tag:blogger.com,1999:blog-11688517293225923622024-03-05T02:56:01.709-08:00Pearls of ThoughtsThoughts are the reflection of human feelings. As a sensitive and vigilant human being and citizen many things leave impact on our mind and the reaction reflects in the form of the thoughts followed by activities.In a democratic country like India where Constitution provides us 'freedom of expression' our constructive thoughts can serve society and humanity a lot.Thoughts are the pearls of the "sea of human thinking".Dr.Aditya Kumarhttp://www.blogger.com/profile/01722871928993772254noreply@blogger.comBlogger150125tag:blogger.com,1999:blog-1168851729322592362.post-13842980053504649802024-01-22T22:13:00.001-08:002024-01-22T22:13:13.194-08:00भारतीय स्वाधीनता संघर्ष के प्रमुख नायक नेता जी सुभाष चंद्र बोस<div><br></div><div> आज भारत के स्वाधीनता संग्राम के सशस्त्र संघर्ष के माध्यम से ब्रिटिश सत्ता को उखाड़ने का एक संगठित प्रयास करने वाले प्रमुख नायक सुभाष चंद्र बोस की जयंती है।वे उन भारतीय क्रांतिकारियों में से थे, जिन्होंने सक्रिय रूप से विश्व बड़ी शक्तियों के साथ गठबंधन का प्रयास किया और ब्रिटिश सत्ता का प्रतिरोध करने के लिए एक भारतीय राष्ट्रीय सैनिक संगठन 'आज़ाद हिंद फौज' का नेतृत्व किया जिसमें ब्रिटिश साम्राज्यवाद का मुकाबला करने के लिए हिंदू और मुस्लिम एकजुट होकर उनके पीछे लामबंद हो गये।</div><div> वे कांग्रेस के युवा नेता थे। संवैधानिक सुधारों के बजाय समाजवादी सुधारों की ओर बोस के झुकाव ने उन्हें कांग्रेस के राजनेताओं के बीच लोकप्रिय बना दिया था। 1939 तक कांग्रेस में उनका एक प्रमुख स्थान था। उन्होंने कांग्रेस के अध्यक्ष (त्रिपुरी सत्र) के पद से इस्तीफा देने के बाद अपनी पार्टी (फॉरवर्ड ब्लॉक) बनाई। </div><div> उड़ीसा में एक धनी बंगाली परिवार में जन्मे सुभाष चंद्र बोस प्रारंभ से ही अत्यंत मेधावी थे। वे भारतीय सिविल सेवा में भी चयनित हुये जिससे उन्होंने 1921 में त्यागपत्र दे दिया और गाँधीजी के नेतृत्व में नेहरू के साथ राष्ट्रीय आंदोलन में भाग लिया। पर गाँधी जी के शांतिपूर्ण और समझौतावादी रवैये की तुलना में उनकी राजनीतिक सोच अधिक उग्रवादी और क्रांतिकारी थीं। </div><div> 1941 में, उन्होंने हिटलर से मुलाकात की और भारतीय सशस्त्र बलों को जर्मनी की सहायता के लिए अनुरोध किया। </div><div>उन्होंने आज़ाद हिंद रेडियो शुरू कर दिया था और जर्मनी से भारतीय युद्धबंदियों (POW) को सुरक्षित लाने में सफल हुये। 1941-42 में जापानी सेनाओं ने प्रीतम सिंह के नेतृत्व में प्रवासी भारतीयों को अपना समर्थन दिया था। जून 1942 में कैप्टन मोहन सिंह और दक्षिण पूर्व एशिया के कुछ अन्य युद्धबंदियों के नेतृत्व में 'इंडियन इंडिपेंडेंस लीग' की एक सेना का गठन किया गया। </div><div> रासबिहारी बोस के कहने पर सुभाष चंद्र बोस ने 1943 में भारतीय राष्ट्रीय सेना का (INA) का नेतृत्व ग्रहण किया जिसे 'आज़ाद हिंद फ़ौज' के नाम से जाना जाता है। इस संगठन की गतिविधियों और किसी भी मूल्य पर भारत को स्वाधीन कराने की बोस के संकल्प ने उन्हें और भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का एक महान नायक बना दिया था। बोस और 'आज़ाद हिंद फौज' तत्समय युवाओं के लिए प्रेरणा के स्रोत थे उनके नेतृत्व कौशल और प्रेरक भाषणों ने देशवासियों के हृदय और मस्तिष्क पर अमिट प्रभाव छोड़ा । </div><div> ब्रिटिश सत्ता के प्रतिरोध में सुभाष चंद्र बोस के संघर्षों ने उन्हें बर्लिन में 'नेताजी' की उपाधि दिलाई थी। उनके सर्वोत्तम प्रयासों के बाद भी द्वितीय विश्व युद्ध में जापान और जर्मनी जैसी शक्तियों के साथ-साथ सामरिक सैन्य विफलताओं से वे सफल नहीं हो सके लेकिन उनके विचारों और प्रयासों ने भारतीय स्वाधीनता की नींव तैयार कर दी। भारत के इस महानायक को कोटि कोटि नमन। </div><div> 🙏🙏🙏</div>Dr.Aditya Kumarhttp://www.blogger.com/profile/01722871928993772254noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1168851729322592362.post-51634837338047347252023-09-15T09:15:00.001-07:002023-09-15T09:15:17.663-07:00अंतर्राष्ट्रीय लोकतंत्र दिवस<div> आज अंतर्राष्ट्रीय लोकतंत्र दिवस(International day of democracy) है। यह दिवस एक वैश्विक पालन ही है जो मौलिक मानव अधिकार, सुशासन एवं शांति की आधारशिला के रूप में लोकतंत्र के महत्व को रेखांकित करता है।<br></div><div> इस दिवस के अस्तित्व का श्रेय 'लोकतंत्र पर सार्वभौमिक घोषणा' (Universal Declaration of Democracy) को जाता है जिसे 15 सितंबर 1997 को अंतर्- संसदीय संघ (IPU) द्वारा स्वीकार किया गया था जो कि एक अंतर्राष्ट्रीय संगठन है जिसमें विभिन्न देसों की संसदों के प्रतिनिधि होते हैं। </div><div> 8 नवंबर 2007 को IPU के सुझाव पर संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा ने सर्वसम्मति से 'अंतर्राष्ट्रीय लोकतंत्र दिवस' 15 सितंबर को मनाने का प्रस्ताव पारित किया गया jजिसका शीर्षक था- " नये अथवा वर्तमान लोकतंत्रों को बढ़ावा देने और समेकित करने के लिये सरकारों के प्रयासों का संयुक्त राष्ट्र प्रणाली द्वारा समर्थन।"</div><div> सर्वप्रथम 2008 में 'अंतर्राष्ट्रीय लोकतंत्र दिवस' को मनाया गया और तबसे यह दिवस लोकतांत्रिक मूल्यों और सिद्धांतों के प्रति प्रतिबद्धता की पुष्टि करने का एक वार्षिक अवसर बन गया। </div><div> अंतर्राष्ट्रीय लोकतंत्र दिवस 2023 की थीम है "Empowering the next generation"। यह दिवस मात्र औपचरिकता नहीं बल्कि एक आव्हान है जो मानवाधिकारों की रक्षा, नागरिक जुड़ाव को बढ़ावा देने और दुनिया भर में शांति और स्थिरता सुनिश्चित करने में लोकतंत्र के महत्व को रेखांकित करता है। यह प्रत्येक लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिये आत्म- मूल्यांकन का भी दिवस है। </div><div><br></div>Dr.Aditya Kumarhttp://www.blogger.com/profile/01722871928993772254noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1168851729322592362.post-50600890235339570002022-08-13T11:20:00.001-07:002022-08-13T11:20:43.432-07:00कट्टरता (असहिष्णुता) का प्रतिकार लोकतंत्र को बनाये रखने की अनिवार्य शर्त<div><br></div><div> गत 12 अगस्त को अमेरिका के न्यूयॉर्क शहर के चौटाउक्वा संस्थान में अपना संबोधन शुरू करने से ठीक पहले भारतीय मूल के प्रसिद्ध ब्रिटिश लेखक (साहित्यकार) सलमान रुश्दी पर जो क़ातिलाना हमला हुआ, वह असहिष्णुता के नग्न प्रदर्शन का एक भयावह उदाहरण है. सभागार में हजारों श्रोताओं की उपस्थिति में मंच पर चढ़कर श्री रुश्दी पर एक युवा आतंकवादी द्वाराचाकू से हमला किया गया जिसमें वे बुरी तरह घायल हो गये और जीवन -मृत्यु के बीच झूल रहे हैं.</div><div> विचारों का प्रतिवाद विचार और तर्क-वितर्क से करने के स्थान पर हिंसा और ख़ून-खराबे से करना कट्टरपंथी ताक़तों की पुरानी फ़ितरत रही है.</div><div> सलमान रुश्दी का पूरा नाम सर अहमद सलमान रुश्दी हैं और उनका जन्म 19 जून 1947 को बॉम्बे में हुआ था। वह एक ब्रिटिश भारतीय उपन्यासकार हैं. वह एक शिक्षित परिवार से थे.उनके पिता अनीस अहमद रुश्दी , कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के वकील थे और उनकी मां नेगिन भट्ट एक शिक्षिका थीं. वह मुंबई में 'कैथेड्रल' और 'जॉन कॉनन स्कूल' और इंग्लैंड में 'रग्बी ' स्कूल गए। उनका कॉलेज 'किंग्स कॉलेज' था और 'कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय ' से उन्होंने ग्रेजुयेशन किया.</div><div> बचपन से ही रश्दी में लेखक बनने की इच्छा थी जिसे उन्होंने अपनी प्रतिभा से साकार किया. वे एक विश्व प्रसिद्ध साहित्यकार (उपन्यासकार एवं कहानीकार) के रूप में जाने जाते हैं. उन्होंने अनेक पुस्तकें लिखीं जिन्हें विश्वव्यापी प्रसिद्धि मिली. </div><div> रुश्दी की पहली पुस्तक 'ग्रिमस' थी जो 1975 में प्रकाशित हुई थी. यह एक अमर अमेरिकी मूल-निवासी ईगल की कहानी थी, जो जीवन के सही अर्थों का पता लगाने के लिए एक अभियान पर जाता है.इस बीच रुश्दी अभी भी एक स्वतंत्र विज्ञापन लेखक के रूप में काम कर रहे थे, उनकी दूसरी पुस्तक 'मिडनाइट चिल्ड्रन' 1981 में प्रकाशित हुई जिसे उन्होंने पाँच वर्षों में पूरा किया.</div><div> उनकी अगली पुस्तक 'द सैटेनिक वर्सेज' 1988 में आई जिस पर विवाद छिड़ गया. इस पुस्तक में कुछ कुरान की आयतों को संदर्भित किया गया था जो पैगंबर के जीवन में एक ऐसे समय के बारे में थे जो मुसलमानों के लिए अपमानजनक था.इससे मुस्लिम जगत में आक्रोश फैल गया और ईरान के सर्वोच्च नेता अयातुल्ला रहोला खुमैनी ने रुश्दी के लिए 'फतवा' जारी कर 'मौत की सजा' का ऐलान कर दिया.</div><div> इसके बाद रुश्दी के जीवन में उथल- पुथल मच गई .सारे विश्व में इस पुस्तक और रश्दी की निंदा की गई. भारत में भी इस पुस्तक पर प्रतिबंध लगा दिया गयात. ऐसे कई लोगों की इस्लामी कट्टरपंथियों द्वारा हत्या कर दी गई.लोग सार्वजनिक रूप से रुश्दी का पक्ष लेने की बात करते थे, उनकी हत्या कर दी गई. रश्दी भूमिगत हो गये. ब्रिटिश सरकार ने उन्हें कड़ी सुरक्षा प्रदान की. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का पैरोकार करने वाला विश्व का एक बड़ा वर्ग एवं कई देश रश्दी को समर्थन देते रहे.</div><div> 1990 में रुश्दी का एक और उपन्यास 'हारून एंड द सी ऑफ स्टोरीज' जारी किया गया. उनकी पुस्तक 'द मूर्स लास्ट सीघ' हिंदूवादियों के बीच आलोचना का पात्र बनी. </div><div> रश्दी की रचनाएँ अधिकतर भारतीय उपमहाद्वीप पर केंद्रित हैं और उनमें पूर्व और पश्चिम की ओर पलायन और उनके बीच होने वाली घटनाओं जैसे विषय शामिल हैं.</div><div> रश्दी को अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया गया. उनकी पुस्तक 'द मिडनाइट्स चिल्ड्रन' को 'बुकर प्राइज' मिला.अंग्रेजी साहित्य में उनके अपार योगदान के कारण उन्हें 2007 में क्वीन एलिजाबेथ द्वारा नाइट बैचलर नियुक्त किया गया था. वह फ्रांस के 'ऑर्ड्रे डेस आर्ट एट डेस लेट्रेस' में 'कमांडर' हैं. रुश्दी 'द टाइम्स' की '1945 के बाद से 50 महानतम ब्रिटिश लेखकों' की सूची में 13वें नम्बर पर हैं. रुश्दी के नवीनतम उपन्यास को 'लुका एंड द फायर ऑफ लाइफ' 2010 में प्रकाशित हुआ था.उनके द्वारा लिखी गई अन्य पुस्तकों में 'फ्यूरी' (2001), 'शालीमार एंड द क्लाउन' (2005) और 'द एनचैंट्रेस ऑफ फ्लोरेंस' (2008) शामिल हैं.</div><div> सलमान रुश्दी इस्लामी कट्टरपंथियों के निशाने पर सदैव रहे. उन पर हुए हमले से एक बात संदेह से परे है कि यह वैचारिक भिन्नता का सम्मान करने, यहां तक कि उसे सहन करने में असमर्थ कट्टरपंथ का ही कारनामा है।</div><div> पूरे विश्व में, सभी समुदायों के भीतर इस तरह का कट्टरपंथ इन दिनों अभूतपूर्व उभार पर है। यह बेहद गम्भीर और चिंताजनक स्थिति है और लोकतंत्र के लिये बेहद खतरनाक है. आज इस बात का संकल्प लेना लोकतंत्र के विकास और बेहतरी के लिये बहुत जरूरी है कि ऐसी विध्वंसकारी प्रवृत्तियों के विरुद्ध सभी लोकतांत्रिक सरकारें एवं वर्ग एकजुट होकर प्रभावी कदम उठायें. ऐसे नकारात्मक व घृणित कार्यों के प्रतिकार के लिए तैयार होने की आज बहुत आवश्यकता है.</div><div> लोकतंत्र में आस्था रखने वाले प्रत्येक व्यक्ति को सलमान रुश्दी पर हुए इस हमले की कठोर भर्त्सना करनी चाहिये.</div>Dr.Aditya Kumarhttp://www.blogger.com/profile/01722871928993772254noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1168851729322592362.post-31723587061576877042021-08-01T03:39:00.001-07:002021-08-01T03:39:49.006-07:00सही अर्थों में आधुनिक भारत के निर्माता थे लोकमान्य तिलक <p dir="ltr"><br> आज "स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है...." के महान नारे का उदघोष करने वाले, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महानायक लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक की पुण्यतिथि है. <br>
तिलक को आधुनिक भारत का निर्माता कहा जा सकता है. उन्होंने स्वाधीनता संघर्ष के साथ साथ लोगों में जागरूकता लाने और उनके विकास के लिए शिक्षा पर बहुत बल दिया था.<br>
स्वाधीनता संघर्ष में कांग्रेस में 'लाल-बाल-पाल ' का एक यादगार युग रहा है . तिलक इस त्रिवेणी के एक प्रमुख सदस्य थे. 'केसरी एवं 'मराठा' समाचार पत्रों के माध्यम से उन्होंने जन जागरूकता का महान कार्य किया.<br>
उनका सार्वजनिक जीवन 1880 में एक शिक्षक के रूप में आरम्भ हुआ. <br>
तत्कालीन भारत के उस समय के वाइसरॉय लॉर्ड कर्ज़न ने जब सन 1905 में बंगाल का विभाजन का निर्णय लिया, तो बंगाल में इस विभाजन को रद्द कराने के लिये आंदोलन शुरू हो गया. तिलक 'बंग भंग' का मुखर विरोध किया और ब्रिटिश वस्तुओं के बहिष्कार की अपील की और यह आंदोलनएक देशव्यापी आंदोलन बन गया.<br>
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नरम पंथी गुट से तिलक सहमत नहीं थे. तिलक के विचार उग्र थे. ननरपंथी छोटे सुधारों के लिए सरकार के पास वफ़ादार प्रतिनिधिमंडल भेजने में विश्वास रखते थे जबकि तिलक का लक्ष्य स्वराज्य था, छोटे- मोटे सुधार नहीं और उन्होंने कांग्रेस को अपने उग्र विचारों को स्वीकार करने के लिए राज़ी करने का प्रयास किया. इस मामले पर 1907 में कांग्रेस के सूरत अधिवेशन में नरम दल के साथ उनका घोर वादविवाद हुआ. इस अधिवेशन में कांग्रेस 'गरम दल' और 'नरम दल' में विभाजित हो गई. गरम दल में तिलक के साथ लाला लाजपत राय और बिपिन चन्द्र पाल शामिल थे. ये तीनों को ' लाल-बाल-पाल ' के नाम से इतिहास में प्रसिद्ध हैं.<br>
1908 में तिलक ने क्रांतिकारी प्रफुल्ल चाकी और खुदीराम बोस के बम हमले का समर्थन किया जिसके कारण सरकार ने उन पर राजद्रोह का आरोप लगाकर मुकदमा चलाया. तिलक का मुकदमा मुहम्मद अली जिन्ना ने लड़ा. परंतु तिलक को 6 वर्ष कैद की सजा सुना दी गई और मांडले (तत्कालीन बर्मा ,वर्तमान म्यांमार) भेज दिया गया. जेल से छूटकर वे फिर कांग्रेस में शामिल हो गए और 1916-18 में ऐनी बेसेंट और मुहम्मद अली जिन्ना के साथ उन्होंने 'अखिल भारतीय होम रुल लीग' की स्थापना की. तिलक का स्पष्ट मत था -"स्वराज हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूंगा." <br>
