Sunday, November 29, 2009

यह कैसी क़ुरबानी ?

ईद -उल -जुहा उर्फ़ बकरीद बीत गयी । कुर्बानी के नाम पर लाखों निरीह बकरे कुर्बान हो गए । आज तक मै यह नहीं समझ पाया कि इन बेजुबानों को मार कर व पका कर खाने से कैसी धार्मिक संतुष्टि मिलती है । मैंने अपने कई मुस्लिम मित्रों से इस बावत पूछा ,पर सभी का रटा -रटाया सा जबाब था कि यह कुर्बानी प्रतीकात्मक है और एक रिवाज के रूप में सदियों से स्थापित है अतः इस पर तर्क की ज्यादा गुंजायस नहीं है । इक्कीसवीं सदी में ऐसी तर्क आश्चर्यजनक भले ही लगते हों पर धार्मिक अंधविश्वासों कि जड़े कितनी गहरी होती है,यह भी स्पष्ट होता है।
अखबारों में ईद-उल-जुहा के महत्त्व के बारे में कई इस्लामिक विशेषज्ञों के विचार भी पढने को मिले । इस पर्व को आध्यात्मिक उन्नयन को प्रेरित करने वाला बताया गयाक़ुरबानी को अपनी प्यारी से प्यारी चीज को अल्लाह के नाम पर न्योछावर करने की प्रथा कहा गयाकुछ लोगों ने यह भी कहा कि कुर्बानी बुरी इच्छाओं एवं आदतों के परित्याग का प्रतीक है । पर निरीह जानवर को काट कर ऐसे लक्ष्य कैसे प्राप्त किये जा सकते हैं ?
मुस्लिम समाज में अब शिक्षा का व्यापक प्रसार हो चुका हैवहां पर भी जागरूक संवेदनशील लोगों कि एक अच्छीखासी जमात हैऐसी वीभत्स और सारहीन प्रथाओं के विरुद्ध इस समाज में भी आवाज उठनी चाहिये
बकरीद पर इस बार बकरे बहुत मँहगे बिके । कुछ बकरे तो कार से भी ज्यादा मँहगे थे । पच्चीस लाख तक का बकरा बिका । मैंने अपने एक परिचित ,जो घर से बाहर सर्विस पर नियुक्त हैं , को बकरीद पर मुबारकबाद के लिए फोन किया । उनकी बच्ची ने फोन रिसीव किया । मैंने पूछा कि कैसी बकरीद मनाई? उसने कहा कि इस बार कुर्बानी नहीं हो पायी क्यांकि पापा ने अपने एक दोस्त को कुर्बानी के लिए बकरा खरीदने के लिए पैसे दिये थे ,पर बकरा इतना मँहगा था कि ख़रीदा नहीं जा सका । मैने कहा ,"फ़िर क्या किया ?" उसने कहा कि जो पैसे बकरा खरीदने को निकाले थे , वह गरीबों में दान कार देंगें । मुझे लगा कि कुर्बानी के स्थान पर यदि यह विकल्प अपनाने पर मुस्लिम समाज विचार करे तो केवल लाखों बेजुबान जानवरों के खून से हाथ रँगने से बचा जा सकता है वरन इस पर्व के मूल में निहित 'मोह -माया का परित्याग क़र आध्यात्मिक विकास की ओर अग्रसर होना ' भावना को सही अर्थों में साकार किया जा सकता है।

