वीन एलिजाबेथ द्वारा नाइट बैचलर नियुक्त किया गया था. वह फ्रांस के 'ऑर्ड्रे डेस आर्ट एट डेस लेट्रेस' में 'कमांडर' हैं. रुश्दी 'द टाइम्स' की '1945 के बाद से 50 महानतम ब्रिटिश लेखकों' की सूची में 13वें  नम्बर पर  हैं. रुश्दी के नवीनतम उपन्यास को 'लुका एंड द फायर ऑफ लाइफ'  2010 में प्रकाशित हुआ था.उनके द्वारा लिखी गई अन्य पुस्तकों में 'फ्यूरी' (2001), 'शालीमार एंड द क्लाउन' (2005) और 'द एनचैंट्रेस ऑफ फ्लोरेंस' (2008) शामिल हैं.
            सलमान रुश्दी इस्लामी कट्टरपंथियों के निशाने पर सदैव रहे.  उन पर  हुए हमले से एक बात संदेह से परे है कि यह वैचारिक भिन्नता का सम्मान करने, यहां तक कि उसे सहन करने में असमर्थ कट्टरपंथ का ही कारनामा है।
           पूरे विश्व में, सभी समुदायों के भीतर इस तरह का कट्टरपंथ इन दिनों अभूतपूर्व उभार पर है। यह बेहद गम्भीर और चिंताजनक स्थिति है  और लोकतंत्र के लिये बेहद खतरनाक है. आज इस बात का संकल्प लेना लोकतंत्र के विकास और बेहतरी के लिये बहुत जरूरी है कि ऐसी विध्वंसकारी प्रवृत्तियों के विरुद्ध सभी लोकतांत्रिक सरकारें एवं वर्ग एकजुट  होकर प्रभावी कदम उठायें. ऐसे नकारात्मक व घृणित कार्यों के प्रतिकार के लिए तैयार होने की आज बहुत  आवश्यकता है.
         लोकतंत्र में आस्था रखने वाले प्रत्येक व्यक्ति को सलमान रुश्दी पर हुए इस हमले की कठोर भर्त्सना  करनी चाहिये.