1916 में मुहम्मद अली जिन्ना के साथ उन्होंने 'लखनऊ समझौता' किया, जिसमें स्वातंत्र्य संघर्ष में हिन्दू- मुस्लिम एकता का प्राविधान था.<br>
तिलक 'बाल विवाह' के विरुद्ध थे उन्होंने अपने कई भाषणों में इस सामाजिक कुप्रथा का विरोध किया. वह एक अच्छे लेखक भी थे. उनका जेल में लिखा 'गीता रहस्य'' गीता पर एक अत्यंत उत्कृष्ट भाष्य है . मराठी में 'केसरी' और अंग्रेज़ी में 'द मराठा' समाचार पत्रों के माध्यम से अपने लेखों से लोगों की राजनीतिक चेतना की अलख जगाने का कार्य किया . <br>
तिलक ने बंबई में अकाल और पुणे में प्लेग की महामारी के समय इसके विरुद्ध संघर्ष में सक्रिय भूमिका निभाई जिसकी वजह से लोगों के हृदय में उन्होंने एक अविस्मरणीय स्थान बना लिया था.<br>
1 अगस्त, 1920 को मुंबई में लोकमान्य तिलक का निधन हो गया. उन्हें श्रद्धांजलि व्यक्त करते हुये गाँधी जी ने उन्हें 'आधुनिक भारत का निर्माता ' बताया. पं जवाहर लाल नेहरू ने उन्हें ' भारतीय क्रांति के जनक' कहा. तिलक सही अर्थो में आधुनिक भारत की नींव रखने वाले पुरोधा थे.<br>
पुण्यतिथि पर उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि.<br>
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<br><br><br><br></p>Dr.Aditya Kumarhttp://www.blogger.com/profile/01722871928993772254noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1168851729322592362.post-50538906868765480772021-07-24T09:19:00.001-07:002021-07-24T09:19:50.956-07:00हमारी संस्कृति का एक गौरवपूर्ण अध्याय है 'गुरु परंपरा'<div>हमारे देश में आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा को 'गुरु पूर्णिमा ' के पर्व के रूप में मनाया जाता है. इस दिन महर्षि वेदव्यास का जन्म भी हुआ था, इसलिए इसे 'व्यास पूर्णिमा' भी कहते हैं.</div><div> सामान्यतः हम लोग शिक्षा प्रदान करने वाले को ही गुरु समझते हैं, लेकिन वास्तव में ज्ञान देने वाला शिक्षक बहुत आंशिक अर्थों में गुरु होता है. जन्म जन्मान्तर के संस्कारों से मुक्त करा जो व्यक्ति या सत्ता ईश्वर तक पहुंचा सकती हो. ऐसी सत्ता ही गुरु हो सकती है.</div><div> हमारे समाज ने प्रारंभ से ही गुरु की महत्ता को स्वीकारा है।'गुरु बिन ज्ञान न होहि' का सत्य भारतीय समाज का मूलमंत्र रहा है।माता बालक की प्रथम गुरु होती है,क्यों की बालक उसी से सर्वप्रथम सीखता है l </div><div> भारतीय धर्म , साहित्य और संस्कृति में अनेक ऐसे दृष्टांत भरे पड़े हैं , जिनसे गुरु का महत्त्व प्रकट होता है। यहां तक 'वशिष्ठ' को गुरु रूप में पाकर श्रीराम ने ,'अष्टावक्र 'को पाकर जनक ने और सांदीपनि 'को पाकर श्रीकृष्ण - बलराम ने अपने आपको बड़भागी माना l</div><div> अनेक शास्त्रों में गुरु की महत्ता का वर्णन करते हुए संत कबीर ने लिखा-</div><div> "गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूं पांय।</div><div> बलिहारी गुरू अपने गोविन्द दियो बताय।।"</div><div> ' गुरुगीता 'में गुरु महिमा का वर्णन इस प्रकार मिलता है</div><div> "गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः ,गुरुर्देवो महेश्वरः।</div><div> गुरुर्साक्षात परंब्रह्म ,तस्मै श्रीगुरवे नमः।।"</div><div>(अर्थात्, गुरु ही ब्रह्मा है, गुरु ही विष्णु है और गुरु ही भगवान शंकर है। गुरु ही साक्षात परब्रह्म है। ऐसे गुरु को मैं प्रणाम करता हूँ।) </div><div> तुलसीदास जी भी गुरु को भगवान से भी श्रेष्ठ मानते है। वे ' रामचरितमानस' में लिखते हैं-</div><div> "गुरु बिनु भवनिधि तरइ न कोई।</div><div> जों बिरंचि संकर सम होई।।"</div><div>(अर्थात्, भले ही कोई ब्रह्मा, शंकर के समान क्यों न हो, वह गुरु के बिना भव सागर पार नहीं कर सकता।) </div><div> "बंदउँ गुरुपद कंज, कृपासिंधु नररूप हरि।</div><div> महामोह तम पुंज, जासु बचन रबिकर निकर।।"</div><div>(अर्थात्, गुरु मनुष्य रूप में नारायण ही हैं। मैं उनके चरण कमलों की वन्दना करता हूँ। जैसे सूर्य के निकलने पर अन्धेरा नष्ट हो जाता है, वैसे ही उनके वचनों से मोहरूपी अन्धकार का नाश हो जाता है।) </div><div> भगवान श्रीकृष्ण ने 'गीता' में अपने सखा अर्जुन को समझाते हुए कहते हैं</div><div> "सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।</div><div> अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यिा माम शुचः ।।"</div><div>(अर्थात् सभी साधनों को छोड़कर केवल नारायण स्वरूप गुरु की शरणगत हो जाना चाहिए। वे उसके सभी पापों का नाश कर देंगे। शोक नहीं करना चाहिए।) </div><div> 'वाल्मीकि रामायण' में भी कहा गया है -</div><div> "स्वर्गो धनं वा धान्यं वा विद्या पुत्राः सुखानि च ।</div><div> गुरु वृत्युनुरोधेन न किंचितदपि दुर्लभम् ।।"</div><div>(अर्थात् गुरुजनों की सेवा करने से स्वर्ग,धन-धान्य,विद्या,पुत्र,सुख आदि कुछ भी दुर्लभ नहीं है।) </div><div> बदलते सामाजिक परिवेश में यद्यपि 'गुरु शिष्य परंपरा अपना प्राचीन गौरव खो बैठी है, पर प्राचीन आदर्श आज भी हमारे संस्कारों में है l आज भी अपने शिक्षक के प्रति सम्मान का भाव हमारे मन में रहता है।</div><div> कुछ अति बुद्धिजीवी हर प्राचीन परंपरा में मीन मेख निकालना अपनी शान समझते हैं ले उन्हें एकमात्र एकलव्य एवं द्रोणाचार्य का दृष्टांत याद रहता है, वशिष्ठ, सांदीपनि जैसे दृष्टांत याद नहीं रहते ल यह नकारात्मकता उचित नहीं है l</div><div> हमारी संस्कृति का एक गौरवपूर्ण अध्याय है l</div>Dr.Aditya Kumarhttp://www.blogger.com/profile/01722871928993772254noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1168851729322592362.post-50433843423884869542021-06-19T08:22:00.001-07:002021-06-19T08:22:59.151-07:00अलविदा मिल्खा सिंह जी<p dir="ltr"> भारत के महान धावक एवं एथलेटिक्स में देश का गौरव बढ़ाने वाले पद्मश्री मिल्खा सिंह जी का गत दिवस (शुक्रवार )को निधन 91 वर्ष कीआयु में निधन हो गया. वे कोरोना संक्रमण से ग्रसित थे.<br>
मिल्खा सिंह जी का जन्म 20 नवंबर 1929 को अविभाजित भारत के गोविंदपुरा में एक किसान परिवार में हुआ था. वे अपने माता पिता की 15 संतानों में से एक थे. विभाजन की त्रासदी के दौरान उनके माता-पिता एवं आठ भाई-बहन मारे गए. इस भयावह हादसे के बाद मिल्खा सिंह पाकिस्तान से ट्रेन की महिला बोगी में छिपकर किसी तरह दिल्ली पहुंचे.<br>
मिल्खा सिंह जी ने देश के विभाजन के बाद दिल्ली के शरणार्थी शिविरों में अपने दुखदायी दिनों को याद करते हुए एक बार कहा था, '"जब पेट खाली हो तो देश के बारे में कोई कैसे सोच सकता है? जब मुझे रोटी मिली तो मैंने देश के बारे में सोचना शुरू किया." इन विषम परिस्थितियों से उत्पन्न आक्रोश ने उन्हें आखिरकार असाधारण लक्ष्य तक पहुॅंचा दिया. उन्होंने कहा था, 'जब आपके माता-पिता को आपकी आंखों के सामने मार दिया गया हो तो क्या आप कभी भूल पाएंगे... कभी नहीं.'<br>
मिल्खा सिंह 'फ्लाइंग सिख' के नाम से जाने जाते थे. 2016 में 'इंडिया टुडे' को दिए इंटरव्यू में उन्होंने इसके पीछे की घटना बतायी ," 1960 में उनको पाकिस्तान की "इंटरनेशनल एथलीट प्रतियोगिता' में भाग लेने का आमंत्रण मिला था. पर देश के विभाजन की त्रासदी के अपने दुःखद अनुभव को भुला नहीं पा रहे थे, और पाकिस्तान नहीं जाना चाहते थे. भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को जब यह बात पता चली तो उन्होंने मिल्खा सिंह को समझाया. तब वे पाकिस्तान जाने के लिए राजी हुए.<br>
पाकिस्तान में उस समय अब्दुल खालिक की तूती बोलती थी जो वहाँ के वह सबसे तेज धावक थे. प्रतियोगिता के दौरान लगभग 60000 पाकिस्तानी फैन्स अब्दुल खालिक का जोश बढ़ा रहे थे, लेकिन मिल्खा सिंह की रफ्तार के सामने खालिक टिक नहीं पाए थे. <br>
इस जीत के बाद पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति फील्ड मार्शल अयूब खान ने उन्हें 'फ्लाइंग सिख' का नाम से संबोधित किया और वे इस नाम से जाने जाने लग."<br>
मिल्खा सिंह चार बार एशियाई खेलों के स्वर्ण पदक विजेता रहे. उन्होंने 1958 के 'कामनवैल्थ गेम्स' में भी स्वर्ण पदक प्राप्त किया था. 1959 में उन्हें खेलों में योगदान के लिये देश के महान सम्मान 'पद्मश्री' से सम्मानित किया गया. उन्होंने 1956, 1960 एवं1964 के ओलंपिक में भारत का प्रतिनिधित्व किया था. यद्यपि उनका सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन 1960 के 'रोम ओलंपिक' में था, जिसमें वे 400 मीटर फाइनल में चौथे स्थान पर रहे थे.<br>
'राष्ट्रमंडलीय और एशियाई खेलों' के स्वर्ण पदक विजेता मिल्खा सिंह के नाम 400 मीटर का राष्ट्रीय रिकॉर्ड 38 साल तक रहा.<br>
मिल्खा सिंह जी के महाप्रयाण के साथ एथलीट के एक युग का अवसान हो गया. वे ऐसे व्यक्तित्व थे जिनका देशवासियों जिनका के ह्रदय में विशेष सम्मान था. देश के ऐसे महान रत्न को विनम्र श्रद्धांजलि.<br>
🙏🙏🙏<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
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<img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhTQgVnyydbli3qdlFqP2mgfuqyPjdIBDwQLqkcp7GaRmCICn3RacPZSeNguMfnP5wUdq1pBWvf0KEIVimvjoTmjggRSGYrgsFiegrhuyGDSTYAMD81J0HYCmSRF-TbnxgS16iJUMCEk9dr/s1600/1624116173510094-0.png" width="400">
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</div></p>Dr.Aditya Kumarhttp://www.blogger.com/profile/01722871928993772254noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1168851729322592362.post-84890965300578126042021-06-04T22:45:00.001-07:002021-06-04T22:45:26.488-07:00प्रकृति से अनुकूलता के दृढ़ संकल्प की आवश्यकता<div> आज सारे संसार में आज 5 जून को ' विश्व पर्यावरण दिवस ' मनाया जा रहा है। इसे मनाने का उद्देश्य दुनियाँ भर में लोगों को पर्यावरण की सुरक्षा के प्रति जागरूक और सचेत करना है।<br></div><div> इस दिवस को मनाने की शुरुआत 1972 में 'संयुक्त राष्ट्र महासभा' द्वारा आयोजित 'विश्व पर्यावरण सम्मेलन ' में चर्चा के बाद लिये निर्णय के पश्चात् हुई और 5 जून 1973 को प्रथम 'विश्व पर्यावरण दिवस' मनाया गया।</div><div> प्रति वर्ष 'विश्व पर्यावरण दिवस' की एक थीम (theme) रखी जाती है l गत वर्ष (2020 ) की थीम ‘जैव-विविधता’ ( ‘Celebrate Biodiversity’ ) रखी गयी थी जिसके माध्यम से संदेश दिया गया कि 'जैव विविधता संरक्षण एवं प्राकृतिक संतुलन' होना मानव जीवन के अस्तित्व के लिए अति आवश्यक है। </div><div> इस वर्ष 2021 के लिये 'विश्व पर्यावरण दिवस ' की थीम 'पारिस्थितिकी तंत्र की बहाली (Ecosystem Restoration)' रखी गयी है l इसका आशय है कि वनों को नया जीवन देकर, पेड़-पौधे लगाकर, बारिश के पानी को संरक्षित करके और तालाबों का निर्माण करके हम पारिस्थितिकी तंत्र को फिर से बहाल कर सकते हैं l यह निर्विवाद है कि संपूर्ण मानवता का अस्तित्व प्रकृति पर निर्भर है। इसलिए एक स्वस्थ एवं सुरक्षित पर्यावरण के बिना मानव समाज की कल्पना अधूरी है। </div><div> हमारे देश प्राचीन परंपराओं में 'प्रकृति संरक्षण' को विशेष महत्व दिया गया हैl भारत में पेड़-पौधों, नदी-पर्वत, ग्रह-नक्षत्र, अग्नि-वायु सहित प्रकृति के विभिन्न रूपों के साथ मानवीय संबंध स्थापित किये गये हैं। पेड़ की तुलना संतान से की गई है तो नदी को मातृ स्वरूप माना गया है। ग्रह-नक्षत्र, पहाड़ और वायु देवरूप माने गए हैं। भारत के वैज्ञानिक दृष्टि रखने वाले ऋषि-मुनि को प्रकृति संरक्षण और मानव के स्वभाव की गहरी समझ रखते थे। वे जानते थे कि मानव अपने क्षणिक लाभ के लिए कई अवसरों पर गंभीर भूल कर अपनी ही भारी हानि कर सकता है। इसलिए उन्होंने प्रकृति के साथ मानव के संबंध विकसित करने का प्रयास किया। ताकि मनुष्य को प्रकृति को गंभीर क्षति पहुंचाने से रोका जा सके। यही कारण है कि प्राचीन काल से ही भारत में प्रकृति के साथ संतुलन करके चलने का महत्वपूर्ण संस्कार रहा l कवि व साहित्यकार भी इसके प्रति सचेष्ट थे l महात्मा कबीर की निम्नांकित सीख दृष्टव्य है-</div><div> " वृक्ष कबहुँ न फल भखें, नदी न संचै नीर, </div><div> परमारथ के कारने , साधुन धरा शरीर l"</div><div> हमारे ऋषि- मुनि अच्छी तरह जानते थे कि वृक्षों में भी चेतना होती है। इसलिए उन्हें मनुष्य के समतुल्य माना गया है। ऋग्वेद से बृहदारण्यकोपनिषद्, पद्मपुराण और मनुस्मृति सहित अन्य वाङमयों में इसके संदर्भ मिलते हैं। छान्दोग्यउपनिषद् में उद्दालक ऋषि अपने पुत्र श्वेतकेतु से आत्मा का वर्णन करते हुए कहते हैं कि वृक्ष जीवात्मा से ओतप्रोत होते हैं और मनुष्यों की भाँति सुख-दु:ख की अनुभूति करते हैं। एक वृक्ष की मनुष्य के दस पुत्रों से तुलना की गई है l<br></div><div> प्राचीन समय से ही हमारे देश के सामाजिक जीवन में घर-घर में तुलसी का पौधा लगाने की परंपरा हैl तुलसी का पौधा मनुष्य को सबसे अधिक प्राणवायु ऑक्सीजन देता है। तुलसी के पौधे में अनेक औषधीय गुण भी मौजूद हैं। पीपल को देवता मानकर भी उसकी पूजा नियमित इसीलिए की जाती है क्योंकि वह भी अधिक मात्रा में ऑक्सीजन देता है।</div><div> भारतीय लोक जीवन में पर्वों को प्रकृति से जोड़ दिया गया था जैसे- 'वट पूर्णिमा 'और 'आंवला नवमी' का पर्व मनाने का उद्देश्य वटवृक्ष और आंवले के वृक्षों के संरक्षण की चेतना उत्पन्न करना है । मकर संक्रान्ति, वसंत पंचमी, महाशिवरात्रि, होली, नवरात्र, गुड़ी पड़वा, ओणम्, दीपावली, कार्तिक पूर्णिमा, छठ पूजा, शरद पूर्णिमा, अन्नकूट, देव प्रबोधिनी एकादशी, हरियाली तीज, गंगा दशहरा आदि सभी पर्वों में प्रकृति संरक्षण का संदेश छिपा है। विद्या की देवी 'सरस्वती जी' को पीले फूल पसंद हैं। धन-सम्पदा की देवी ' लक्ष्मी जी 'को कमल और गुलाब के फूल से प्रसन्न किया जा सकता है। ' गणेशजी' दूर्वा से प्रसन्न हो जाते हैं। प्रत्येक देवी-देवता भी पशु-पक्षी और पेड़-पौधों से लेकर प्रकृति के विभिन्न अवयवों के संरक्षण का संदेश देते हैं।