Sunday, November 22, 2009

अंधेर नगरी ,चौपट राजा

महाराष्ट्र फ़िर सुर्ख़ियों में है । हताश शिवसेना के गाडफादर बाल ठाकरे पहले लोकसभा चुनावों में और फ़िर विधान सभा निर्वाचन चुनावों में अपनी हार पचा नहीं पा रहे हैं। कभी जनता ने उन्हें सर, आंखों पर बिठाया था और वे स्वयं को जनता का आका मानने लगे थेलोक सभा चुनावों में तो उन्होंने जनता को शिव सेना को वोट देने का आदेश तक दे डाला ,जैसे महाराष्ट्र उनकी जागीर हो और जनता उनकी गुलामजब जनता ने उन्हें उनकी औकात दिखा दी ,तो वे बौखला उठे
शिव सेना की बड़ी दुखती रग इस समय राज ठाकरे हैं । न केवल शिव सेना की दुर्दशा के लिए वे जिम्मेदार हैं बल्कि शिवसेना का जनाधार भी वे न चुरा ले जायें ,इस चिंता से भी बालासाहिब ठाकरे परेशान हैं । वे दिखाना चाहते हैं कि शिवसेना के तेवर अभी भी उनकी जवानी के समय वाले हैं ,राज ठाकरे तो उनकी नक़ल कर रहे हैं और मराठी अस्मिता के पुरोधा व रखवाले अब भी वही हैं। इस प्रयास में शिवसेना अविवेकपूर्ण गतिविधियाँ करती जा रही हैंचाहे I B M लोकमत के कार्यालय पर हमले का मामला हो अथवा बालठाकरे द्वारा 'सामना' में सचिन तेंदुलकर को नसीहत देने का प्रयास । इनसे देश भर में कितनी फजीहत हो रही है ,इसे बूढ़े शेर ,सठियाये ठाकरे देख नही पा रहे हैं।
ठाकरे तो खैर ठाकरे हैं ,पर कांग्रेस को क्या हो गया है?वह केन्द्र व महाराष्ट्र में सत्ता में है । संविधान व लोकतंत्र की रक्षा की जिम्मेवारी उसी की है। पर वह शिवसेना की फूट का मजा राज्य की कानून -व्यवस्था की कीमत पर ले रही है । ठाकरे परिवार को गुंडई करने की खुली छूट उसने दे रखी है ,ऐसा प्रतीत होता है। यह स्थिति देश के लिए खतरनाक है । मराठी अस्मिता के नाम पर क्षेत्रवाद की घातक प्रवृत्ति को जिस तरह से जानबूझ कर हवा दी जा रही है ,यदि देश के अन्य भागों में भी इसी तरह की प्रतिक्रिया होनी शुरू हो गयी तो देश झुलस जाएगा ,कांग्रेस को यह सोचना चहिये। अभी तो बस यही याद आता है -"अंधेर नगरी ,चौपट राजा "

Thursday, November 19, 2009

जनता की बदहाली पर पैकेज का मरहम -हकीकत या छलावा ?

एक लंबे इंतजार के बाद आख़िर बुन्देलखंड को केन्द्र सरकार से 7266 करोड़ रूपये का विशेष पैके मिल ही गया । उत्तर प्रदेश सात और मध्य प्रदेश के छः जिले अपनी बदहाली को खुशहाली में बदलने का सपना तो देख ही सकते है । देश की भ्रष्ट व्यवस्था एवं नौकरशाही के क्रियान्वन के बाद कितना पैसा वास्तव में विकास कार्य में लग पाता है ? इस पर संशय है । बुन्देलखंड की बदहाली किसी से छिपी नहीं है ।कर्ज के कारण किसान आत्महत्या कर रहे हैं । प्रायः यह क्षेत्र सूखे से ग्रसित रहता है,सिचाई के साधन अत्यल्प हैं और यही इसकी बदहाली का कारण है।
इस पैकेज में कई सकारात्मक उद्देश्यों को ध्यान में रखा गया है ,जैसे -किसानों की आय बढानेके लिए सघन विविध कृषि,पशु पालन व डेयरी जैसी योजनाओं का संचालन ; वर्षा जल संचयन आदि। योजना में उत्तर प्रदेश की सात लाख हेक्टेयर भूमि और मध्य प्रदेश की पाँच लाख हेक्टेयर भूमि को vatarshed development उपायों के लिए चुना जाएगा और बीस हजार कुओं और तीस हजार तालाबों का निर्माण होगा तथा उ ० प्र० के साठ हजार तथा म ० प्र ० के दो लाख हेक्टेयर वन क्षेत्र को एकीकृत वर्षा संरक्षण ,मृदा और बायोमास ट्रीटमेंट के लिए रखा जायेगा ।सूखे के प्रभाव को कम करने के लिए केन्द्र द्वारा राज्यों को केन्द्रीय सहायता देने का भरोसा दिया गया है।
यह योजना पिछले वर्ष राहुल गाँधी के बुन्देलखंड दौरे के बाद उनके प्रयासों के परिणामस्वरूप सामने आई है। इस पर सही ढंग से अमल हो यह देखना भी जरूरी है कि यह पैकेज भी चुनावी रणनीति के एक मोहरे की तरह छलावा सिद्ध न हो । वर्तमान में हमारे देश का पालिटिकल कल्चर यही दिख रहा है कि जितनी अधिक बातें गरीबों व किसानों कि कल्याण के बारें में हो रहीं हैं ,उतनी ही अधिक कठिनाइयाँ उनके जीवन में बढ़ रहीं हैं । बढती महगायी ने जीना हराम कर दिया है और भूखे पेट सोना उनकी विवशता बन गया है।
उम्मीद करनी चाहिये कि यह पैकेज बुन्देलखंड कि जनता के लिए छलावा सिद्ध नहीं होगा और केन्द्र व राज्य सरकारे मात्र श्रेय लेने की होड़ में वोट पालिटिक्स के चक्र में इसका सत्यानाश नहीं करेंगीं ।