Sunday, August 1, 2021

सही अर्थों में आधुनिक भारत के निर्माता थे लोकमान्य तिलक


        आज  "स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है...." के महान नारे का उदघोष करने वाले, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महानायक लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक की पुण्यतिथि है.
        तिलक को आधुनिक भारत का निर्माता कहा जा  सकता है. उन्होंने स्वाधीनता संघर्ष के साथ साथ लोगों में जागरूकता लाने और उनके विकास के लिए शिक्षा पर बहुत बल दिया था.
         स्वाधीनता संघर्ष में  कांग्रेस में  'लाल-बाल-पाल ' का एक यादगार युग रहा है .  तिलक इस त्रिवेणी के एक प्रमुख सदस्य थे. 'केसरी  एवं 'मराठा' समाचार पत्रों के माध्यम से उन्होंने जन जागरूकता का महान कार्य किया.
उनका सार्वजनिक जीवन 1880 में एक शिक्षक के रूप में आरम्भ हुआ.
          तत्कालीन भारत के उस समय के वाइसरॉय लॉर्ड कर्ज़न ने जब सन 1905 में बंगाल का विभाजन का निर्णय लिया, तो बंगाल में इस विभाजन को रद्द कराने के लिये आंदोलन शुरू हो गया. तिलक 'बंग भंग' का मुखर विरोध किया और ब्रिटिश वस्तुओं के बहिष्कार की अपील की और यह आंदोलनएक देशव्यापी आंदोलन बन गया.
         भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नरम पंथी गुट से तिलक सहमत नहीं थे. तिलक के विचार उग्र थे. ननरपंथी छोटे सुधारों के लिए सरकार के पास वफ़ादार प्रतिनिधिमंडल भेजने में विश्वास रखते थे जबकि  तिलक का लक्ष्य स्वराज्य था, छोटे- मोटे सुधार नहीं और उन्होंने कांग्रेस को अपने उग्र विचारों को स्वीकार करने के लिए राज़ी करने का प्रयास किया. इस मामले पर 1907  में कांग्रेस के सूरत अधिवेशन में नरम दल के साथ उनका घोर वादविवाद हुआ. इस अधिवेशन में कांग्रेस 'गरम दल' और 'नरम दल' में विभाजित हो गई. गरम दल में तिलक के साथ लाला लाजपत राय और बिपिन चन्द्र पाल शामिल थे. ये तीनों को ' लाल-बाल-पाल ' के नाम से इतिहास में प्रसिद्ध हैं.
         1908 में तिलक ने क्रांतिकारी प्रफुल्ल चाकी और खुदीराम बोस के बम हमले का समर्थन किया जिसके कारण सरकार ने उन पर राजद्रोह का आरोप लगाकर मुकदमा चलाया. तिलक का मुकदमा मुहम्मद अली जिन्ना ने लड़ा. परंतु तिलक को 6 वर्ष कैद की सजा सुना दी गई और  मांडले (तत्कालीन बर्मा ,वर्तमान म्यांमार) भेज दिया गया. जेल से छूटकर वे फिर कांग्रेस में शामिल हो गए और 1916-18 में ऐनी बेसेंट और मुहम्मद अली जिन्ना के साथ उन्होंने 'अखिल भारतीय होम रुल लीग' की स्थापना की. तिलक का स्पष्ट मत था -"स्वराज हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूंगा."
1916 में मुहम्मद अली जिन्ना के साथ उन्होंने 'लखनऊ समझौता' किया, जिसमें स्वातंत्र्य संघर्ष में हिन्दू- मुस्लिम एकता का प्राविधान था.
         तिलक 'बाल विवाह' के विरुद्ध थे उन्होंने अपने कई भाषणों में इस सामाजिक कुप्रथा का विरोध किया. वह एक अच्छे लेखक भी थे. उनका  जेल में लिखा 'गीता रहस्य''  गीता पर एक अत्यंत उत्कृष्ट भाष्य है  . मराठी में 'केसरी' और अंग्रेज़ी में 'द मराठा' समाचार पत्रों के माध्यम से  अपने लेखों से लोगों की राजनीतिक चेतना की अलख  जगाने का कार्य किया .
         तिलक ने बंबई में अकाल और पुणे में प्लेग की  महामारी के समय इसके विरुद्ध संघर्ष में सक्रिय भूमिका निभाई जिसकी वजह से लोगों के हृदय में उन्होंने एक अविस्मरणीय स्थान बना लिया था.
         1 अगस्त, 1920 को मुंबई में लोकमान्य तिलक का निधन हो गया. उन्हें श्रद्धांजलि व्यक्त करते हुये गाँधी जी ने उन्हें 'आधुनिक भारत का निर्माता ' बताया. पं जवाहर लाल नेहरू ने उन्हें ' भारतीय क्रांति के जनक' कहा. तिलक सही अर्थो में आधुनिक भारत की नींव रखने वाले पुरोधा थे.
         पुण्यतिथि पर उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि.
                        🙏🙏🙏
           
        
           



Saturday, July 24, 2021

हमारी संस्कृति का एक गौरवपूर्ण अध्याय है 'गुरु परंपरा'