</div><div> जलस्रोतों के महत्व को भी हमारे यहाँ सदैव से स्वीकार किया गया है। ज्यादातर ग्राम एवं नगर नदियों के किनारे पर बसे हैं। जो ग्राम व नगर नदी किनारे नहीं थे, वहाँ तालाब बनाए जाते थे। बिना नदी या ताल के गांव-नगर के अस्तित्व की कल्पना नहीं है। जल दीर्घायु प्रदायक, कल्याणकारक, सुखमय और प्राणरक्षक होता है। शुद्ध जल के बिना जीवन संभव नहीं है। यही कारण है कि जलस्रोतों को बचाए रखने के लिए हमारे ऋषियों ने इन्हें सम्मान दिया। हमारे यहाँ गंगा सहित सभी जीवनदायनी नदियों को माँ का स्थान दिया गया है।</div><div> पर्यावरण संरक्षण में जीव-जन्तुओं के महत्व को पहचानकर हमारे महर्षियों ने उनकी भी देवरूप में अर्चना की है। मनुष्य और पशु परस्पर एक-दूसरे पर निर्भर हैं। हमारे परिवारों में पहली रोटी गाय के लिए और आखिरी रोटी कुत्ते के लिए निकालने की परंपरा है। लोग चींटियों कोआटा डालते हैं ; चिडिय़ों और कौओं के लिए घर की मुंडेर पर दाना-पानी रखा जाता है। नाग पंचमी पर नाग की पूजा की जाती है l नाग-विष से मनुष्य के लिए प्राणरक्षक औषधियों का निर्माण होता है। नाग पूजन के पीछे का रहस्य ही यह है। </div><div> प्रकृति से खिलवाड़ विनाशकारी होता है, कोरोना संकट ने यह पूर्णतया स्पष्ट कर दिया है l विकास के नाम पर वृक्षों के अंधाधुंध कटान ने प्राकृतिक संतुलन बिगाड़ दिया है l इस संकट में आक्सीजन की कमी से अनेक व्यक्ति काल के गाल में समा गये l अब आक्सीजन देने वाले एव प्रदूषण हरने वाले पेड़ों को लगाने पर जोर दिया जा रहा l मुझे सुकवि जय शंकर प्रसाद जी की निम्नांकित याद आ रहीं हैं-</div><div> "प्रकृति करती अपने अनुकूल, </div><div> हम नही कर सकते प्रतिकूल ;</div><div> हमारा अपना ही दुर्बोध, </div><div> लिया करता हमसे प्रतिशोध."l</div><div> </div><div> आइये! पर्यावरण दिवस पर प्रकृति से अनुकूलता का संकल्प लें l</div>Dr.Aditya Kumarhttp://www.blogger.com/profile/01722871928993772254noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1168851729322592362.post-11111716823397710752021-05-21T22:05:00.001-07:002021-05-21T22:05:49.214-07:00 लेकिन लगते सबसे अच्छे....वे तारे ...जो टूट गये है... <div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj9vcWYASHLWmwWwStEqF4ULxwDxlLxgjGfy2DvLX62dxiuSIUdgIzmqTVgBxaxgqF4RKGwtMzy5p_9fQ83Hv5iq3jmFYuaja9op6O1H9tXEdWzvgPPXOkpTs5Iv5lhUmpng5iNmjiqTa0n/s1600/1621659943558173-0.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</div><br></div><div> याद आती है 22 मई 2002 की वह मनहूस शाम जब मेरे अग्रज एवम् जनपद जालौन के प्रसिद्ध कवि एवम् साहित्यकार सुकवि आदर्श 'प्रहरी' को एकाएक दिल का दौरा पडा और आधे घंटे में ही क्रूर काल ने उन्हें हम से छीन लिया । वे केवल 52 वर्ष के थे। मेरे परिवार के लिये यह वज्रपात ही था ।</div><div> आज उनके महाप्रयाण को 19 वर्ष हो गये.......उनके साथ बीता बचपन , उनका मेरी पढ़ाई में मार्गदर्शन , साथ बैठ कर विभिन्न विषयों पर चर्चा.......उनके साथ कवि गोष्ठियों मे जाना और यह समझना कि कविताओं में जितना आदर्श बघारा जाता है व्यवहार सब कुछ अलग ही होता है .........उनके विवाह की स्मृतियाँ........मधुमेह से जूझते हुये उनका संघर्ष ......सभी कुछ आज चलचित्र की भाँति नेत्रों के सम्मुख आ रहा है।</div><div> ईश्वर की कृपा से आज पारिवारिक समस्यायें काफी हद तक हल हो चुकी है ......परिवार बढ़ गया है.... तीन - तीन दामाद एवं दो- दो बहुयें परिवार में आ चुकीं हैं .....भाई साहब की तीनों बेटियाँ अच्छी शिक्षा पाकर अपनी-अपनी ससुराल में सुखपूर्वक जीवन व्यतीत कर रहीं हैं और पुत्रवती हैं.......नाती,पोते जब भी आते हैं, सारे घर को गुंजित कर देते हैं......पर उनकी कमी आज भी महसूस होती है।</div><div> आज बुन्देलखण्ड के सुप्रसिद्ध कवि ' मंजुल मयंक' के गीत की पंक्तियाँ याद आ रही है-</div><div><br></div><div> " प्यारे लगते चाँद ,सितारे, अच्छे लगते हैं ये सारे ,</div><div> लेकिन लगते सबसे अच्छे,वे तारे जो टूट गये है ।"</div><div> </div><div> सुकवि आदर्श प्रहरी जनपद के काव्य जगत के सशक्त हस्ताक्षर थे।उनके गुरु स्व.डा . राम स्वरुप खरे ने उनकी काव्य प्रतिभा को निखारने में महत्वपूर्ण योगदान दिया था. उन्हें अपने अन्य गुरुओं डा. बी. बी. लाल, डा. राम शंकर द्विवेदी, डा. दुर्गा प्रसाद खरे एवं डा. यामिनी श्रीवास्तव का अमूल्य मार्गदर्शन मिला.</div><div> प्रहरी जी ने अनेक गीत व मुक्तक लिखे. वे अपने कवि मित्रों के बीच 'मुक्तक सम्राट ' कहे जाते थे। उनके सौ गीतों संग्रह ' प्यास लगी तो दर्द पिया है ' प्रकाशित हो चुका है । उनके कुछ अविस्मरणीय मुक्तक निम्नांकित हैं-</div><div><br></div><div> "बिना तपे तुम कैसे कंचन?</div><div> नागपाश बिन कैसे चंदन? </div><div> विषपायी जब तक न बनोगे, </div><div> तब तक कौन करे अभिनंदन."</div><div> </div><div> "दृष्टिकोणों की बात होती है, </div><div> पथ के मोड़ों की बात होती है, </div><div> जो भी संघर्ष में विहँसते हैं, </div><div> उनकी करोड़ो में बात होती है."</div><div> </div><div> आज कोरोना की विभीषिका से सारा देश त्रस्त है. ऐसे समय में प्रहरी जी की एक रचना याद आती है -</div><div> </div><div> समझौतों का नाम जिंदगी.</div><div><br></div><div> बाहर- बाहर सूर्योदय सी, </div><div> भीतर- भीतर शाम जिंदगी.</div><div> </div><div> जीवन के प्रस्तुत करती है, </div><div> नित्य नये आयाम जिंदगी.</div><div> </div><div> कभी रश्मि-रेखा सी उज्ज्वल, </div><div> कभी घटा सी श्याम जिंदगी.</div><div> </div><div> घुटने लगती साँस दु:खों से, </div><div> लगता प्राणायाम जिंदगी.</div><div><br></div><div> समझौतों का नाम जिंदगी.</div><div><br></div><div> </div><div> अंत में मै उन्हीं की पंक्तियों से उनको श्रद्धांजलि व्यक्त करता हूँ-</div><div><br></div><div> " गीत में जो दर्द गाते हैं , उन्हें मेरा नमन है, </div><div> दर्द में जो मुस्कुराते हैं, उन्हें मेरा नमन है, </div><div> जो व्यथाओं में ,कथाओं की नई नित सृष्टि करते, </div><div> मान्यताओं को बनाते हैं, उन्हें मेरा नमन है." </div><div><br></div><div> 🙏🙏🙏</div>Dr.Aditya Kumarhttp://www.blogger.com/profile/01722871928993772254noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1168851729322592362.post-65651351101346286472021-03-20T10:21:00.001-07:002021-03-20T10:21:02.538-07:00आइये! गौरैया की प्रजाति के संरक्षण का संकल्प लें। <div> आज विश्व गौरैया दिवस है। इसे 2010 से प्रतिवर्ष सारे विश्वभर में मनाया जाता है । आज गौरैया विलुप्ति के कगार पर है। गौरैया अधिकतर केवल पुस्तकों, कविताओं में ही दिखाई देती है है। गांवों में यदि कभी कोई गौरैया दिख जाए तो बच्चे झूम उठते हैं। <br></div><div> गौरैया के संरक्षण की चेतना जगाने के लिए प्रतिवर्ष 20 मार्च को 'विश्व गौरैया दिवस ' मनाया जाता है।</div><div> गौरैया का वैज्ञानिक नाम 'पासर डोमेस्टिकस' है। यह पासेराडेई परिवार का हिस्सा है। विश्व के विभिन्न देशों में गौरैया पाई जाती है। यह बहुत प्यारी पर बहुत छोटी (लगभग 15 सेंटीमीटर) होती है। शहरों की तुलना में गांवों में यह अधिक पाई जाती है। इसका अधिकतम वजन 32 ग्राम तक होता है। यह कीड़े और अनाज खाकर अपना पेट भरती है। </div><div> 'विश्व गौरैया दिवस ' मनाने की शुरुआत भारत के नासिक में रहने वाले मोहम्मद दिलावर के प्रयत्नों से हुई। उनके द्वारा गौरैया संरक्षण के लिए 'नेचर फॉर सोसाइटी' (Nature for Society) नामक एक संस्था शुरू की गई थी। पहली बार विश्व गौरैया दिवस 2010 में मनाया गया था। अब प्रतिवर्ष 20 मार्च को सारे विश्व में 'गौरैया दिवस' मनाया जाता है। </div><div> विश्व गौरैया दिवस 2021 की थीम(Theme) ‘आई लव स्पैरो’ (I love sparrow) रखी गयी है जिसका अर्थ है कि मुझे गौरैया से प्रेम है। इस थीम को रखने के पीछे मनुष्य एवं पक्षी के बीच के संबंध की सुदृढ़ करना है। </div><div> ब्रिटेन की 'रॉयल सोसाइटी ऑफ बर्डस '(Royal Society of Birds) द्वारा विश्व के विभिन्न देशों में किये अनुसंधान के आधार पर भारत सहित कई देशों में गौरैया को रेड लिस्ट (Red list) कर दिया गया है जिसका अर्थ है कि यह पक्षी अब पूर्ण रूप से विलुप्ति की कगार पर है।</div><div> इस दिन सरकारी स्तर पर तथा पर्यावरण एवं पक्षी प्रेमी व्यक्ति एवं संस्थाओं द्वारा अनेक कार्यक्रम एवं प्रतियोगितायें आयोजित की जातीं हैं जो गौरैया के चित्रों , उससे संबंधित कविताओं एवं कहानियों से संबंधित होतीं हैं। पर्यावरण एवं गौरैया संरक्षण के क्षेत्र में योगदान देने वाले व्यक्तियों एवं संस्थाओं को इस दिन पुरस्कृत भी किया जाता है। </div><div> गौरैया संरक्षण के लिए हम व्यक्तिगत स्तर पर प्रयास कर सकते हैं। हमें अपने घरों की छतों अथवा लॉन में पर पक्षियों के लिये दाना-पानी रखना चाहिए, अधिक से अधिक पेड़- पौधे लगाना चाहिये एवं उनके लिए कृत्रिम घोंसलों का निर्माण करना चाहिये।<br></div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
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</div><br></div>Dr.Aditya Kumarhttp://www.blogger.com/profile/01722871928993772254noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1168851729322592362.post-59049815334596478302021-02-04T03:38:00.001-08:002021-02-04T03:38:29.590-08:00'चौरा- चोरी' कांड के शहीदों को शत् शत् नमन<div><br></div><div> राष्ट्रीय आंदोलन में 'चौरा चौरी' कांड का बड़ा महत्व है। महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन के मध्य 4 फरवरी 1922 को कुछ लोगों की क्रोधित भीड़ ने गोरखपुर के चौरी-चौरा के पुलिस थाने में आग लगा दी थी. इसमें 23 पुलिस वाले मारे गये थे। इस घटना में तीन नागरिकों की भी मौत हो गई थी। इससे पहले यह खबर फैलने पर कि चौरी-चौरा पुलिस स्टेशन के थानेदार ने मुंडेरा बाज़ार में कुछ कांग्रेस कार्यकर्ताओं को मारा है, गुस्साई भीड़ पुलिस स्टेशन के बाहर जमा हो गयी। </div><div> इस हिंसक घटना के पश्चात महात्मा गांधी ने 12 फरवरी 1922 को असहयोग आंदोलन वापस ले लिया था ।महात्मा गांधी के इस फैसले को लेकर क्रांतिकारियों का एक दल नाराज़ हो गया था। 16 फरवरी 1922 को गांधीजी ने अपने लेख 'चौरी चौरा का अपराध' में लिखा कि अगर ये आंदोलन वापस नहीं लिया जाता तो दूसरी जगहों पर भी ऐसी घटनाएँ होतीं। </div><div> उन्होंने इस घटना के लिए एक तरफ जहाँ पुलिस वालों को ज़िम्मेदार ठहराया क्योंकि उनके उकसाने पर ही भीड़ ने ऐसा कदम उठाया था तो दूसरी तरफ घटना में शामिल तमाम लोगों को अपने आपको पुलिस के हवाले करने को कहा क्योंकि उन्होंने अपराध किया था। </div><div> इस घटना के संदर्भ में गांधीजी पर राजद्रोह का मुकदमा भी चला था और उन्हें मार्च 1922 में गिरफ़्तार कर लिया गया था। </div><div> असहयोग आंदोलन का प्रस्ताव कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में 4 सितंबर 1920 को पारित हुआ था । गांधीजी का मत था कि अगर असहयोग के सिद्धांतों का सही ढँग से पालन किया गया तो एक वर्ष के अंदर ही अंग्रेज़ भारत छोड़कर चले जाएंगे। इस आंदोलन के अंतर्गत उन्होंने उन सभी वस्तुओं, संस्थाओं और व्यवस्थाओं का बहिष्कार करने का फैसला किया था जिसके तहत अंग्रेज़ भारतीयों पर शासन कर रहे थे। उन्होंने विदेशी वस्तुओं, अंग्रेज़ी क़ानून, शिक्षा और प्रतिनिधि सभाओं के बहिष्कार की बात कही ।खिलाफत आंदोलन के साथ मिलकर असहयोग आंदोलन बहुत हद तक सफल भी रहा था.</div><div> गोरखपुर ज़िले के लोगों ने 1971 में 'चौरी-चौरा शहीद स्मारक समिति' का गठन किया ।इस समिति ने 1973 में चौरी-चौरा में 12.2 मीटर ऊंचा एक मीनार बनाई. इसके दोनों तरफ एक शहीद को फांसी से लटकते हुए दिखाया गया था । इसे लोगों के स्वैच्छिक सहयोग से बनाया गया था। बाद में भारत सरकार ने शहीदों की याद में एक अलग 'शहीद स्मारक' बनवाया ।इसे ही हम आज मुख्य शहीद स्मारक के तौर पर जानते हैं। इस पर 'चौरी- चौरा कांड' में हुये शहीदों के नाम खुदवा कर दर्ज किए गये हैं। </div><div> भारतीय रेलवे ने भी दो ट्रेन चौरी-चौरा कांड के शहीदों के नाम से चलायीं हैं। इन ट्रेनों के नाम हैं शहीद एक्सप्रेस और चौरी-चौरा एक्सप्रेस। </div><div> चौरी-चौरा दो अलग-अलग गांवों के नाम थे। रेलवे के एक ट्रैफिक मैनेजर ने इन गांवों का नाम एक साथ किया था ।उन्होंने जनवरी 1885 में यहाँ एक रेलवे स्टेशन की स्थापना की थी ।इसलिए प्रारंभ में केवल रेलवे प्लेटफॉर्म और मालगोदाम का नाम ही चौरी-चौरा था।बाद में जब बाज़ार शुरू हुए, वे चौरा गांव में लगने शुरू हुए । जिस थाने को 4 फरवरी 1922 को जलाया गया था, वो भी चौरा में ही था ।इस थाने की स्थापना 1857 की क्रांति के बाद हुई थी. यह एक तीसरे दर्जे का थाना था.</div><div> 'चौरी-चौरा' की घटना को आज 99 वर्ष पूरे हो रहे हैं।यह वर्ष इस घटना का शताब्दी वर्ष है। इस अवसर पर आयोजित समारोह का वर्चुअल उदघाटन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आज (4 फरवरी ) ने किया है। उत्तर प्रदेश सरकार चौरी-चौरा की घटना पर 'शताब्दी समारोह' का आयोजन कर रही है। </div><div> 'चौरा - चौरा' कांड के शहीदों को शत् शत् नमन। </div><div> </div>Dr.Aditya Kumarhttp://www.blogger.com/profile/01722871928993772254noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1168851729322592362.post-91825109828744274572021-02-04T03:31:00.001-08:002021-02-04T03:31:08.847-08:00'चौरा - चौरी कांड' का शताब्दी वर्ष<div><br></div><div>' चौरी-चौरा कांड' का शताब्दी वर्ष</div><div>-----------------------------------------</div><div> राष्ट्रीय आंदोलन में 'चौरा चौरी' कांड का बड़ा महत्व है। महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन के मध्य 4 फरवरी 1922 को कुछ लोगों की क्रोधित भीड़ ने गोरखपुर के चौरी-चौरा के पुलिस थाने में आग लगा दी थी. इसमें 23 पुलिस वाले मारे गये थे। इस घटना में तीन नागरिकों की भी मौत हो गई थी। इससे पहले यह खबर फैलने पर कि चौरी-चौरा पुलिस स्टेशन के थानेदार ने मुंडेरा बाज़ार में कुछ कांग्रेस कार्यकर्ताओं को मारा है, गुस्साई भीड़ पुलिस स्टेशन के बाहर जमा हो गयी। </div><div> इस हिंसक घटना के पश्चात महात्मा गांधी ने 12 फरवरी 1922 को असहयोग आंदोलन वापस ले लिया था ।