आज संत कबीर की जयंती है .साहित्य का विद्यार्थी न होते हुए भी साहित्यिक अभिरूचि के कारण हिन्दी साहित्य विशेषकर कवियों के साहित्य को पढ़ा है .मुझे कबीर के साहित्य ने सबसे अधिक प्रभावित किया है .कबीर ने यह सिद्ध किया कीए साहित्य समाज कान दर्पण ही नहीं समाज का मार्गदर्शक भी होता है .सामाजिक विग्यान के विद्यार्थी के लिये तो कबीर का साहित्य एक महत्वपूर्ण दिशा प्रदान करता है .
कबीर ने न केवल मानवीय मूल्यो-सत्य ,सदाचरण,परोपकार व समाजसेवा- को जन जन तक पहुचाया वरन् धार्मिक पाखण्डों व सामाजिक कुरीतियों पर भी जबरदस्त प्रहार किया .हिन्दू व मुस्लिंम दोनों संप्रदायों के पाखण्डों पर उन्होने चुटकी ली. यथा -
"माला फेरत जुग गया ,मन कान गया न फेर ,
कर का मनका डार दे,मनका ,मनका फेर .:
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" मस्जिद ऊपर मुल्ला पुकारे ,
क्या तेरा साहब बहरा है ."
आज भी जबकि हिन्दू ,मुस्लिम सदभाव को बिगाडने में राजनीतिक कारणो से अनेक तत्व सक्रिय हैं ,कबीर के विचार भारत की गंगा -यमुनी संस्कृति को बचाने में मार्गदर्शक सिद्ध हो सकते है .
मैं जब हाई स्कूल में था तब मेरे मेरे हिन्दी के अध्यापक ब्रह्मलीन श्री शालिग्राम चतुर्वेदी ने कबीर पढाते समय निम्नांकित पंक्तियाँ बतायी थीं वे मुझे आज भी याद हैं और कबीर की प्रासंगिकता को आज भी स्पष्ट करती हैं -
"जबकि दो महान शक्तियों में था भेदभाव ,
एक अंश भी न था ,एक दूसरे में चाव ,
शस्य श्यामला धरा की,रम्यमयी गोद में ,
उपजा था एक लाल ,
कर्मवीर , धर्मवीर था कबीर,
देश की दशा के मर्म को जानता था .
एक अविछिन्नपूर्ण ब्रह्म पहचानता था ."
धन्य है भारत की धरती ज़िसने ऐसे महात्मा को जन्म दिया .
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