Saturday, October 24, 2020

प्रथम स्वाधीनता संग्राम के वयोवृद्ध स्वाधीनता सेनानी बहादुर शाह ज़फ़र


        भारत में मुग़ल साम्राज्य के आखिरी शहंशाह, बहादुर शाह ज़फ़र उर्दू के जानेे-माने शायर थे। उन्होंने 1857 के 'प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम' में क्रांतिकारियों का नेतृत्व किया था। 
         बहादुर शाह ज़फ़र का जन्म 24 अक्तूबर  1775 ई. को दिल्ली में हुआ था। बहादुर शाह अकबर शाह द्वितीय और लालबाई के दूसरे पुत्र थे। उनकी माँ लालबाई हिंदू परिवार से थीं। 
         1857 में जब ब्रिटिश शासन के विरुद्ध भारत में स्वाधीनता की पहली लड़ाई लडी गई तब सभी विद्रोही सैनिकों और राजा-महाराजाओं ने उन्हें हिंदुस्तान का सम्राट घोषित किया। अंग्रेजों के विरुद्ध भारतीय सैनिकों के संघर्ष को देख वृद्ध बहादुर शाह जफर ने अंग्रेजों को हिंदुस्तान से खदेड़ने का आह्वान कर डाला।
        क्रांतिकारियों ने दिल्ली और देश के अन्य हिस्सों में अंग्रेजों के विरुद्ध कड़ा संघर्ष किया। बहादुर शाह ज़फ़र अधिकांश समय नाम के शासक रहे,उनके पास वास्तविक सत्ता नहीं रही और वह अंग्रेज़ों पर आश्रित थे। 1857  में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम प्रारंभ होने के समय बहादुर शाह ज़फ़र की आयु 82 वर्ष की थी।
      क्रांति की असफलता के बाद सितम्बर 1857 ई. में अंग्रेज़ों ने  दिल्ली पर पुनः अधिकार कर लिया । कहते हैं कि जब मेजर हडसन (  जो उर्दू का थोड़ा ज्ञान रखता था) मुगल सम्राट को गिरफ्तार करने के लिए हुमायूं के मकबरे में पहुंचा (जहां पर बहादुर शाह ज़फर अपने दो बेटों के साथ छुपे हुए थे)तो उसने कहा -

"दमदमे में दम नहीं है ख़ैर मांगो जान की.. 
 ऐ ज़फर ठंडी हुई अब तेग हिंदुस्तान की.."

इस पर बादशाह ने उत्तर दिया-

"ग़ज़ियों  में बू  रहेगी जब  तलक ईमान की..
 तख़्त ऐ लंदन तक चलेगी तेग हिंदुस्तान की."
       बहादुर शाह ज़फ़र को गिरफ़्तार करके उन पर मुक़दमा चलाया गया तथा उन्हें बर्मा (वर्तमान म्यांमार) में रंगून निर्वासित कर दिया गया। जहाँ उनकी मृत्यु हुई ।
      बहादुर शाह ज़फ़र की शायरी में एक अलग तरह का दर्द छिपा हुआ है. विद्रोह और फिर उनके रंगून में निर्वासित होने के बाद ये ग़म और भी स्पष्ट तौर पर उनकी शायरी में नज़र आता है। मातृभूमि से दूर होने की उनके हृदय में अत्यंत पीड़ा थी। 
        प्रस्तुत हैं उनकी दो ग़ज़लें  जो उनकी मनोदशा एवं उनके अंदर के शायर का दिग्दर्शन करातीं हैं-
             
               न किसी की आँख का नूर हूँ..
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"न किसी की आँख का नूर हूँ,न किसीके दिलका क़रार हूँ,
जो  किसी के  काम न आ सके,  मैं वो एक मुश्ते ग़ुबार हूँ।

मेरा रंग-रूप  बिगड़  गया, मेरा  यार  मुझसे  बिछड़ गया, 
जो चमन ख़िज़ां से उजड़ गया,मैं उसी की फ़स्ले-बहार हूँ। 

पए फ़ातिहा  कोई आए क्यों, कोई  चार फूल चढ़ाए क्यों, 
कोई आ के शम्मा जलाए क्यों, मैं वो बेकसी का मज़ार हूँ। 

मैं नहीं हूं नग़्म-ए-जाँ फिज़ा,मुझे सुन के कोई करेगा क्या, 
मैं  बड़े ही रोग   की हूँ  सदा, मैं  बड़े  दुखी की पुकार हूं।

न 'ज़फ़र' किसीका रक़ीब हूँ ,न 'ज़फ़र' किसीका हबीब हूँ
जो बिगड़ गया वह नसीब हूँ ,जोउजड़ गया वह दयार हूँ।"

          बर्मा में निर्वासन के समय उनकी मनोदशा को दर्शाती उनकी यह  मशहूर ग़ज़ल आज भी उर्दू अदब का एक लोकप्रिय दस्तावेज है-
          
      लगता नहीं है जी मेरा उजड़े दयार में
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"लगता   नहीं   है जी  मेरा  उजड़े   दयार में,
किसकी  बनी  है    आलमे-ना-पायदार   में। 

बुलबुल   को   बाग़बां से ,न सय्याद से गिला, 
क़िस्मत   में  क़ैद थी लिखी  फ़स्ले-बहार में। 

कह दो इन  हसरतों  से  कहीं और  जा बसें, 
इतनी  जगह   कहाँ  है     दिले   दाग़दार में। 

एक शाख़े-गुल पे बैठ के, बुलबुल है शादमां, 
कांटे   बिछा   दिए   हैं    दिले-लालज़ार  में। 

उम्रे-दराज़   माँग    के   लाये   थे  चार दिन, 
दो    आरज़ू     में  कट  गए ,दो  इंतिज़ार में। 

दिन   ज़िंदगी   के ख़त्म हुए ,  शाम  हो गई
फैला     के   पाँव    सोएंगे, कुंजे  मज़ार  में। 

कितना   है  बदनसीब ज़फ़र , दफ़्न के लिए
दो गज़   ज़मीं भी मिल न सकी कू-ए-यार में। "
          
       ऐसे अजीम शायर एवं स्वाधीनता सेनानी को उनकी जयंती पर शत् शत् नमन। 

2 comments:

  1. बहुत अच्छा आलेख। बहादुर शाह ज़फ़र की शायरी लाजवाब है।

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