महात्मा गांधी के इस फैसले को लेकर क्रांतिकारियों का एक दल नाराज़ हो गया था। 16 फरवरी 1922 को गांधीजी ने अपने लेख 'चौरी चौरा का अपराध' में लिखा कि अगर ये आंदोलन वापस नहीं लिया जाता तो दूसरी जगहों पर भी ऐसी घटनाएँ होतीं। </div><div> उन्होंने इस घटना के लिए एक तरफ जहाँ पुलिस वालों को ज़िम्मेदार ठहराया क्योंकि उनके उकसाने पर ही भीड़ ने ऐसा कदम उठाया था तो दूसरी तरफ घटना में शामिल तमाम लोगों को अपने आपको पुलिस के हवाले करने को कहा क्योंकि उन्होंने अपराध किया था। </div><div> इस घटना के संदर्भ में गांधीजी पर राजद्रोह का मुकदमा भी चला था और उन्हें मार्च 1922 में गिरफ़्तार कर लिया गया था। </div><div> असहयोग आंदोलन का प्रस्ताव कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में 4 सितंबर 1920 को पारित हुआ था । गांधीजी का मत था कि अगर असहयोग के सिद्धांतों का सही ढँग से पालन किया गया तो एक वर्ष के अंदर ही अंग्रेज़ भारत छोड़कर चले जाएंगे। इस आंदोलन के अंतर्गत उन्होंने उन सभी वस्तुओं, संस्थाओं और व्यवस्थाओं का बहिष्कार करने का फैसला किया था जिसके तहत अंग्रेज़ भारतीयों पर शासन कर रहे थे। उन्होंने विदेशी वस्तुओं, अंग्रेज़ी क़ानून, शिक्षा और प्रतिनिधि सभाओं के बहिष्कार की बात कही ।खिलाफत आंदोलन के साथ मिलकर असहयोग आंदोलन बहुत हद तक सफल भी रहा था.</div><div> गोरखपुर ज़िले के लोगों ने 1971 में 'चौरी-चौरा शहीद स्मारक समिति' का गठन किया ।इस समिति ने 1973 में चौरी-चौरा में 12.2 मीटर ऊंचा एक मीनार बनाई. इसके दोनों तरफ एक शहीद को फांसी से लटकते हुए दिखाया गया था । इसे लोगों के स्वैच्छिक सहयोग से बनाया गया था। बाद में भारत सरकार ने शहीदों की याद में एक अलग 'शहीद स्मारक' बनवाया ।इसे ही हम आज मुख्य शहीद स्मारक के तौर पर जानते हैं। इस पर 'चौरी- चौरा कांड' में हुये शहीदों के नाम खुदवा कर दर्ज किए गये हैं। </div><div> भारतीय रेलवे ने भी दो ट्रेन चौरी-चौरा कांड के शहीदों के नाम से चलायीं हैं। इन ट्रेनों के नाम हैं शहीद एक्सप्रेस और चौरी-चौरा एक्सप्रेस। </div><div> चौरी-चौरा दो अलग-अलग गांवों के नाम थे। रेलवे के एक ट्रैफिक मैनेजर ने इन गांवों का नाम एक साथ किया था ।उन्होंने जनवरी 1885 में यहाँ एक रेलवे स्टेशन की स्थापना की थी ।इसलिए प्रारंभ में केवल रेलवे प्लेटफॉर्म और मालगोदाम का नाम ही चौरी-चौरा था।बाद में जब बाज़ार शुरू हुए, वे चौरा गांव में लगने शुरू हुए । जिस थाने को 4 फरवरी 1922 को जलाया गया था, वो भी चौरा में ही था ।इस थाने की स्थापना 1857 की क्रांति के बाद हुई थी. यह एक तीसरे दर्जे का थाना था.</div><div> 'चौरी-चौरा' की घटना को आज 99 वर्ष पूरे हो रहे हैं।यह वर्ष इस घटना का शताब्दी वर्ष है। इस अवसर पर आयोजित समारोह का वर्चुअल उदघाटन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आज (4 फरवरी ) ने किया है। उत्तर प्रदेश सरकार चौरी-चौरा की घटना पर 'शताब्दी समारोह' का आयोजन कर रही है। </div><div> 'चौरा - चौरा' कांड के शहीदों को शत् शत् नमन। <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
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</div>धी के समकालीन एवं उनके अनुयायी, भारत रत्न से सम्मानित, सीमांत गाँधी के नाम से विख्यात,महान स्वतंत्रता सेनानी 'खान अब्दुल गफ्फार खान 'की आज (20 जनवरी) पुण्यतिथि है। अपने 98 वर्ष के जीवन में वे 35 वर्ष जेल में रहे। सन् 1988 में पाकिस्तान सरकार ने उनको पेशावर स्थित घर में नज़रबंद कर दिया था और उसी दौरान 20 जनवरी, 1988 को उनकी मृत्यु हो गयी थी। </div><div> गाँधी जी के कट्टर अनुयायी होने के कारण ही उनकी 'सीमांत गाँधी' की छवि बनी। उनके भाई डॉक्टर खाँ साहब भी गांधी के क़रीबी और कांग्रेसी आंदोलन के सहयोगी रहे। </div><div> अविभाजित भारत के समय से ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान को कई नामों से जाना जाता है - सरहदी गांधी, सीमान्त गांधी, बादशाह खान, बाचा खाँ आदि। एकनाथ ईश्वरन ने गफ्फार खान जी की जीवनी 'नॉन वायलेंट सोल्जर ऑफ इस्लाम' में लिखा है - 'भारत में दो गाँधी थे, एक मोहनदास कर्मचंद और दूसरे खान अब्दुल गफ्फार खाँ। उनका जन्म पेशावर (पाकिस्तान) के एक सम्पन्न में हुआ था। गफ्फार खान बचपन से होनहार बिरवान रहे। अफ़ग़ानी लोग उन्हें बाचा ख़ान कहकर बुलाते थे।'</div><div> देश के लिए उनके दिल में अथाह प्यार था। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान उन्होंने संयुक्त, स्वतन्त्र और धर्मनिरपेक्ष भारत बनाने के लिए सन् 1920 में 'खुदाई खिदमतगार' (सुर्ख पोश) संगठन बनाया। खुदाई खिदमतगार फारसी का शब्द है, जिसका अर्थ होता है ईश्वर की बनाई दुनिया का सेवक।</div><div> उनके परदादा आबेदुल्ला खान और दादा सैफुल्ला खान जितने सत्यनिष्ठ थे, उतने ही लड़ाकू थे। अंग्रेजों से संघर्ष के साथ ही उन्होंने पठानी कबीलों के हितों के लिये भी कई बड़ी लड़ाइयाँ लड़ी थीं। उन्हें ब्रिटिश सरकार ने प्राणदंड हुये। उनके पिता बैराम खान शांत और आध्यात्मिक स्वभाव के व्यक्ति थे। </div><div> बीसवीं सदी में के आरंभ बादशाह खान पख़्तूनों के प्रमुख नेता बन गए और महात्मा गाँधी जी के सत्याग्रह को अपनाया । तभी से उनका नाम ' सीमांत गाँधी' पड़ गया। </div><div> गाँधी जी सहित अन्य स्वतंत्रता सेनानी अब्दुल गफ्फार खान को बादशाह ख़ान कहा करते थे। स्वाधीनता आन्दोलन में उन्हें कई बार कठोर जेल यातनाओं का शिकार होना पड़ा। उन्होंने जेल में ही सिख गुरुग्रंथ, गीता का अध्ययन किया। उसके बाद साम्प्रदायिक सौहार्द के लिए गुजरात की जेल में उन्होंने संस्कृत के विद्वानों और मौलवियों से गीता और क़ुरान की कक्षायें आयोजित करवायीं।</div><div> अंग्रेज़ों ने जब 1919 में पेशावर में मार्शल लॉ लगाया तो ख़ान ने उनके सामने शांति प्रस्ताव रखा और बदले में उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया। सन 1930 में गाँधी-इरविन समझौते के बाद ही अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान को जेल से मुक्त किया गया।</div><div> सन् 1937 के प्रांतीय चुनावों में कांग्रेस ने पश्चिमोत्तर सीमांत प्रांत की प्रांतीय विधानसभा में बहुमत प्राप्त किया तो ख़ान मुख्यमंत्री बने। उसके बाद सन् 1942 में वह फिर गिरफ्तार कर लिए गए। उसके बाद तो 1947 में अंग्रेजों से भारत के आजाद होने के बाद ही उन्हें जेल से आजादी मिली। </div><div> देश के विभाजन से पूर्व तक उनके संगठन ' ख़ुदाई ख़िदमतगार 'ने कांग्रेस का साथ दिया। वह भारत के विभाजन मुखर विरोधी रहे। स्वाधीनता प्राप्ति एवं विभाजन के बाद भी उन्होंने पाकिस्तान में रहकर पख़्तून अल्पसंख़्यकों के हितों हेतु संघर्ष किया । पाकिस्तान सरकार ने उन्हें जेल में डाल दिया। उन्हें अपना निवास क्षेत्र पाकिस्तान से बदलकर अफगानिस्तान करना पड़ा। वह सदैव भारत से मानसिक रूप से जुड़े रहे। </div><div> उन्होंने सत्तर के दशक में पूरे भारत का भ्रमण किया। सन 1985 के 'कांग्रेस शताब्दी समारोह' में भी शामिल हुए। ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान कहते थे कि इस्लाम अमल, यकीन और मोहब्बत का नाम है। उन्होंने कांग्रेस के समर्थन से भारत के पश्चिमोत्तर सीमान्त प्रान्त में ऐतिहासिक 'लाल कुर्ती' आन्दोलन चलाया।</div><div> अब्दुल गफ्फार खान बताया करते थे कि 'प्रत्येक खुदाई खिदमतगार की यही प्रतिज्ञा होती है कि हम खुदा के बंदे हैं, दौलत या मौत की हमें कदर नहीं है। हमारे नेता सदा आगे बढ़ते चलते हैं। मौत को गले लगाने के लिए हम तैयार हैं। ...मैं आपको एक ऐसा हथियार देने जा रहा हूं जिसके सामने कोई पुलिस और कोई सेना टिक नहीं पाएगी। यह मोहम्मद साहब का हथियार है लेकिन आप लोग इससे वाकिफ नहीं हैं। यह हथियार है सब्र और नेकी का। दुनिया की कोई ताकत इस हथियार के सामने टिक नहीं सकती।'</div><div> सरहदी गांधी ने सरहद पर रहने वाले उन पठानों को अहिंसा का रास्ता दिखाया, जिन्हें इतिहास लड़ाकू मानता रहा। एक लाख पठानों को उन्होंने इस रास्ते पर चलने के लिए इस कदर मजबूत बना दिया कि वे मरते रहे, पर मारने को उनके हाथ नहीं उठे। 'नमक सत्याग्रह' के दौरान 23 अप्रैल 1930 को खान अब्दुल गफ्फार खाँ के गिरफ्तार हो जाने के बाद खुदाई खिदमतगारों का एक जुलूस पेशावर के 'किस्सा ख्वानी' बाजार में पहुंचा। अंग्रेजों ने उन पर गोली चलाने का हुक्म दे दिया। लगभग ढाई सौ लोग मारे गए लेकिन प्रतिहिंसा की कोई हरकत नहीं हुई। </div><div> सन् 1929 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की एक सभा में शामिल होने के बाद ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान ने 'ख़ुदाई ख़िदमतगार ' संगठन की स्थापना की और पख़्तूनों के बीच 'लाल कुर्ती ' आंदोलन का आह्वान किया। विद्रोह के आरोप में उनकी पहली गिरफ्तारी तीन वर्ष के लिए हुई। उसके बाद उन्हें काफी यातनायें सहनी पड़ीं। </div><div> जेल से बाहर आकर उन्होंने पठानों को राष्ट्रीय आन्दोलन से जोड़ने के लिए अपना आन्दोलन और तेज़ कर दिया। सन् 1947 में भारत विभाजन के बाद सीमान्त प्रान्त को भारत और पाकिस्तान में से किसी एक विकल्प को मानने की बाध्यता सामने आ गई। आखिरकार जनमत संग्रह के माध्यम से पाकिस्तान में विलय का विकल्प मान्य हुआ।</div><div> ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान तब भी तब पाकिस्तान और अफगानिस्तान के सीमान्त जिलों को मिलाकर एक स्वतन्त्र पख्तून देश पख्तूनिस्तान की मांग करते रहे लेकिन पाकिस्तान सरकार ने उनके आन्दोलन को कुचल दिया।</div><div> वे दो बार ' नोबेल शांति पुरस्कार ' के लिए नामांकित हुए । वे सामाजिक न्याय, आजादी और शांति के लिए जिस तरह वह जीवनभर जूझते रहे। वे नेल्सन मंडेला, मार्टिन लूथर किंग जूनियर और महात्मा गांधी की भाँति विश्व में सम्मान के पात्र हैं। </div><div> पुण्य तिथि पर उन्हें शत् शत् नमन्।</div>Dr.Aditya Kumarhttp://www.blogger.com/profile/01722871928993772254noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1168851729322592362.post-39916371870681067492021-01-13T19:25:00.001-08:002021-01-13T19:25:34.190-08:00आवाहन..... चलो! मिटायें सारी भ्रांति<div>आज पर्व है मकर संक्रांति, </div><div>दिखे सूर्य में भी नयी कान्ति; </div><div>जीवन को हम नयी दिशा दें,</div><div>मिटे ह्रदय से सारी भ्रान्ति।</div><div><br></div><div> आज मिटाये मन का कुहरा,</div><div> दिखे समाज का नूतन चेहरा;</div><div> शान्ति और सद्भाव बढायें, </div><div> लेवें सब संकल्प यह गहरा।</div><div><br></div><div>गर विभेद बढ़ते जायेगें,</div><div>आपस में विश्वास घटेगा;</div><div>भ्रम, अफवाहों की आँधी में, </div><div>यह समाज और देश बटेगा।</div><div><br></div><div> आखिर हम सब भाई-भाई,</div><div> यह ही है अंतिम सच्चाई;</div><div> चलो मिटायें सारी भ्रान्ति,</div><div> सार्थक हो पर्व 'मकर संक्रांति'।</div><div><br></div><div> मकर संक्रांति पर हार्दिक शुभकामनायें<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg6jiy1dOSL8wXnaAkyScNVMulJs1gQ9vU0PpasJ7GpCAldMxktp_y8qQTT1jodVkF7H6ZgerZggPLetWi-C2XTXr-LDB136d4x7PzMBzERM68bDYMACGHpJXRTG8DuJ2SnIs_iM4mF5XxR/s1600/1610594727428638-0.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</div></div>Dr.Aditya Kumarhttp://www.blogger.com/profile/01722871928993772254noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-1168851729322592362.post-32345350943049709302021-01-13T01:39:00.001-08:002021-01-13T01:39:23.988-08:00हर्ष और उल्लास का पर्व 'लोहड़ी'<div> हमारे देश की संस्कृति बहुरंगी एवं विविधतापूर्ण है। इसमें अनेक रीति-रिवाज व परंपराएं समाहित हैं जो लोगों को एकसूत्र में बाँधती हैं। त्यौहारों की इस परंपरा में माघ महीने की संक्रांति से एक दिन पहले लोहड़ी (Lohri) का पर्व सारे देश में (मूल रूप से पंजाब में ) उत्साहपूर्वक मनाया जाता है। </div><div> लोहड़ी हर्ष और उल्लास का पर्व है। इसका संबंध बदलते मौसम के साथ है। पौष माह की कड़ाके की ठंड से बचने के लिए भाईचारक सांझ और अग्नि की तपिश का आनंद लेने के लिए 'लोहड़ी ' का पर्व मनाया जाता है।</div><div> ' लोहड़ी' आपसी संबंधों की मधुरता, आनंद, संतोष और प्रेम का प्रतीक है। दुखों से दूर रह कर, प्यार और भाईचारे से मिल जुलकर नफरत को दूर करने का प्रतीक है लोकपर्व 'लोहड़ी'। यह पवित्र अग्नि का त्यौहार मानवता को सीधा रास्ता दिखाने और रुठों को मनाने का सदा से ही माध्यम बनता रहा है और बनता रहेगा। </div><div> लोहड़ी शब्द की व्युत्पत्ति ' तिल' और 'रोड़ी ' से मिल कर हुई। समय के साथ साथ से ' तिलोड़ी' और बाद में 'लोहड़ी' कहा जाने लगा। 'लोहड़ी' तीन शब्द - ल (लकड़ी) ,ओह (सूखे उपले) ,और डी (रेवड़ी) की ओर संकेत करते हैं। </div><div> 'लोहड़ी' का पर्व आने पर पहले 'सुंदर मुंदरिए' दे माई लोहड़ी जीवे तेरी जोड़ी' आदि लोक गीत गाकर घर-घर लोहड़ी मांगने का रिवाज था। समय के साथ 'लोहड़ी' सहित कई पुरानी परंपराओं का आधुनिकीकरण हो गया है। अब पंजाब के ग्रामों में लड़के-लड़कियां लोहड़ी मांगते हुए 'परंपरागत गीत' गाते दिखते। गीतों का स्थान 'डीजे' ने ले लिया।<br></div><div> लोहड़ी की रात को गन्ने के रस की खीर बनाई जाती है और अगले दिन माघी के दिन खाई जाती है जिसके लिए 'पौह रिद्धी माघ खाघी गई' कहा जाता है। ऐसा करना शुभ माना जाता है। </div><div> यह त्योहार छोटे बच्चों एवं नव विवाहितों के लिए विशेष महत्व रखता है। लोहड़ी की शाम को प्रज्ज्वलित लकड़ियों के सामने नवविवाहित युगल अपने वैवाहिक जीवन को सुखमय बनाए रखने की कामना करते हैं।