हमारे देश में आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा को 'गुरु पूर्णिमा ' के पर्व के रूप में मनाया जाता है. इस दिन महर्षि वेदव्यास का जन्म भी हुआ था, इसलिए इसे 'व्यास पूर्णिमा' भी कहते हैं.
         सामान्यतः हम लोग शिक्षा प्रदान करने वाले को ही गुरु समझते हैं, लेकिन वास्तव में ज्ञान देने वाला शिक्षक बहुत आंशिक अर्थों में गुरु होता है. जन्म जन्मान्तर के संस्कारों से मुक्त करा जो व्यक्ति या सत्ता ईश्वर तक पहुंचा सकती हो. ऐसी सत्ता ही गुरु हो सकती है.
           हमारे समाज ने प्रारंभ से ही गुरु की महत्ता को स्वीकारा है।'गुरु बिन ज्ञान न होहि' का सत्य भारतीय समाज का मूलमंत्र रहा है।माता बालक की प्रथम गुरु होती है,क्यों की बालक उसी से सर्वप्रथम सीखता है l 
           भारतीय धर्म , साहित्य और संस्कृति में अनेक ऐसे दृष्टांत भरे पड़े हैं , जिनसे गुरु का महत्त्व प्रकट होता है। यहां तक 'वशिष्ठ' को गुरु रूप में पाकर श्रीराम ने ,'अष्टावक्र 'को पाकर जनक ने और सांदीपनि 'को पाकर श्रीकृष्ण - बलराम ने अपने आपको बड़भागी माना l
          अनेक शास्त्रों में गुरु की महत्ता का वर्णन करते हुए संत कबीर ने लिखा-
          "गुरु गोविन्द   दोऊ खड़े, काके लागूं पांय।
            बलिहारी गुरू अपने गोविन्द दियो बताय।।"
       ' गुरुगीता 'में गुरु महिमा का वर्णन इस प्रकार मिलता है
           "गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः ,गुरुर्देवो   महेश्वरः।
            गुरुर्साक्षात परंब्रह्म ,तस्मै श्रीगुरवे नमः।।"
(अर्थात्, गुरु ही ब्रह्मा है, गुरु ही विष्णु है और गुरु ही भगवान शंकर है। गुरु ही साक्षात परब्रह्म है। ऐसे गुरु को मैं प्रणाम करता हूँ।) 
           तुलसीदास जी भी गुरु को भगवान से भी श्रेष्ठ मानते है। वे ' रामचरितमानस' में लिखते हैं-
        "गुरु बिनु भवनिधि तरइ न कोई।
         जों  बिरंचि   संकर    सम  होई।।"
(अर्थात्, भले ही कोई ब्रह्मा, शंकर के समान क्यों न हो, वह गुरु के बिना भव सागर पार नहीं कर सकता।) 
         "बंदउँ गुरुपद कंज, कृपासिंधु   नररूप   हरि।
          महामोह तम पुंज, जासु बचन रबिकर निकर।।"
(अर्थात्, गुरु मनुष्य रूप में नारायण ही हैं। मैं उनके चरण कमलों की वन्दना करता हूँ। जैसे सूर्य के निकलने पर अन्धेरा नष्ट हो जाता है, वैसे ही उनके वचनों से मोहरूपी अन्धकार का नाश हो जाता है।) 
            भगवान श्रीकृष्ण ने 'गीता' में अपने सखा अर्जुन को समझाते हुए कहते हैं
         "सर्वधर्मान्परित्यज्य   मामेकं  शरणं       व्रज।
          अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यिा माम शुचः ।।"
(अर्थात् सभी साधनों को छोड़कर केवल नारायण स्वरूप गुरु की शरणगत हो जाना चाहिए। वे उसके सभी पापों का नाश कर देंगे। शोक नहीं करना चाहिए।) 
           'वाल्मीकि रामायण' में भी कहा गया है -
         "स्वर्गो धनं वा धान्यं वा विद्या पुत्राः सुखानि च ।
          गुरु वृत्युनुरोधेन   न   किंचितदपि     दुर्लभम् ।।"
(अर्थात्    गुरुजनों   की     सेवा       करने     से स्वर्ग,धन-धान्य,विद्या,पुत्र,सुख आदि कुछ भी दुर्लभ नहीं है।) 
           बदलते सामाजिक परिवेश में यद्यपि 'गुरु शिष्य परंपरा अपना प्राचीन गौरव खो बैठी है, पर प्राचीन आदर्श  आज  भी हमारे संस्कारों में है l  आज भी अपने शिक्षक के प्रति सम्मान का भाव हमारे मन में रहता है।
           कुछ अति बुद्धिजीवी हर प्राचीन परंपरा में मीन मेख निकालना अपनी शान समझते हैं ले  उन्हें एकमात्र एकलव्य एवं द्रोणाचार्य का दृष्टांत याद रहता है, वशिष्ठ, सांदीपनि जैसे  दृष्टांत याद नहीं रहते ल यह नकारात्मकता उचित नहीं है l
           हमारी संस्कृति का एक गौरवपूर्ण अध्याय है l

