Tuesday, November 28, 2017

एक कहानी सुनिये


        किशोरवय में मेरे बाबााजी (grand father  )ने मुझे  एक कहानी सुनायी थी-
        गंगा नदी के किनारे किसी कुंभ मेले की बात है.एक मालिन अपने बेटे की अंगुलि पकड़े ,सिर पर फूलों का टोकरा रखे गंगा तट पर फूल बेचने के लिये जा रही थी ,अचावक उसके बेटे को दीर्घशंका महसूस हुई. मालिन  ने इधर - उधर देख कर यात्रा मार्ग के किनारे सुनसान जगह बेटे को बिठा दिया. बाद में विष्ठा पर उसने ढेर सारे पुष्प डाल दिये और आगे बढ़ गयी.
          पीछे आने वाले तीर्थ यात्रियों  ने जब वहॉ पुष्पों का ढेर देखा,तो उन्हें लगा कि यह कोई पूजा का पवित्र स्थान है. वे उस पर  पुष्प और पैसे अर्पित करने लगे. गंगा के किनारे रहने वाले मुस्लिमों को भी लगा कि यह कोई सिद्ध पीर का स्थान है,वे भी उस पर फूल व पैसे डालने लगे.
        जब वहॉ धन एकत्र होने लगा तो एक गेरुआधारी वहॉ आकर बैठ गये और कहने लगे कि यह मेरे गुरु की समाधि है और मै उनका उत्तराधिकारी हूँ. मुस्लिमों ने जब यह देखा तो एक जालीदार टोपी पहने सज्जन भी यह दावा करने लगे कि यह उनके पीर की दरगाह है.
           मामले को सांप्रदायिक रंग लेते देख प्रशासन सक्रिय हुआ. यह निर्णय हुआ कि फूलों को हटा कर देखा जाये कि  नीचे क्या है.जब असलियत सामने आयी तो दोनों दावेदार व उनके समर्थक बहुत शर्मिंदा हुये.
        बाबा जी कहते थे कि अविवेकपूर्ण आस्था अंध श्रद्धा को जन्म देती है.
        मुझे लगता है इसी प्रकार राजनीतिक व सामाजिक मुद्दों पर अविवेकपूर्ण समर्थन अथवा विरोध ,अंध भक्ति व अंध विरोध को जन्म देता है जो न व्यक्ति के अपने हित में होता है ,और न समाज के.
        आज सुबह न्यूज सुनते समय फिल्म पद्मावती पर रोक पर दायर याचिका को अस्वीकार करते हुये माननीय सुप्रीम कोर्ट ने टिप्पणी करते हुये फिल्म को बिना देखे हुये बवाल पर  माननीयों की भूमिका पर सवाल खड़े करते हुये उन्हें जिस तरह लताड़ा है. और जिस तरह विभिन्न राज्यों के मुख्यमंत्री  राजनीतिक हित के लिये  इस बवाल पर जो रुख अपना रहे हैं,उससे मुझे बचपन में सुनी कहानी याद आ गयी.
       फिर नाक,कान काटने की धमकी व उस पर इनाम की घोषणा करना तो शायद हमारे यहॉ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अंतर्गत आता है.

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