</div><div> लोहड़ी का संबंध में कई ऐतिहासिक लोक कथायें प्रचलित हैं पर इससे जुड़ी प्रमुख लोककथा 'दुल्ला-भट्टी' की है जो मुगलों के समय का बहादुर योद्धा था, जिसने मुगलों के बढ़ते जुल्म के खिलाफ कदम उठाया। </div><div> इस संबंध में जनश्रुति है कि एक ब्राह्मण की दो कन्यायें 'सुंदरी' और ' मुंदरी' थीं। इलाके का मुगल शासक उनसे बलपूर्वक विवाह करना चाहता था। पर उनकी सगाई कहीं और हुई थी। मुगल शासक के डर से उन लड़कियों के ससुराल वाले शादी करने की हिम्मत नहीं कर पा रहे थे।</div><div> संकट की इस वेला में 'दुल्ला भट्टी ' ने ब्राह्मण परिवार की सहायता की । उसने लड़के वालों को राजी कर जंगल में आग जलाकर अपनी देख- रेख में ' सुंदरी 'एव 'मुंदरी 'का विवाह संपन्न करवाया। दुल्ले ने खुद ही उन दोनों का कन्यादान किया। 'दुल्ला भट्टी' ने शगुन के रूप में उन दोनों कन्याओं को शक्कर दी थी। लोहड़ी पर गाये जाने वाले इस लोकगीत में इस घटना का संदर्भ मिलता है-</div><div><br></div><div>'सुंदर-मुंदरिए हो! तेरा कौन बेचारा हो, </div><div>दुल्ला भट्टी वाला हो, दुल्ले ने धी ब्याही हो।</div><div> सेर शक्कर पाई-हो, कुड़ी दा लाल पटाका हो, </div><div> कुड़ी दा सालू फाटा हो, सालू कौन समेटे हो। </div><div>चाचा चूरी कुट्टी हो, जमींदारा लुट्टी हो, </div><div>जमींदार सुधाए-हो, बड़े पोले आए हो। </div><div>इक पोला रह गया-हो, पूरे विश्व में भारतीय संस्कृति अपना एक अलग स्थान रखती है क्योंकि इसमें अनेक रीति-रिवाज व परंपराएं समाई हैं जो लोगों को करीब लाकर एकसूत्र में बांधती हैं। त्यौहारों की इस शृंखला में माघ महीने की संक्रांति से एक दिन पहले आता है लोहड़ी (Lohri) का पर्व। <div> लोहड़ी हर्ष और उल्लास का पर्व है। इसका संबंध मौसम के साथ गहरा जुड़ा है। पौष माह की कड़ाके की सर्दी से बचने के लिए भाईचारक सांझ और अग्नि की तपिश का सुकून लेने के लिए लोहड़ी मनाई जाती है।</div><div> लोहड़ी रिश्तों की मधुरता, सुकून और प्रेम का प्रतीक है। दुखों का नाश, प्यार और भाईचारे से मिल जुलकर नफरत के बीज का नाश करने का नाम है लोहड़ी। यह पवित्र अग्नि का त्यौहार मानवता को सीधा रास्ता दिखाने और रुठों को मनाने का जरिया बनता रहेगा। लोहड़ी शब्द तिल+रोड़ी के मेल से बना है जो समय के साथ बदल कर तिलोड़ी और बाद में लोहड़ी हो गया। लोहड़ी मुख्यत: तीन शब्दों को जोड़ कर बना है ल (लकड़ी) ओह (सूखे उपले) और डी (रेवड़ी)।</div><div><br></div><div>'सुंदर मुंदरिए' को लेकर ये है मान्यता</div><div> लोहड़ी के पर्व की दस्तक के साथ ही पहले 'सुंदर मुंदरिए' दे माई लोहड़ी जीवे तेरी जोड़ी आदि लोक गीत गाकर घर-घर लोहड़ी मांगने का रिवाज था। समय बदलने के साथ कई पुरानी रस्मों का आधुनिकीकरण हो गया है। लोहड़ी पर भी इसका प्रभाव पड़ा। अब गांव में लड़के-लड़कियां लोहड़ी मांगते हुए 'परंपरागत गीत' गाते दिखलाई नहीं देते। गीतों का स्थान 'डीजे' ने ले लिया।</div><div> लोहड़ी की रात को गन्ने के रस की खीर बनाई जाती है और अगले दिन माघी के दिन खाई जाती है जिसके लिए पौह रिद्धी माघ खाघी गई कहा जाता है। ऐसा करना शुभ माना जाता है। </div><div> यह त्यौहार छोटे बच्चों एवं नव विवाहितों के लिए विशेष महत्व रखता है। लोहड़ी की संध्या में जलती लकड़ियों के सामने नवविवाहित जोड़े अपने वैवाहिक जीवन को सुखमय बनाए रखने की कामना करते हैं।</div><div> लोहड़ी का संबंध कई ऐतिहासिक लोक कथायें प्रचलित हैं पर इससे जुड़ी प्रमुख लोककथा दुल्ला-भट्टी की है जो मुगलों के समय का बहादुर योद्धा था, जिसने मुगलों के बढ़ते जुल्म के खिलाफ कदम उठाया। कहा जाता है कि एक ब्राह्मण की दो लड़कियां सुंदरी और मुंदरी के साथ इलाके का मुगल शासक जबरन शादी करना चाहता था पर उनकी सगाई कहीं और हुई थी और मुगल शासक के डर से उन लड़कियों के ससुराल वाले शादी के लिए तैयार नहीं हो पा रहे थे।</div><div> इस मुसीबत की घड़ी में दुल्ला भट्टी ने ब्राह्मण की मदद की और लड़के वालों को मनाकर एक जंगल में आग जलाकर सुंदरी एव मुंदरी का विवाह करवाया। दुल्ले ने खुद ही उन दोनों का कन्यादान किया। कहावत है कि दुल्ले ने शगुन के रूप में उन दोनों को शक्कर दी थी। इसी कथनी की हिमायत करता लोहड़ी का यह गीत है जिसे लोहड़ी के दिन गाया जाता है।</div><div><br></div><div>'सुंदर-मुंदरिए' हो ! तेरा कौन बेचारा हो, </div><div>दुल्ला भट्टी वाला हो, दुल्ले ने धी ब्याही हो।</div><div> सेर शक्कर पाई-हो, कुड़ी दा लाल पटाका हो, </div><div> कुड़ी दा सालू फाटा हो, सालू कौन समेटे हो। </div><div>चाचा चूरी कुट्टी हो, जमींदारा लुट्टी हो, </div><div>जमींदार सुधाए-हो, बड़े पोले आए हो। </div><div> इक पोला रह गया हो, </div><div> सिपाही फड़ के लै गया हो। </div><div>सिपाही ने मारी ईंट, भावें रो भावें पिट। </div><div>सानूं दे दो लोहड़ी, जीवे तेरी जोड़ी।'</div><div> 'साडे पैरां हेठ रोड़, सानूं छेती-छेती तोर,</div><div> साडे पैरां हेठ दहीं, असीं मिलना वी नईं। </div><div>साडे पैरां हेठ परात, सानूं उत्तों पै गई रात। </div><div>दे माई लोहड़ी, जीवे तेरी जोड़ी।"</div><div> </div><div> मुगलों के जुल्म के विरुद्ध दुल्ला- भट्टी के मानवीय साहसिक कार्य को आज भी ' लोहड़ी' पर स्मरण किया जाता हैं और ' लोहड़ी' को सत्य और साहस की अन्याय पर विजय के रूप में मनाया जाता है। 'लोहड़ी' कृषि से भी संबंधित है। इस समय गेहूं और सरसों की फसलें पूरे शबाब पर होती हैं। परंपरा है कि लोहड़ी के दिन गाँवों युवक- युवतियां अपनी-अपनी टोलियां बनाकर घर-घर जाकर गाते हुए लोहड़ी मांगते हैं-</div><div> 'दे माई लोहड़ी ,जीवे तेरी जोड़ी। </div><div> दे माई पाथी, तेरा पुत चढ़ेगा हाथी। '</div><div> गाँव के लोग उन्हें ' लोहड़ी' के रूप में गुड़, रेवड़ी, मूंगफली तिल या पैसे देते हैं। रात को लोग अग्नि में तिल डालते हुए </div><div> 'ईशर अए दलिदर जाए, दलिदर दी जड़ चुल्हे पाए।' बोलते हुए सभी के स्वस्थ रहने की प्रार्थना करते हैं।</div><div> जिस घर में नये शिशु का जन्म होता ही है, वहाँ लोहड़ी का पर्व विशेष उत्साह से मनाया जाता है। लोहड़ी की रात सभी गांव वाले नवजात शिशु के घर आते हैं । लकड़ियां, उपले आदि से अग्नि जलाई जाती है। सभी को गुड़, मूंगफली, रेवड़ी, तिल घानी बांटे जाते हैं। अब आधुनिक सोच के व्यक्ति कन्या भ्रूण हत्या को रोकने के लिए लड़कियों के जन्म पर भी लोहड़ी मनाते हैं । 'लोहड़ी' की पवित्र आग में तिल डालने के बाद बड़े बुजुर्गों से आशीर्वाद लिया जाता है। </div></div><div> इस वर्ष सारा पंजाब 'किसान आंदोलन' से उद्वेलित है।' धरना स्थल 'पर ही किसान 'लोहड़ी' मनाने जा रहे हैं। हमें आशा करनी चाहिये कि यह लोहड़ी का पर्व ऐसी खुशियाँ लाये कि देश में शांति व सौहार्द का वातावरण फिर से स्थापित हो। <div class="separator"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg6nFP1U0JotCQdLvQDkEvQjr4AgZwZTKnRtyguYzDn0oxat4E4OOL-aWhsU1EBUNylaG9Rdywz9D_4MasnWAHvOmRmlsbYKX_N4fXJpsIGGipa6njI__iHnv2-yNpWaw3Oas-otEm6wck/s1600/1610530490797610-0.png" imageanchor="1"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg6nFP1U0JotCQdLvQDkEvQjr4AgZwZTKnRtyguYzDn0oxat4E4OOL-aWhsU1EBUNylaG9Rdywz9D_4MasnWAHvOmRmlsbYKX_N4fXJpsIGGipa6njI__iHnv2-yNpWaw3Oas-otEm6wck/s1600/1610530490797610-0.png" width="400"></a></div></div>Dr.Aditya Kumarhttp://www.blogger.com/profile/01722871928993772254noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1168851729322592362.post-53366614400747163512020-12-18T23:34:00.001-08:002020-12-18T23:34:53.955-08:00शहादत दिवस पर अमर बलिदानियों को शत् शत् नमन<p dir="ltr"><br>
'काकोरी -काण्ड' के शहीदों को कोटि कोटि नमन<br>
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भारतीय स्वाधीनता संघर्ष में क्रान्तिकारियों का योगदान महत्वपूर्ण रहा है. ' काकोरी कांड' क्रांतिकारियों द्वारा ब्रिटिश शासन के विरुद्ध युद्ध छेड़ने के उद्देश्य से हथियार खरीदने के लिये ब्रिटिश सरकार का ही खजाना लूटने का एक प्रयास था. यह प्रयास 9 अगस्त 1925 को राम प्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में हिंदुस्तान रिपब्लिकन ऐसोशियेशन के क्रांतिकारियों ने लखनऊ के समीप काकोरी नामक स्थान पर सरकारी खजाना ले जा रही ट्रेन को लूट कर संपादित किया. इस ट्रेन डकैती में जर्मनी के बने चार माउज़र पिस्तौल काम में लाये गये थे।इन पिस्तौलों की विशेषता यह थी कि इनमें बट के पीछे लकड़ी का बना एक और कुन्दा लगाकर रायफल की तरह उपयोग किया जा सकता था। <br>
क्रान्तिकारियों द्वारा चलाए जा रहे 'स्वतन्त्रता आन्दोलन ' को गति देने के लिये धन की तत्काल व्यवस्था हेतु शाहजहाँपुर में हुई बैठक के दौरान हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोशियेशन की बैठक में अध्यक्ष क्रांतिकारी राम प्रसाद बिस्मिल के सुझाव पर अंग्रेजी सरकार का खजाना लूटने की योजना बनायी गयी थी। इस योजना के अनुसार क्रांतिकारी दल के ही एक प्रमुख सदस्य राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी ने 9 अगस्त 1925 को लखनऊ जिले के काकोरी रेलवे स्टेशन से छूटी "आठ डाउन सहारनपुर-लखनऊ पैसेन्जर ट्रेन" को चेन खींच कर रोका और क्रान्तिकारी पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में अशफाक उल्ला खाँ, पण्डित चन्द्रशेखर आज़ाद व 60 अन्य क्रांतिकारियों की सहायता से धावा बोलते हुए सरकारी खजाना लूट लिया।<br>
अंग्रेजी सरकार ने ' हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन ' के कुल 400क्रान्तिकारियों पर सरकार के विरुद्ध सशस्त्र युद्ध छेड़ने, सरकारी खजाना लूटने व यात्रियों की हत्या करने का मुकदमा चलाया जिसमें राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी, पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खाँ तथा ठाकुर रोशन सिंह को मृत्यु-दण्ड (फाँसी की सजा) सुनायी गयी। 17 दिसंबर1927 को राजेंद्र नाथ लाहिड़ी एवं 19 दिसंबर 1927 को पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खाँ तथा ठाकुर रोशन सिंह फाँसी दी गई .<br>
इस प्रकरण में 16 अन्य क्रान्तिकारियों को कम से कम 4 वर्ष की सजा से लेकर अधिकतम काला पानी (आजीवन कारावास) तक का दण्ड दिया गया था।<br>
काकोरी-काण्ड में भाग लेने वाले के प्रमुख क्रान्तिकारी थे - पं.राम प्रसाद 'बिस्मिल' ,अशफाक उल्ला खाँ, योगेशचन्द्र चटर्जी, प्रेमकृष्ण खन्ना, मुकुन्दी लाल, विष्णुशरण दुब्लिश, सुरेशचन्द्र भट्टाचार्य, रामकृष्ण खत्री, मन्मथनाथ गुप्त, राजकुमार सिन्हा, ठाकुर रोशानसिंह, राजेन्द्रनाथ लाहिडी, गोविन्दचरण कार, रामदुलारे त्रिवेदी, रामनाथ पाण्डेय, शचीन्द्रनाथ सान्याल,भूपेन्द्रनाथ सान्याल एवं प्रणवेशकुमार चटर्जी.<br>
इन (राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी, पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खाँ तथा ठाकुर रोशन सिंह) क्रांतिकारियों के बलिदान दिवस पर उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि.<br>
🙏🙏🙏<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
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</p>Dr.Aditya Kumarhttp://www.blogger.com/profile/01722871928993772254noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1168851729322592362.post-59935330341652164712020-12-14T11:04:00.001-08:002020-12-14T11:04:53.754-08:00तुम्हीं सो गये दास्ताँ कहते कहते...... <div>तुम्हीं सो गये दास्ताँ कहते कहते....... </div><div> ----------------------------------------------</div><div> बुंदेलखंड में समाज विज्ञान के उदभट् विद्वान, एक कुशल वक्ता, प्रगतिशील लेखक एवं साहित्यकार ,दयानंद वैदिक कालेज उरई के राजनीति विज्ञान के रिटायर्ड प्रोफेसर डा. जय दयाल सक्सेना का दो दिन पूर्व 95 वर्ष की आयु में उरई में नया रामनगर स्थित आवास पर निधन हो गया. </div><div> मेरे लिये पितृतुल्य व्यक्तित्व के महाप्रयाण का यह समाचार मन को अत्यंत दुःखी करने वाला था. वे मेरे पिताश्री (स्व. के. डी. सक्सेना) के मित्र थे. स्नातक व परास्नातक कक्षाओं में मुझे उनसे शिक्षा ग्रहण करने का अवसर मिला. दयानंद वैदिक कालेज, उरई के राजनीति विज्ञान विभाग में उनके साथ अध्यापन करने का भी सुअवसर भी मुझे मिला. उनके रिटायरमेंट के बाद भी उनका स्नेह एवं सान्निध्य मुझे सदैव मिलता रहा.</div><div> एक शिक्षक के रूप में वे अतुलनीय थे. उनकी वैज्ञानिक सोच, दुर्लभ तार्किक क्षमता एवं छात्रों के साथ सहज संवाद की शैली उनके व्यक्तित्व को विलक्षण बना देती थी, जिसकी छाप उनके शिष्यों के मन मस्तिष्क पर अमिट को जाती थी. विनोद पूर्ण शैली में व्यक्त उनका चुटीला अंदाज विलक्षण था, जिसे उनके संपर्क में आये व्यक्ति कभी भूल नहीं सकते.</div><div> उनका व्यक्तित्व अत्यंत प्रभावशाली था. गौर वर्ण, छरहरी काया ,सदैव सीधे सिर उठा कर चलने का उनका अंदाज , चेहरे पर ओज एवं आत्मविश्वास तथा सादगी पूर्ण परिधान उनके व्यक्तित्व को एक अनोखी गरिमा प्रदान करते थे. छात्रों एवं शिक्षकों के बीच वे अत्यंत लोकप्रिय एवं सम्मान के पात्र थे.</div><div> डा. सक्सेना मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित थे. वैज्ञानिक सोच उनके चिंतन एवं कर्म में सदैव परिलक्षित होती थी. पर वे विचारधारा की कट्टरता से सदैव दूर रहे जिसके कारण उनका अक्सर अपने कम्युनिस्ट साथियों से मतभेद हो जाता था. एक मौलिक चिंतक के रूप में उनकी ख्याति थी. दक्षिणपंथी विचारधारा के लोग भी उनकी बातों को गौर से सुनते थे और उन्हें सम्मान देते थे. वे एक संघर्षशील शिक्षक नेता भी रहे. बिना किसी लाग- लपेट के दो टूक बात कहना उनकी विशेषता थी.</div><div> उनका प्राचीन राजनीति पर विशेष शोध कार्य था. महाभारत पर उन्होंने पी.एच. डी. की थी. उन्होंने कई पुस्तकें भी लिखी जिनमें उनकी पुस्तक 'पुराकथाओं का वैज्ञानिक विश्लेषण' बहुत लोकप्रिय एवं महत्वपूर्ण थी. उनका लेखन प्रगतिशील एवं अंधविश्वासों पर कुठाराघात करने वाला था. उन्होंने कई नाटक भी लिखे जिनका मंचन नगर की सांस्कृतिक संस्थाओं द्वारा कई बार किया गया.</div><div> उनके साथ बीते पलों की स्मृतियाँ इतनी मधुर यादगार एवं प्रचुर मात्रा में हैं कि उन पर अलग से एक पुस्तक लिखी जा सकती है. </div><div> वे एक जीवंत व्यक्तित्व थे. सामाजिक व राजनीतिक समास्याओं पर उनका चिंतन बड़ा ही स्पष्ट, परिपक्व एवं स्वीकार्य होता था. अंत समय तक उनकी मानसिक सबलता के लोग कायल रहे.</div><div> ऐसे महान व्यक्तित्व का साहचर्य पाना एवं उन्हें शिक्षक के रूप में पाना सौभाग्य की बात होती है और मै उन सौभाग्यशाली व्यक्तियों में से एक हूँ. उनके निधन से मुझे ऐसा लगता है कि मैने अपना संरक्षक खो दिया. </div><div> उनको मेरी विनम्र श्रद्धांजलि.. ..... सदा बहुत याद आयेगें गुरुवर आप! </div><div> 🙏🙏🙏<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