Saturday, June 19, 2021

अलविदा मिल्खा सिंह जी

            भारत के महान धावक एवं एथलेटिक्स में देश का गौरव बढ़ाने वाले पद्मश्री मिल्खा सिंह जी का गत दिवस (शुक्रवार )को निधन 91 वर्ष कीआयु में निधन हो गया. वे कोरोना संक्रमण से ग्रसित थे.
            मिल्खा सिंह जी का जन्म 20 नवंबर 1929 को अविभाजित भारत के गोविंदपुरा में  एक किसान परिवार में हुआ था. वे अपने माता पिता की  15 संतानों में से एक थे. विभाजन की त्रासदी  के दौरान उनके माता-पिता  एवं आठ भाई-बहन मारे गए. इस  भयावह हादसे  के बाद मिल्खा सिंह पाकिस्तान से ट्रेन की महिला बोगी में छिपकर किसी तरह दिल्ली पहुंचे.
           मिल्खा सिंह जी ने देश के  विभाजन के बाद दिल्ली के शरणार्थी शिविरों में अपने दुखदायी दिनों को याद करते हुए एक बार कहा था, '"जब पेट खाली हो तो देश के बारे में कोई कैसे सोच सकता है? जब मुझे रोटी मिली तो मैंने देश के बारे में सोचना शुरू किया." इन विषम परिस्थितियों से उत्पन्न आक्रोश ने उन्हें आखिरकार असाधारण लक्ष्य तक  पहुॅंचा दिया. उन्होंने कहा था, 'जब आपके माता-पिता को आपकी आंखों के सामने मार दिया गया हो तो क्या आप कभी भूल पाएंगे... कभी नहीं.'
             मिल्खा सिंह 'फ्लाइंग सिख' के नाम से जाने जाते थे.  2016 में 'इंडिया टुडे' को दिए इंटरव्यू में उन्होंने इसके पीछे की घटना बतायी ," 1960 में उनको पाकिस्तान की "इंटरनेशनल एथलीट प्रतियोगिता' में भाग लेने का आमंत्रण मिला था. पर देश के विभाजन की त्रासदी के अपने दुःखद अनुभव को  भुला नहीं पा रहे थे, और पाकिस्तान नहीं जाना चाहते थे. भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को जब यह बात पता चली तो उन्होंने मिल्खा सिंह को समझाया.  तब वे पाकिस्तान जाने के लिए राजी हुए.
             पाकिस्तान में उस समय अब्दुल खालिक की तूती बोलती  थी जो वहाँ  के वह सबसे तेज धावक थे. प्रतियोगिता के दौरान लगभग 60000 पाकिस्तानी फैन्स अब्दुल खालिक का जोश बढ़ा रहे थे, लेकिन मिल्खा सिंह की रफ्तार के सामने खालिक टिक नहीं पाए थे.  
              इस जीत के बाद पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति फील्ड मार्शल अयूब खान ने उन्हें 'फ्लाइंग सिख' का नाम  से संबोधित किया और वे इस नाम से जाने जाने लग."
               मिल्खा सिंह चार बार  एशियाई खेलों के स्वर्ण पदक विजेता रहे. उन्होंने 1958 के  'कामनवैल्थ गेम्स' में भी स्वर्ण पदक प्राप्त किया था.  1959 में उन्हें खेलों में योगदान के लिये देश के महान सम्मान 'पद्मश्री' से सम्मानित किया गया. उन्होंने 1956, 1960   एवं1964  के ओलंपिक में भारत का प्रतिनिधित्व किया था. यद्यपि उनका सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन  1960 के 'रोम ओलंपिक' में था, जिसमें वे 400 मीटर फाइनल में चौथे स्थान पर रहे थे.
            'राष्ट्रमंडलीय  और एशियाई खेलों' के स्वर्ण पदक विजेता मिल्खा सिंह के नाम 400 मीटर का राष्ट्रीय रिकॉर्ड 38 साल तक रहा.
             मिल्खा सिंह जी के महाप्रयाण के साथ एथलीट के एक युग का अवसान हो गया. वे ऐसे व्यक्तित्व थे जिनका देशवासियों जिनका  के ह्रदय में विशेष सम्मान था.  देश के ऐसे महान रत्न को विनम्र श्रद्धांजलि.
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