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</div></div>Dr.Aditya Kumarhttp://www.blogger.com/profile/01722871928993772254noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1168851729322592362.post-54010928622290554472020-10-24T03:17:00.001-07:002020-10-24T03:18:20.756-07:00प्रथम स्वाधीनता संग्राम के वयोवृद्ध स्वाधीनता सेनानी बहादुर शाह ज़फ़र<div><br></div><div> भारत में मुग़ल साम्राज्य के आखिरी शहंशाह, बहादुर शाह ज़फ़र उर्दू के जानेे-माने शायर थे। उन्होंने 1857 के 'प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम' में क्रांतिकारियों का नेतृत्व किया था। </div><div> बहादुर शाह ज़फ़र का जन्म 24 अक्तूबर 1775 ई. को दिल्ली में हुआ था। बहादुर शाह अकबर शाह द्वितीय और लालबाई के दूसरे पुत्र थे। उनकी माँ लालबाई हिंदू परिवार से थीं। </div><div> 1857 में जब ब्रिटिश शासन के विरुद्ध भारत में स्वाधीनता की पहली लड़ाई लडी गई तब सभी विद्रोही सैनिकों और राजा-महाराजाओं ने उन्हें हिंदुस्तान का सम्राट घोषित किया। अंग्रेजों के विरुद्ध भारतीय सैनिकों के संघर्ष को देख वृद्ध बहादुर शाह जफर ने अंग्रेजों को हिंदुस्तान से खदेड़ने का आह्वान कर डाला।</div><div> क्रांतिकारियों ने दिल्ली और देश के अन्य हिस्सों में अंग्रेजों के विरुद्ध कड़ा संघर्ष किया। बहादुर शाह ज़फ़र अधिकांश समय नाम के शासक रहे,उनके पास वास्तविक सत्ता नहीं रही और वह अंग्रेज़ों पर आश्रित थे। 1857 में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम प्रारंभ होने के समय बहादुर शाह ज़फ़र की आयु 82 वर्ष की थी।</div><div> क्रांति की असफलता के बाद सितम्बर 1857 ई. में अंग्रेज़ों ने दिल्ली पर पुनः अधिकार कर लिया । कहते हैं कि जब मेजर हडसन ( जो उर्दू का थोड़ा ज्ञान रखता था) मुगल सम्राट को गिरफ्तार करने के लिए हुमायूं के मकबरे में पहुंचा (जहां पर बहादुर शाह ज़फर अपने दो बेटों के साथ छुपे हुए थे)तो उसने कहा -</div><div><br></div><div>"दमदमे में दम नहीं है ख़ैर मांगो जान की.. </div><div> ऐ ज़फर ठंडी हुई अब तेग हिंदुस्तान की.."</div><div><br></div><div>इस पर बादशाह ने उत्तर दिया-</div><div><br></div><div>"ग़ज़ियों में बू रहेगी जब तलक ईमान की..</div><div> तख़्त ऐ लंदन तक चलेगी तेग हिंदुस्तान की."</div><div> बहादुर शाह ज़फ़र को गिरफ़्तार करके उन पर मुक़दमा चलाया गया तथा उन्हें बर्मा (वर्तमान म्यांमार) में रंगून निर्वासित कर दिया गया। जहाँ उनकी मृत्यु हुई ।</div><div> बहादुर शाह ज़फ़र की शायरी में एक अलग तरह का दर्द छिपा हुआ है. विद्रोह और फिर उनके रंगून में निर्वासित होने के बाद ये ग़म और भी स्पष्ट तौर पर उनकी शायरी में नज़र आता है। मातृभूमि से दूर होने की उनके हृदय में अत्यंत पीड़ा थी। </div><div> प्रस्तुत हैं उनकी दो ग़ज़लें जो उनकी मनोदशा एवं उनके अंदर के शायर का दिग्दर्शन करातीं हैं-</div><div> </div><div> न किसी की आँख का नूर हूँ..</div><div> -----------------------------------</div><div>"न किसी की आँख का नूर हूँ,न किसीके दिलका क़रार हूँ,</div><div>जो किसी के काम न आ सके, मैं वो एक मुश्ते ग़ुबार हूँ।</div><div><br></div><div>मेरा रंग-रूप बिगड़ गया, मेरा यार मुझसे बिछड़ गया, </div><div>जो चमन ख़िज़ां से उजड़ गया,मैं उसी की फ़स्ले-बहार हूँ। </div><div><br></div><div>पए फ़ातिहा कोई आए क्यों, कोई चार फूल चढ़ाए क्यों, </div><div>कोई आ के शम्मा जलाए क्यों, मैं वो बेकसी का मज़ार हूँ। </div><div><br></div><div>मैं नहीं हूं नग़्म-ए-जाँ फिज़ा,मुझे सुन के कोई करेगा क्या, </div><div>मैं बड़े ही रोग की हूँ सदा, मैं बड़े दुखी की पुकार हूं।</div><div><br></div><div>न 'ज़फ़र' किसीका रक़ीब हूँ ,न 'ज़फ़र' किसीका हबीब हूँ</div><div>जो बिगड़ गया वह नसीब हूँ ,जोउजड़ गया वह दयार हूँ।"</div><div><br></div><div> बर्मा में निर्वासन के समय उनकी मनोदशा को दर्शाती उनकी यह मशहूर ग़ज़ल आज भी उर्दू अदब का एक लोकप्रिय दस्तावेज है-</div><div> </div><div> लगता नहीं है जी मेरा उजड़े दयार में</div><div> --------------------------------------------</div><div>"लगता नहीं है जी मेरा उजड़े दयार में,</div><div>किसकी बनी है आलमे-ना-पायदार में। </div><div><br></div><div>बुलबुल को बाग़बां से ,न सय्याद से गिला, </div><div>क़िस्मत में क़ैद थी लिखी फ़स्ले-बहार में। </div><div><br></div><div>कह दो इन हसरतों से कहीं और जा बसें, </div><div>इतनी जगह कहाँ है दिले दाग़दार में। </div><div><br></div><div>एक शाख़े-गुल पे बैठ के, बुलबुल है शादमां, </div><div>कांटे बिछा दिए हैं दिले-लालज़ार में। </div><div><br></div><div>उम्रे-दराज़ माँग के लाये थे चार दिन, </div><div>दो आरज़ू में कट गए ,दो इंतिज़ार में। </div><div><br></div><div>दिन ज़िंदगी के ख़त्म हुए , शाम हो गई</div><div>फैला के पाँव सोएंगे, कुंजे मज़ार में। </div><div><br></div><div>कितना है बदनसीब ज़फ़र , दफ़्न के लिए</div><div>दो गज़ ज़मीं भी मिल न सकी कू-ए-यार में। "</div><div> </div><div> ऐसे अजीम शायर एवं स्वाधीनता सेनानी को उनकी जयंती पर शत् शत् नमन। <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
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</div></div>Dr.Aditya Kumarhttp://www.blogger.com/profile/01722871928993772254noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-1168851729322592362.post-76335449798302025782020-10-21T02:11:00.001-07:002020-10-21T02:11:35.977-07:00स्वतंत्र भारत की अस्थायी सरकार ( आज़ाद हिन्द सरकार) का स्थापना दिवस<div> आज 21 अक्टूबर है। आज के दिन 1943 में नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने आजाद हिन्द फौज के सर्वोच्च सेनापति के रूप में सिंगापुर में स्वतंत्र भारत की अस्थायी सरकार 'आज़ाद हिन्द सरकार 'की स्थापना की थी। नेताजी सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्व में भारतीय स्वाधीनता के लिये 'आज़ाद हिंद फौज' के संघर्ष की गाथा भारतीय स्वाधीनता के इतिहास का स्वर्णिम अध्याय है। <br></div><div> 'आज़ाद हिन्द फ़ौज ' के नाम से सेना का गठन पहली बार राजा महेन्द्र प्रताप सिंह द्वारा 29 अक्टूबर 1915 को अफगानिस्तान में हुआ था। यह उनकी ऐसी सेना थी, जिसका लक्ष्य अंग्रेजों से लड़कर भारत को स्वतंत्रता दिलाना था। पर उनका यह प्रयास सफल नहीं हो पाया। </div><div> द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान सन 1943 में जापान की सहायता से टोकियो में रासबिहारी बोस ने भारत को अंग्रेजों से स्वतन्त्र कराने के लिये इन्डियन नेशनल आर्मी (INA) नामक सशस्त्र सेना का संगठन किया जिसे 'आज़ाद हिंद फौज ' कहा गया। इस सेना के गठन में कैप्टन मोहन सिंह, रासबिहारी बोस एवं निरंजन सिंह गिल का महत्वपूर्ण योगदान था। </div><div> आरम्भ में इस फौज़ में जापान द्वारा युद्धबन्दी बना लिये गये भारतीय सैनिकों को लिया गया था। बाद में इसमें बर्मा और मलाया में स्थित भारतीय स्वयंसेवक भी भर्ती हो गये। आरंभ में इस सेना में लगभग 16,300 सैनिक थे। कालान्तर में जापान ने 60,000 युद्ध बंदियों को आज़ाद हिन्द फ़ौज में शामिल होने के लिए छोड़ दिया । </div><div> पर इसके बाद ही जापानी सरकार और मोहन सिंह के अधीन भारतीय सैनिकों के बीच आज़ाद हिन्द फ़ौज की भूमिका के संबध में विवाद उत्पन्न हो जाने के कारण मोहन सिंह एवं निरंजन सिंह गिल को गिरफ्तार कर लिया गया। </div><div> 'आज़ाद हिन्द फ़ौज' का दूसरा चरण तब प्रारम्भ होता है, जब सुभाषचन्द्र बोस सिंगापुर गये। सुभाषचन्द्र बोस ने 1941 ई. में बर्लिन में इंडियन लीग की स्थापना की, किन्तु जर्मनी ने उन्हें रूस के विरुद्ध प्रयुक्त करने का प्रयास किया, तब उनके सामने कठिनाई उत्पन्न हो गई और उन्होंने दक्षिण पूर्व एशिया जाने का निश्चय किया।</div><div> सुभाष चन्द्र बोस पनडुब्बी द्वारा जर्मनी से जापानी नियंत्रण वाले सिंगापुर पहुँचे और पहुँचते ही जून 1943 में टोकियो रेडियो से घोषणा की कि अंग्रेजों से यह आशा करना बिल्कुल व्यर्थ है कि वे स्वयं अपना साम्राज्य छोड़ देंगे। हमें भारत के भीतर व बाहर से स्वतंत्रता के लिये स्वयं संघर्ष करना होगा। सुभाष बोस से प्रभावित होकर रासबिहारी बोस ने 4 जुलाई 1943 को 46 वर्षीय सुभाष को 'आजाद हिन्द फौज' का नेतृत्व सौंप दिया।</div><div> नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने 5 जुलाई 1943 को सिंगापुर के ' टाउन हाल' के सामने 'आज़ाद हिंद फौज ' के सुप्रीम कमाण्डर के रूप में सेना को सम्बोधित करते हुए ' दिल्ली चलो!'का नारा दिया । </div><div> जापानी सेना के सहयोग से 'आज़ाद हिन्द फ़ौज ' बर्मा के रंगून (यांगून) से होती हुई थलमार्ग से भारत की ओर बढ़ी और 18 मार्च 1944 ई. को कोहिमा और इम्फ़ाल के भारतीय मैदानी क्षेत्रों में पहुँच गई । वहाँ इसका ब्रिटिश व कामनवेल्थ सेना से जमकर संघर्ष हुआ। </div><div> सुभाष चंद्र बोस ने अपने अनुयायियों को 'जय हिन्द ' का नारा दिया और 21 अक्टूबर 1943 को उन्होंने 'आजाद हिन्द फौज' के सर्वोच्च सेनापति के रूप सिंगापुर में स्वतंत्र भारत की अस्थायी सरकार 'आज़ाद हिन्द सरकार ' की स्थापना की। </div><div> नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने इस सरकार के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री तथा सेनाध्यक्ष तीनों पद स्वयं ग्रहण किये । इसके साथ ही अन्य जिम्मेदारियां जैसे वित्त विभाग एस.सी चटर्जी को, प्रचार विभाग एस.ए. अय्यर को तथा महिला संगठन लक्ष्मी स्वामीनाथन को सौंपा गया। </div><div> इस सरकार को जर्मनी, जापान, फिलीपीन्स, कोरिया, चीन, इटली, मान्चुको और आयरलैंड ने मान्यता दे दी। जापान ने अंडमान व निकोबार द्वीप इस अस्थायी सरकार को दे दिये। नेताजी उन द्वीपों में गये और उनका नया नामकरण किया। अंडमान का नया नाम 'शहीद' द्वीप तथा निकोबार का 'स्वराज्य' द्वीप रखा गया। 30 दिसम्बर 1943 को इन द्वीपों पर स्वतन्त्र भारत का ध्वज भी फहरा दिया गया। </div><div> इसके बाद नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने सिंगापुर एवं रंगून में आज़ाद हिन्द फ़ौज का मुख्यालय बनाया। 4 फ़रवरी 1944 को आजाद हिन्द फौज ने अंग्रेजों पर दोबारा भयंकर आक्रमण किया और कोहिमा, पलेल आदि कुछ भारतीय प्रदेशों को अंग्रेजों से मुक्त करा लिया। 6 जुलाई 1944 को उन्होंने रंगून रेडियो स्टेशन से महात्मा गांधी के नाम जारी एक प्रसारण में अपनी स्थिति स्पष्ट की और आज़ाद हिन्द फौज़ द्वारा लड़ी जा रही इस निर्णायक लड़ाई की जीत के लिये उनकी शुभकामनाएँ माँगीं। उन्होंने कहा ," मैं जानता हूँ कि ब्रिटिश सरकार भारत की स्वाधीनता की माँग कभी स्वीकार नहीं करेगी। मैं इस बात का कायल हो चुका हूँ कि यदि हमें आज़ादी चाहिये तो हमें खून के दरिया से गुजरने को तैयार रहना चाहिये। अगर मुझे उम्मीद होती कि आज़ादी पाने का एक और सुनहरा मौका अपनी जिन्दगी में हमें मिलेगा तो मैं शायद घर छोड़ता ही नहीं। मैंने जो कुछ किया है अपने देश के लिये किया है। विश्व में भारत की प्रतिष्ठा बढ़ाने और भारत की स्वाधीनता के लक्ष्य के निकट पहुँचने के लिये किया है। भारत की स्वाधीनता की आखिरी लड़ाई शुरू हो चुकी है। आज़ाद हिन्द फौज़ के सैनिक भारत की भूमि पर सफलतापूर्वक लड़ रहे हैं। हे राष्ट्रपिता! भारत की स्वाधीनता के इस पावन युद्ध में हम आपका आशीर्वाद और शुभ कामनायें चाहते हैं।"</div><div> नेताजी सुभाषचन्द्र बोस द्वारा ही गांधी जी के लिए प्रथम बार राष्ट्रपिता शब्द का प्रयोग किया गया था।इसके अतिरिक्त सुभाष चन्द्र बोस ने फ़ौज के कई बिग्रेड राष्टीय आंदोलन के नेताओं के नाम पर रखे जैसे- महात्मा गाँधी ब्रिगेड, अबुल कलाम आज़ाद ब्रिगेड, जवाहरलाल नेहरू ब्रिगेड तथा सुभाषचन्द्र बोस ब्रिगेड। सुभाषचन्द्र बोस ब्रिगेड के सेनापति शाहनवाज ख़ाँ थे।</div><div> 21 मार्च 1944 को दिल्ली चलो के नारे के साथ आज़ाद हिंद फौज का हिन्दुस्तान की धरती पर आगमन हुआ। 22 सितम्बर 1944 को 'शहीदी दिवस' मनाते हुये सुभाषचन्द्र बोस ने अपने सैनिकों से मार्मिक अपील की -</div><div> " हमारी मातृभूमि स्वतन्त्रता की खोज में है। तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूँगा। यह स्वतन्त्रता की देवी की माँग है।"</div><div> फ़रवरी 1944 से लेकर जून 1944 ई. के मध्य तक आज़ाद हिन्द फ़ौज की तीन ब्रिगेडों ने जापानियों के साथ मिलकर भारत की पूर्वी सीमा एवं बर्मा से युद्ध लड़ा किन्तु दुर्भाग्यवश द्वितीय विश्व युद्ध का पासा पलट गया। जर्मनी ने हार मान ली और जापान को भी घुटने टेकने पड़े। ऐसे में नेताजी को टोकियो की ओर पलायन करना पड़ा और कहते हैं कि हवाई दुर्घटना में उनका निधन हो गया किन्तु इस बात की पुष्टि अभी तक नहीं हो सकी है। </div><div> 'आज़ाद हिन्द फ़ौज 'के अनेक सैनिकों एवं अधिकारियों को अंग्रेज़ों ने 1945 ई. में गिरफ़्तार कर लिया और उनका सैनिक अभियान असफल हो गया, किन्तु इस असफलता में भी उनकी जीत छिपी थी। </div><div> 'आज़ाद हिन्द फ़ौज ' के गिरफ़्तार सैनिकों एवं अधिकारियों पर अंग्रेज़ सरकार ने दिल्ली के लाल किले में नवम्बर, 1945 में मुकदमा चलाया और फौज के मुख्य सेनानी कर्नल सहगल, कर्नल ढिल्लों एवं मेजर शाह नवाज ख़ाँ पर राजद्रोह का आरोप लगाया गया। इनके पक्ष में सर तेजबहादुर सप्रू, जवाहरलाल नेहरू, भूला भाई देसाई और के.एन. काटजू ने पैरवी की पर फिर भी इन तीनों की फाँसी की सज़ा सुनाई गयी। </div><div> इस निर्णय के विरुद्ध पूरे देश में कड़ी प्रतिक्रिया हुई, जनमानस भड़क उठा और मशालों को हाथों में थाम कर उन्होंने इसका विरोध किया । इस समय नारे लगाये गये- 'लाल क़िले को तोड़ दो, आज़ाद हिन्द फ़ौज को छोड़ दो।' विवश होकर तत्कालीन वायसराय लॉर्ड वेवेल ने अपने विशेषाधिकार का प्रयोग कर इन सबकी मृत्युदण्ड की सज़ा को माफ कर दिया।</div><div> सुभाष चंद्र बोस एक सच्चे राष्ट्रवादी थे। यद्यपि उनके मन में फासीवाद के अधिनायकों के सबल तरीकों के प्रति भावनात्मक झुकाव था पर उनका मूल उद्देश्य भारत को शीघ्रातिशीघ्र स्वतन्त्रता दिलाना था इसके लिये उन्होंने हिंसात्मक संघर्ष का रास्ता अपना कर 'आजाद हिन्द फौज' के माध्यम से संघर्ष किया।</div><div> आज का दिन एक गौरवपूर्ण ऐतिहासिक दिवस है जब स्वतंत्र भारत की अस्थाई सरकार की घोषणा नेताजी सुभाष चंद्र बोस के द्वारा की गयी। </div><div><br></div><div><br></div><div><br></div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
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शोचनीय हुई है। ऐसे परिवेश में अंतर्राष्ट्रीय बालिका दिवस की सार्थकता बढ़ जाती है। </div></div><div class="w_cont_text_a"><div> इस दिवस मनाने की प्रेरणा कनाडियाई संस्था 'प्लान इंटरनेशनल ' ( Plan International) के 'बिकॉज आई एम गर्ल' (Because I am Girl) अभियान से मिली। इस अभियान का उद्देश्य अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बालिकाओं के पोषण के लिए जागरूकता लाना, विभिन्न क्षेत्रों अपना योगदान करने वाली और चुनौतियों का सामना कर रही बालिकाओं के अधिकारों के प्रति लिए विश्व का ध्यान आकर्षित करना और उनके प्रोत्साहन हेतु लोगों को प्रेरित करना था।,</div><div> 'अंतरराष्ट्रीय बालिका दिवस' मनाने का प्रमुख उद्देश्य है विश्व में बालिकाओं की समस्याओं पर विचार कर इनके कल्याण हेतु सक्रिय प्रयास करना। गरीबी, संघर्ष, शोषण और भेदभाव का शिकार होती बालिकाओं की शिक्षा और उनके सपनों को पूरा करने के लिए प्रयास करने पर ध्यान केंद्रित करना है।</div></div><div class="teads"><amp-ad class="i-amphtml-layout-fixed i-amphtml-layout-size-defined i-amphtml-element i-amphtml-layout" data-slot="/1031084/Teads_300X250_AMP" height="250" i-amphtml-layout="fixed" type="doubleclick" width="300" data-amp-slot-index="3" data-a4a-upgrade-type="amp-ad-network-doubleclick-impl" data-google-query-id="CKb0osj3rOwCFWIKtwAdRLwBCA"> विश्व में आज भी बालिकाएं अपने अधिकारों के लिए संघर्षरत हैं। चाँद व मंगल तक पहुंच चुके विश्व में, बालिकायें आज भी खतरे में है। अपनी खिलखिलाहट से सभी का मन हरने वाली बच्चियाँ आज भी उपेक्षा और अभावों का सामना कर रही हैं। गरीबी और रूढ़ियों के चलते उन्हें स्कूल नहीं भेजा जाता। प्रतिभाशाली होने के बावजूद वह प्राथमिक शिक्षा से आगे नहीं बढ़ पाती। कम उम्र में ही उनकी शादी कर दी जाती है । </amp-ad> 'संयुक्त राष्ट्र संघ' की रिपोर्ट के विश्व में विभिन्न देशों में अनेक लड़कियां गरीबी के बोझ तले जी रही हैं लड़कियों को शिक्षा मुहैया नहीं हो पाती। दुनिया में हर तीन में से एक लड़की शिक्षा से वंचित है। प्रतिभा होते हुये भी वे भेदभाव की शिकार हैं।</div><div class="w_cont_text_a"><div> यह स्थिति बाहर ही नहीं बल्कि परिवार में भी है। घर में भी वे भेदभाव, घरेलू हिंसा, यौन उत्पीड़न का शिकार हो रही हैं। अतः बालिकाओं को शिक्षित करना हम सभी का न केवल कर्तव्य वरन् नैतिक दायित्व भी है । शिक्षा से लड़कियाँ न केवल शिक्षित होतीं हैं हैं बल्कि उनके अंदर आत्मविश्वास भी उत्पन्न होता है और वे अपने अधिकारों के प्रति जागरूक होती हैं । कहा जाता है कि एक शिक्षित लड़की अनेक परिवारों का सकारात्मक निर्माण करती है। <br></div></div><div class="w_cont_text_a"><div> भारत में भी केंद्र व राज्य सरकारों ने बालिकाओं को शिक्षित व सशक्त बनाने के लिए अनेक योजनायें क्रियान्वित की हैं। 'बेटी बचाओ और बेटी पढ़ाओ' एक अच्छी योजना है। इसके अतिरिक्त अनेक महत्वपूर्ण योजनाएं शुरू की जा रही हैं। भारत में 24 जनवरी को प्रति वर्ष ' राष्ट्रीय बालिका दिवस' भी मनाया जाता है।</div><div> आज आवश्यकता बालिकाओं को शिक्षित बनाने के साथ साथ उन्हें सुरक्षा देने की भी है। आये दिन मासूम व अवयस्क बच्चियों के साथ दुर्व्यवहार की घटनायें सामने आतीं रहतीं हैं, जो एक सभ्य समाज के लिये न केवल शर्मनाक वरन् एक अभिशाप है। आज बालिकाओं की सुरक्षा के लिये समाज (विशेषकर दिग्भ्रमित युवाओं) की मानसिकता को बदलने की भी गंभीर आवश्यकता है। </div><div><br></div></div><div class="w_cont_text_a"><div><div><a href="https://m-hindi.webdunia.com/hindi-poems/female-foeticide-poem-120091800015_1.html" id="RelatedArticle5f81924740719" target="_top"> <br></a></div></div></div>Dr.Aditya Kumarhttp://www.blogger.com/profile/01722871928993772254noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-1168851729322592362.post-40455074604020942992020-10-07T08:42:00.001-07:002020-10-07T08:42:37.522-07:00 क्रांतिकारी आंदोलन की दीपशिखा -दुर्गा भाभी<p dir="ltr"> आज भारतीय स्वाधीनता संघर्ष में क्रांतिकारी संगठन 'हिंदुस्तान सोस्लिस्ट रिपब्लिक आर्मी के सक्रिय क्रांतिकारी भगवती चरण बोहरा की धर्मपत्नी 'दुर्गा भाभी ' के नाम से विख्यात क्रांतिकारी दुर्गावती की जयंती है। </p><p dir="ltr"> उनका जन्म सात अक्टूबर 1907 को उ. प्र. के शहजादपुर गांव में पंडित बांके बिहारी के घर हुआ था. पिता ने संन्यास ले लिया था जिस कारण दस साल की उम्र में ही उनका विवाह श्रीभगवती चरण वोहरा से हो गया जो क्रांतिकारी संगठन 'हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक आर्मीी' के साथ मिलकर दुर्गा भाभी ने भी आज़ादी की लड़ाई के लिए काम करना शुरू कर दिया. वोहरा जी की पत्नी होने की वजह से क्रांतिकारी साथी उन्हें दुर्गा भाभी कहते थे जो उनकी पहचान बन गया.दुर्गा भाभी को पिस्तौल चलाने में महारथ हासिल थी. वे बम बनाना भी जानती थीं.जब उनके बेटे सचिन्द्र का जन्म हुआ, तब उन्होंने क्रांतिकारी गतिविधियों से दूरी बना ली. </p><p dir="ltr"> लाहौर में ब्रिटिश पुलिस अफसर जॉन सौन्डर्स की हत्या के आरोप में भगत सिंह और राजगुरु को अंग्रेज सरकार ढूंढ रही थी. लाहौर के चप्पे-चप्पे पर जांच जारी थी. ट्रेन के स्टेशनों पर पुलिस तैनात थी. जो भी नौजवान लाहौर छोड़कर निकल रहे थे, उन पर CID की कड़ी नज़र थी. </p><p dir="ltr"> राजगुरु ने लाहौर से बाहर निकलने की योजना बना कर दुर्गा भाभी से सहायता माँगी. दुर्गा भाभी अपने बेटे के जन्म के बाद से क्रांतिकारी गतिविधियों से थोड़ी दूर थीं. लेकिन जब उन्हें पता चला कि भगत सिंह और राजगुरु को उनकी ज़रूरत है, वे तुरंत तैयार हो गईं.</p><p dir="ltr">जाने से एक रात पहले राजगुरु एक नौजवान को लेकर दुर्गा भाभी से मिलने पहुंचे. दुर्गा भाभी इस नौजवान को पहचान नहीं पायीं. राजगुरु ने उन्हें बताया, ये सरदार भगत सिंह हैं. अंग्रेजों से अपनी पहचान छुपाने के लिए भगत सिंह ने अपनी दाढ़ी हटा दी थी. सिर पर पगड़ी के स्थान पर हैट पहन रखा था. दुर्गा भाभी देखतीं रह गईं.</p><p dir="ltr"> अगले दिन सुबह उन्होंने लाहौर से कलकत्ता जाने वाली ट्रेन के तीन टिकट लिए. भगत सिंह और उनकी ‘पत्नी’ बनीं दुर्गा भाभी अपने बच्चे के साथ पहले दर्जे में बैठने वाले थे. उनके ‘नौकर’ बने राजगुरु के लिए तीसरे दर्जे का टिकट कटाया गया. स्टेशन पर पहुंचते हुए सबके दिल में धुकधुकी लगी हुई थी. कि कहीं कोई पहचान न ले. लेकिन अंग्रेज तो एक पगड़ीधारी सिख को ढूंढ रहे थे. अंग्रेजी सूट-बूट और हैट में सज़ा parivaar सहित नौजवान उनकी नज़रों में आया ही नहीं. किसी को कोई शक नहीं हुआ.</p><p dir="ltr"> स्टेशन के अंदर जाकर उन्होंने कानपुर की ट्रेन ली, फिर लखनऊ में ट्रेन बदल ली, क्योंकि लाहौर से आने वाली सीधी ट्रेनों में भी चेकिंग जारी थी. लखनऊ में राजगुरु अलग होकर बनारस चले गए. वहीं भगत सिंह, दुर्गा भाभी, और उनका छोटा बच्चा हावड़ा के लिए निकल गए. कलकत्ता में ही भगत सिंह की वो मशहूर तस्वीर ली गई थी जिसमें उन्होंने हैट पहन रखा है.</p><p dir="ltr">इस तरह दुर्गा भाभी भगत सिंह को अंग्रेजों की नाक के नीचे से निकाल लाईं और बाद में वे लाहौर लौट आई थीं. </p><p dir="ltr"> जब 1929 में भगत सिंह और राजगुरु ने आत्म समर्पण किया, तब उन्होंने अपनी सारी बचत उनके ट्रायल में लगा दी थी. गहने भी बेच दिए थे. और उस समय तीन हजार रुपयों का इंतजाम किया था. 1930 में उनके पति भगवती चरण वोहरा की बम बनाते हुए विस्फोट में मौत हो गई. उसके बाद वे एक शिक्षिका के रूप में कार्य करती रहीं.</p><p dir="ltr"> स्वतंत्रता के बाद उन्होंने गाज़ियाबाद में रहना शुरू किया. मारिया मोंटेसरी ( जिन्होंने मोंटेसरी स्कूलों की शुरुआत की) से ट्रेनिंग लेकर उन्होंने लखनऊ में मोंटेसरी स्कूल खोला. इस स्कूल को देखने तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू भी आए थे. 15 अक्टूबर 1999 को क्रांतिकारी आंदोलन की दीपशिखा ' दुर्गा भाभी ' का निधन हो गया. इस महान हुतात्मा को विनम्र श्रद्धांजलि. </p><p dir="ltr"> 🙏🙏🙏<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
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</div></p>Dr.Aditya Kumarhttp://www.blogger.com/profile/01722871928993772254noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-1168851729322592362.post-9210942625170533652020-10-05T07:08:00.001-07:002020-10-05T07:08:41.255-07:00अंतर्राष्ट्रीय (विश्व) शिक्षक दिवस<div><br></div><div> विश्व में 5 अक्टूबर ' विश्व शिक्षक दिवस (World Teachers Day) मनाया जाता है। इसे अंतरराष्ट्रीय शिक्षक दिवस (International Teachers Day) के रूप में भी जाना जाता है ।</div><div> यह दिवस दुनिया में शिक्षकों की स्थिति में सुधार लाने के उद्देश्य से मनाया जाता है। 5 अक्टूबर 1966 को पेरिस में संयुक्त राष्ट्र संघ की संस्थाओं 'यूनेस्को 'और 'अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन' का एक सम्मेलन का आयोजित हुआ था जिसमें 'टीचिंग इन फ्रीडम' संधि पर हस्ताक्षर किये गये थे। इस सम्मेलन में अध्यापकों की स्थिति पर व्यापक चर्चा हुई थी। अब प्रति वर्ष यूनिसेफ, यूएनडीपी, अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन और शिक्षा अंतरराष्ट्रीय द्वारा एक साथ मिलकर प्रति वर्ष 'विश्व शिक्षक दिवस' का आयोजन किया जाता है। </div><div> यूनेस्को और अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन द्वारा साल 1966 में शिक्षकों के अधिकारों, जिम्मेदारियों, रोजगार और आगे की शिक्षा के साथ सभी गाइडलाइन बनाने की बात कही गई थी।</div><div> 'विश्व शिक्षक दिवस ' की शुरुआत साल 1994 में हुई थी। संयुक्त राष्ट्र संघ ने 'विश्व शिक्षक दिवस' को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मनाने हेतु वर्ष 1994 में यूनेस्को की सिफारिश पर लगभग 100 देशों के समर्थन देने के बाद इससे संबंधित प्रस्ताव पारित किया। इसके बाद 5 अक्टूबर को ' विश्व शिक्षक दिवस' मनाये जाने की शुरुआत हो गई। </div><div> इस दिवस को 1994 के बाद से प्रतिवर्ष अधिकांश देशों द्वारा मनाया जा रहा है। इस वर्ष 2020 में यह 26वाँ विश्व शिक्षक दिवस है। </div><div> विभिन्न देशों में अलग- अलग तिथियों में 'शिक्षक दिवस 'मनाया जाता है। समाज में शिक्षकों के प्रति सहयोग को बढ़ावा दिया जाए और शिक्षक की जिम्मेदारियों का अहसास कराने के लिए ' विश्व शिक्षक दिवस' की शुरुआत की गई ।</div><div> चीन ने 1931 में शिक्षक दिवस की शुरुआत की थी पर 1932 में चीन की सरकार ने यह निश्चित किया कि 27 अगस्त को शिक्षक दिवस(Teacher Day) मनाया जाये, पर बाद में इस घोषणा को वापस ले लिया गया।चीन में वर्ष 1985 में यह घोषणा की गई कि 10 सितम्बर को शिक्षक दिवस मनाया जाएगा । चीन में आज भी शिक्षक दिवस को लेकर मतभेद है ।चीन में बहुत से लोग यह चाहते हैं कि कंफ्यूशियस का जन्मदिन ही शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाये। </div><div> रूस में पहले शिक्षक दिवस(Teacher Day) अक्टूबर महीने के पहले सप्ताह को मनाया जाता था पर 1994 में तय हुआ कि रूस में शिक्षक दिवस 5 अक्टूबर को मनाया जाएगा ।</div><div> अमेरिका में भी शिक्षक दिवस को लेकर काफी मतभेद रहे ।अब मई के पहले सप्ताह में शिक्षक दिवस मनाना निश्चित हुआ। अमेरिका में शिक्षक दिवस पूरे सप्ताह मनाया जाता है.</div><div> ईरान में अयातुल्लाह मोर्तेजा की हत्या के बाद ईरान में 2 मई को शिक्षक दिवस मनाया जाता हैl अयातुल्लाह मोर्तेजा ईरान के मशहूर प्रोफेसरों में से एक थे जिनकी याद में 2 मई को वहाँ शिक्षक दिवस मनाया जाता है। </div><div> भारत में जहाँ ' शिक्षक दिवस' 5 सितंबर को मनाया जाता है, वहीं 5 अक्तूबर को 'विश्व शिक्षक दिवस' भी मनाया जाता है। भारत में दूसरे राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्म दिवस को 'शिक्षक दिवस' के रूप में मनाने की शुरुआत हुई थी। </div><div> यूनेस्को और अंतरराष्ट्रीय शिक्षा (ईआई) विश्व शिक्षक दिवस मनाने हेतु प्रति वर्ष एक अभियान चलाता है जिससे की लोगों को शिक्षकों की बेहतर समझ तथा छात्रों और समाज के विकास में उनकी भूमिका निभाने में सहायता मिल सके। </div><div> 'विश्व शिक्षक दिवस 2019' की थीम "युवा शिक्षक: पेशे का भविष्य (“Young Teachers: The Future of the Profession)” रखी गई थी।</div><div>इस दिवस को 2019 में 'एजुकेशन इंटरनेशनल ' नामक संस्था "गुणवत्ता परक शिक्षा के लिये एकजुट हों" के नारे के साथ मनाया।</div><div> ' विश्व शिक्षक दिवस 2020' की थीम 'लीडिंग इन क्राइसिस, रीइमेनेजिंग द फ्यूचर' ( Leading in Crisis, Remanaging the Future) रखी गयी है। संयुक्त राष्ट्र (UN) ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शिक्षा के क्षेत्र में उपलब्धियों को जानने तथा उससे जुड़ी समस्याओं को पहचानने हेतु साल 2030 का लक्ष्य रखा है। </div><div><br></div><div><br></div><div><br></div><div> </div><div> </div><div> </div>Dr.Aditya Kumarhttp://www.blogger.com/profile/01722871928993772254noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-1168851729322592362.post-68296727131550678752020-09-05T03:05:00.001-07:002020-09-05T03:05:00.461-07:00अदभुत् व्यक्तित्व के धनी डा. एस. राधाकृष्णन<div><br></div><div> आज भारत के प्रथम उपराष्ट्रपति एवं द्वितीय राष्ट्रपति सर्वपल्ली डा राधाकृष्णन का जन्म दिवस है जिसे 'शिक्षक दिवस' के रूप में मनाया जाता है, </div><div> वे एक उच्चकोटि के शिक्षाविद ,विद्वान एवं दार्शनिक ही नहीं थे वरन् एक प्रभावी व सक्षम राजनयिक थे उन्होंने राष्ट्रपति पद (Indian Presidency) को एक नई गरिमा प्रदान की .उनके समय में कई नई परम्परायें स्थापित हुयीं जो पहले नहीं थीं. जैसे- प्रधानमन्त्री द्वारा विदेश यात्रा के बाद राष्ट्रपति को रिपोर्ट करने की परिपाटी, राष्ट्रपति द्वारा जनता की शिकायतें सुनना.</div><div> उनका जन्म 1888 में दक्षिण भारत के तिरूतनी नामक ग्राम में हुआ था। वे बचपन से ही मेधावी थे। उन्होंने दर्शन शास्त्र में एम.ए. की उपाधि ली और सन् 1916 में मद्रास रेजीडेंसी कॉलेज में दर्शनशास्त्र के प्राध्यापक नियुक्त हो गए। </div><div> डॉ. राधाकृष्णन ने अपने लेखों और भाषणों के माध्यम से विश्व को भारतीय दर्शनशास्त्र से परिचित कराया। 'शिकागो विश्वविद्यालय' ने उन्हें 'तुलनात्मक धर्मशास्त्र ' पर व्या्ख्यान हेतु आमंत्रित किया था l वे 'भारतीय दर्शन शास्त्र परिषद् ' के अध्यक्ष भी रहे। कई भारतीय विश्वविद्यालयों की भांति कोलंबो एवं लंदन विश्वविद्यालय ने भी अपनी-अपनी मानद उपाधियों से उन्हें सम्मानित किया।</div><div> महत्वपूर्ण उपलब्धियों के बाद भी वे अत्यंत सरल व सहज रहते थेl उनका सदैव अपने विद्यार्थियों और संपर्क में आए लोगों में राष्ट्रीय चेतना बढ़ाने की ओर रहता था। अंग्रेजी सरकार ने उन्हें ' सर 'की उपाधि से सम्मानित किया क्योंकि वे छल कपट से कोसों दूर थे। अहंकार तो उनमें नाम मात्र भी न था। </div><div> स्वतंत्रता के बाद भी डॉ. राधाकृष्णन जी ने अनेक महत्वपूर्ण पदों पर कार्य किया। वे पेरिस में संयुक्त राष्ट्र संघ की संस्था 'यूनेस्को' की कार्यसमिति के अध्यक्ष भी बनाए गए। </div><div> सन् 1949 से सन् 1952 तक डॉ. राधाकृष्णन सोवियत संघ की राजधानी 'मास्को' में भारत के राजदूत पद पर रहे। भारत रूस की मित्रता बढ़ाने में उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा । वहाँ का तानाशाह प्रधान मंत्री स्टालिन उनका बहुत सम्मान करता थाl<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
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</div><br></div><div> सन् 1952 में वे भारत के उपराष्ट्रपति बनाए गए। इस महान दार्शनिक शिक्षाविद और लेखक को भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद जी ने देश का सर्वोच्च अलंकरण 'भारत रत्न ' प्रदान किया। </div><div> 13 मई, 1962 को डॉ. राधाकृष्णन भारत के द्वितीय राष्ट्रपति बने। सन् 1967 तक राष्ट्रपति के रूप में उन्होंने देश की अमूल्य सेवा की। <br></div><div> डॉ. राधाकृष्णन एक महान दार्शनिक, शिक्षाविद और लेखक थे। वे जीवनभर अपने आपको शिक्षक मानते रहे। उन्होंने अपना जन्मदिवस शिक्षकों के लिए समर्पित किया। इसलिए 5 सितंबर सारे भारत में' शिक्षक दिवस' के रूप में मनाया जाता है। </div><div><div> एक विद्वान,दार्शनिक एवं राजनयिक के रूप में वे विश्व में आदर के पात्र थे.ऐसे अलौकिक व्यक्तित्व को कोटि कोटि नमन।<br></div><div> 🙏🙏🙏</div><div><br></div></div>Dr.Aditya Kumarhttp://www.blogger.com/profile/01722871928993772254noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-1168851729322592362.post-62697861883920853322020-09-01T11:13:00.001-07:002020-09-01T11:13:55.111-07:00उत्तर भारत का लोक पर्व- बुढ़वा मंगल<div><br></div><div> उत्तर भारत में भाद्रपद ( भादों )माह के अंतिम मंगलवार को 'बुढ़वा मंगल ' का पर्व मनाया जाता है। इस दिन भगवान शिव के अवतार माने जाने वाले हनुमान जी के दर्शन करना शुभ माना जाता है। आज यह पर्व मनाया जा रहा हैl</div><div> जन विश्वास है कि 'बुढ़वा मंगल' पर हनुमान जी की विधिवत पूजा करने से सारे कष्ट मिट जाते हैं। बिगड़े हुए काम बन जाते हैं। पवनपुत्र हनुमान जी के दर्शन मात्र से हर मनोकामना पूरी हो जाती है।</div><div> माना जाता है कि 'बुढ़वा मंगल' के दिन बजरंग बली जी को सिंदूर चढ़ाना और उनके सामने 'बुढ़वानल स्तोत्र' का पाठ करना कल्याणकारी होता है। </div><div><br></div><div>'बुढ़वा मंगल' से संबंधित जनश्रुतियाँ (कथायें) </div><div>-------------------------------------------------------</div><div> 'बुढ़वा मंगल' से संबंधित पहली कथा त्रेता युग में 'रामायण काल' से संबंधितहै। मान्यता है कि आज ही के दिन अर्थात् भाद्रपद के आखिरी मंगलवार को लंका पहुँचने पर रावण के आदेश से हनुमान जी की पूंछ में आग लगाई गयी थी। </div><div> पूँछ में आग लगने के बाद हनुमान जी ने अपना विकराल रूप धारण किया और रावण की लंका जलाने के लिए अपनी पूंछ में 'बड़वानल' (अग्रि) पैदा की थी जिस कारण इस माह के आखिरी मंगलवार को</div><div> ' बुढ़वा मंगल' नाम मिला। इस दिन केवल रावण की लंका ही नहीं जली थी रावण के घमंड के चूर होने का आरंभ हुआ था। </div><div> 'बुढ़वा मंगल' से संबंधित दूसरी कथा 'द्वापर युग' में महाभारत के समय की है. कहते हैं कि पाँच पांडवों में द्वितीय कुंती पुत्र महाबलशाली 'भीम' को अपनी शक्ति पर बड़ा अभिमान हो गया था। उनको घमंड तोड़ने के लिए रूद्र अवतार 'भगवान हनुमान' ने एक बूढ़े बंदर का रूप रखा था।</div><div> महाबली 'भीम' एक बार कहीं जा रहे थे तो एक बूढ़े वानर का रूप रख 'हनुमान जी' उनके रास्ते के बीच में लेट गये l उस दिन भाद्रपद मास के शुक्लपक्ष का अंतिम मंगलवार था। जैसे ही ' भीम' उस पथ से निकले उन्हें रास्ते में एक वृद्ध बंदर लेटा हुआ दिखा। उन्होंने अपने बल के अभिमान में आकर तिरस्कार की भावना से उस वृद्ध वानर से कहा ," रास्ते से अपनी पूँछ हटाओ वानर!" इस पर वानर के रूप में विराजमान हनुमान जी ने उत्तर दिया , "तुम 10000 हाथियों का बल रखते हो भीम! खुद ही इस पूँछ को हटा लो। " क्रोध के आवेश में भीम आगे बढ़े और उन्होंने वानर की पूँछ उठाने की पुरजोर चेष्टा की ,पर वे उसे हिला तक नहीं सके। </div><div> भीम ने विस्मित होते हुये तत्काल श्री कृष्ण को याद किया जिससे से उन्हें ज्ञान हुआ कि ये वानर साधारण वानर नहीं, महाशक्तिशाली हनुमान जी हैं। उन्होंने तत्काल हनुमान जी से क्षमा माँगी l हनुमान जी ने उन्हें विजय का आशीर्वाद दिया l </div><div> महाभारत काल से ही इस दिन (मंगलवार ) को 'बुढ़वा मंगल' के रूप में मनाया जाता है।</div>Dr.Aditya Kumarhttp://www.blogger.com/profile/01722871928993772254noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-1168851729322592362.post-41176195812585939472020-08-29T10:53:00.001-07:002020-08-29T10:53:34.710-07:00असाधारण प्रतिभा के धनी मेजर ध्यान चंद<div> <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiSWMeoD5f3a-T1auReOGRMTmAJAOrsiCgfkKps9fbL3WJOU6-1Hi0kGtEwezqB_bAj_FkxZfmP5R0MBi40VrHbzkoS0VRBWFSKXRJAo_mJ6SLZqx2bD4ydVjHg0LoTNUZHjqI9ISZ_8fGZ/s1600/1598723606725266-0.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</div> आज 'हॉकी के जादूगर ' के रूप में विश्व में विख्यात मेजर ध्यानचंद की जयंती है. मेजर ध्यान चंद का जन्म 29 अगस्त 1905 को हुआ था.<br></div><div> उनके जन्म दिवस को हमारे देश में ' राष्ट्रीय खेल दिवस' के रूप में मनाया जाता है. खेल में उत्कृष्ट प्रदर्शन के लिए प्रति वर्ष सर्वोच्च खेल सम्मान ' राजीव गांधी खेल रत्न' पुरस्कार के अलावा 'अर्जुन' और 'द्रोणाचार्य' पुरस्कार भी दिए जाते हैं. इस बार COVID-19 महामारी के कारण 'वर्चुअल समारोह' में राष्ट्रीय खेल पुरस्कार दिये जा रहे हैं.</div><div> हाकी में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मेजर ध्यानचंद की शानदार , गौरव पूर्ण उपलब्धियाँ रही हैं . लगातार तीन ओलंपिक (1928 एम्सटर्डम, 1932 लॉस एंजेलिस और 1936 बर्लिन) में भारत को हॉकी का स्वर्ण पदक दिलाने वाले ध्यानचंद की असाधारण प्रतिभा लोहा का हर कोई मानता रहा.</div><div> ' बर्लिन ओलंपिक' के हॉकी का फाइनल भारत और जर्मनी के बीच 14 अगस्त 1936 को खेला जाना था. लेकिन उस दिन लगातार बारिश की वजह से मैच अगले दिन 15 अगस्त को खेला गया. बर्लिन के हॉकी स्टेडियम में उस दिन 40 हजार दर्शकों के बीच जर्मन तानाशाह शासक 'हिटलर 'भी उपस्थित था. हाफ टाइम तक भारत एक गोल से आगे था. इसके बाद ध्यानचंद ने अपने स्पाइक वाले जूते निकाले और खाली पांव कमाल की हॉकी खेली. इसके बाद, तो भारत ने एक के बाद एक कई गोल दागे.</div><div> 1936 के बर्लिन ओलंपिक में उनके साथ खेले और बाद में पाकिस्तान के कप्तान बने आईएनएस दारा ने एक संस्मरण में लिखा- छह गोल खाने के बाद जर्मन काफी खराब हॉकी खेलने लगे. उनके गोलकीपर टिटो वार्नहोल्ज की हॉकी स्टिक ध्यानचंद के मुंह पर इतनी जोर से लगी कि उनका दांत टूट गया.</div><div> प्रारंभिक उपचार के बाद ग्राउंड पर लौटने के बाद ध्यानचंद ने खिलाड़ियों को निर्देश दिए कि अब कोई गोल न मारा जाए, जर्मन खिलाड़ियों को ये बताया जाए कि गेंद पर नियंत्रण कैसे किया जाता है. इसके बाद खिलाड़ी बार-बार गेंद को जर्मनी की डी में ले जाते और फिर गेंद को बैक पास कर देते. जर्मन खिलाड़ियों की समझ में ही नहीं आ रहा था कि ये हो क्या रहा है.</div><div> भारत ने उस फाइनल में जर्मनी को 8-1 से मात दी. इसमें तीन गोल ध्यानचंद ने किए. दरअसल, 1936 के ओलंपिक खेल शुरू होने से पहले एक अभ्यास मैच में भारतीय टीम जर्मनी से 4-1 से हार गई थी. ध्यानचंद ने अपनी आत्मकथा ‘गोल’ में लिखा, 'मैं जब तक जीवित रहूंगा इस हार को कभी नहीं भूलूंगा. इस हार ने हमें इतना हिला कर रख दिया कि हम पूरी रात सो नहीं पाये.'</div><div> उनके इस शानदार प्रदर्शन से खुश होकर हिटलर ने उन्हें खाने पर बुलाया और उनसे जर्मनी की ओर से खेलने को कहा. इसके बदले उन्हें मजबूत जर्मन सेना में कर्नल पद का प्रलोभन भी दिया. लेकिन ध्यानचंद ने कहा, 'हिंदुस्तान मेरा वतन है और मैं वहां खुश हूँ.'</div><div> ऐसे असाधारण प्रतिभा से संपन्न खिलाडी हर खिलाड़ी के लिये प्रेरणा स्रोत होते हैं.. इस महान व्यक्तित्व को शत् नमन्.</div><div> ' बुंदेलखंड जनमिलन केंद्र, उरई' उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करता है.</div><div> 🙏🙏🙏</div>Dr.Aditya Kumarhttp://www.blogger.com/profile/01722871928993772254noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1168851729322592362.post-53507992037653106272020-08-26T03:43:00.001-07:002020-08-26T03:43:58.666-07:00लोक पर्व 'राधा अष्टमी'<div><br></div><div> आज 'राधा अष्टमी' है जिसे राधा जी के जन्मदिवस के रूप में मनाया जाता है. मान्यता है जो जन्माष्टमी का व्रत रखता है और राधा अष्टमी का व्रत नहीं रखता उसका जन्माष्टमी का व्रत अधूरा माना जाता है.भगवान श्री कृष्ण के जन्मोत्सव यानी कृष्ण जन्माष्टमी के पंद्रह दिन बाद राधा अष्टमी का पर्व मनाया जाता है.भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को 'राधा अष्टमी ' का पर्व मनाया जाता है.</div><div> शास्त्रों के अनुसार द्वापर युग में इस दिन राधा जी का जन्म हुआ था। राधा जी के बिना भगवान श्री कृष्ण की पूजा अधूरी मानी जाती है. राधा अष्टमी का पर्व बरसाने में बहुत धूमधाम से मनाया जाता है। राधा जी के पिता का नाम वृषभानु और उनकी माता का नाम कीर्तिजी था।</div><div> 'राधा अष्टमी' के दिन राधा जी की पूजा अकेले नहीं की जाती बल्कि उनकी पूजा भगवान श्री कृष्ण के साथ की जाती है। राधा अष्टमी का व्रत करने से मनुष्य को अपने जीवन की सभी सुख सुविधाएं सहज ही प्राप्त हो जाती हैं। इस दिन राधा जी को 'वल्लभा' नाम से पुकार कर संबोधित किया जाता है।</div><div> ' राधा अष्टमी ' का पर्व मथुरा, वृंदावन और बरसाना के मंदिरों में बड़े उत्साह से मनाया जाता है. इस दिन भगवान श्री कृष्ण और राधा जी के दर्शनों के लिए भीड़ लगी रहती है। लोग कृष्ण जन्माष्टमी के दर्शनों के बाद मथुरा, वृंदावन और बरसाना के मंदिरों में राधा जी के दर्शन अवश्य करते हैं।</div><div> पद्मपुराण के अनुसार राधा जी को वृषभानु एवं कीर्ति की पुत्री थीं.जब राजा वृषभानु यज्ञ के लिए भूमि को साफ कर रहे थे तभी' भूमि कन्या' के रूप में इन्हें राधा जी की प्राप्ति हुई थी.राजा वृषभानु व उनकी पत्नी कीर्ति ने इस कन्या को अपनी पुत्री मान कर लालन- पालन किया उन्होंने इस कन्या का नाम 'राधा' रखा.</div><div> जनश्रुति है कि जिस समय भगवान श्री कृष्ण का जन्मदिन मनाया जा रहा था, तब राधा जी की माता महारानी कीर्ति राधा जी को लेकर गोकुल नंद और यशोदा के यहां पहुंची थी. भगवान श्री कृष्ण उस समय अपने झूले में झूल रहे थे और राधा जी और भगवान श्री कृष्ण एक दूसरे को अपलक देख रहे थे.</div><div> पुराणों के अनुसार भगवान श्री कृष्ण और राधा जी उम्र में 11 महिने का अंतर था. जिस समय भगवान श्री कृष्ण का जन्म हुआ था, उस समय राधा जी की आयु 11 माह थी.द्वापर युग में भगवान विष्णु ने श्री कृष्ण और माता लक्ष्मी ने राधा जी के रूप में जन्म लिया था।. </div><div> भगवान श्री कृष्ण और राधा जी का विवाह नहीं हो सका था, लेकिन फिर भी इनकी पूजा एक साथ ही की जाती है. माना जाता है कि भगवान श्री कृष्ण के बिना राधा जी अधूरी हैं और राधा जी के बिना भगवान श्री कृष्ण. इसलिए राधा अष्टमी पर भगवान श्री कृष्ण की भी पूजा होती है।<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
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