Monday, November 16, 2009

वाह री कल्याण की मासूमियत

कल्याण सिंह एक लंबे समय से उत्तर प्रदेश की राजनीति में सक्रिय हैं । घाट -घाट का पानी उन्होंने पिया है । एक समय वे प्रदेश में भाजपा की रीढ़ थे,एक समर्पित कार्यकर्त्ता एवं आर० एस० एस० के करीबी थे । मुख्यमंत्री भी रहे । सत्ता से हटने के बाद भी वे भाजपा के कद्दावर नेता रहे और प्रदेश में अपने आगे किसी को टिकने नहीं दिया । भाजपा में परिवर्तन के दौर में जब भी उन्होंने अपने को उपेक्षित महसूस किया तो वे विफर उठे । राजनीति में यू- टर्न लेने में वे माहिर हैं ,वह भी बड़ी मासूमियत के साथ । कभी हिंदुत्व के प्रति आस्था ,कभी धर्मनिरपेक्षता के पुरोधा , कभी अटल जी को कोसना और फ़िर वापस आकर उनका गुणगान करना ,कभी मुलायम के विरोधी और कभी उनके साथ कंधे से कन्धा मिला कर चलने में आगेसारे विरोधाभासी रोल वे जिस खूबी मासूमियत से निभा लेते हैं ,उसकी कोई अन्य मिसाल भारतीय राजनीति में ढूढे नहीं मिलती । वे लोध जाति के है और मानते है कि सारे लोध उनके इशारों पर ही वोट देते है ।
कल जब मुलायम सिंह ने उनसे किनारा कर लिया तो उन्हें तत्वज्ञान हुआ कि मुलायम धोखेबाज हैं और उन्होंने भाजपा में जाने का मन बना लिया । जनता तो बेवकूफ है और नेताओं के इशारों की गुलाम है ,ऐसा मानने वाले नेताओं कि जमात में हैं कल्याण ।
वाह री मासूमियत कि गिरगिट भी शर्मा जाये और धन्य है हमारी जनता जो ऐसी लोगों को भी अपना प्रतिनिधि चुन लेती है

सहिष्णुता -विश्व शान्ति का आधार

आज सारा विश्व अंतर्राष्ट्रीय सहिष्णुता दिवस मना रहा है । वर्तमान में वैश्विक परिदृश्य अशांति , युद्ध ,आतंकवाद एवं अविश्वास के परिणामस्वरूप दहशत के जिस परिवेश में दिखाई दे रहा है उससे इस दिवस की सार्थकता और भी अधिक बढ़ जाती है । सहिष्णुता किसी भी समाज की स्थिरता का मापदंड है इसके अभाव में कोई भी राष्ट्रीय अथवा अंतर्राष्ट्रीय समाज सुख, शान्ति से विकास नहीं कर सकता । अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में जहाँ शक्ति ,प्रभाव और राष्ट्रीय हितों की पूर्ति के लिए निरंतर तनाव व संघर्ष युगों से जारी है ,वहाँ सहिष्णुता का विचार घने अंधकार में दीप की भाँति पथ प्रशस्त करता है । यदि हम ईमानदारी से चिंतन करें तो हम महसूस करेगें कि यदि सहिष्णुता को व्यक्ति ,राष्ट्र और विविध धर्मावलम्बी ह्रदय से अंगीकार कर लें , तो बहुत सी समस्यायों को हल करने में सहायता मिल सकती है ,चाहे वह सीमा विवाद हों अथवा जातीय या धार्मिक संघर्ष ।
यदि वास्तव में अंतर्राष्ट्रीय पटल पर सदभाव व सामंजस्य को स्थापित करना है तो अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में मान्य बहुत सी प्रस्थापनाओं को दरकिनार करना होगा जैसे -"अंतर्राष्ट्रीय राजनीति शक्ति के लिये एक संघर्ष है " अथवा "अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में कोई स्थायी मित्र या शत्रु नहीं होता ,केवल स्थायी हित होते हैं ।" राष्ट्रीय हित के नाम पर ये मान्यतायें केवल अवसरवादी प्रवृत्ति को ही प्रोत्साहन देतीं है। आज जब सारा विश्व एक अंतर्राष्ट्रीय इकाई बन गया है एवं वैश्वीकरण का युग प्रारम्भ हो चुका है ; मानव - अधिकारों के प्रति चेतना बढ़ रही है ,आतंकवाद के विरुद्ध सभी देश एकजुट हो रहें हैं ,तो ये परंपरागत प्रस्थापनाएँ अप्रासंगिक हो जानी चाहिये।
अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में 'शांतिपूर्ण सह -अस्तित्व ' का विचार द्वितीय विश्व - युद्ध के बाद महाशक्तियों के मध्य लंबे समय तक चले 'शीत युद्ध ' की निरर्थकता का अनुभव करने के बाद स्वीकार्य हुआ । यह भी महसूस किया गया कि मानवता की सुरक्षा के लिये 'जियो और जीने दो ' की मान्यता अपनानी ही होगी । सहिष्णुता के बिना ये सभी बेमानी हो जाते हैं । इसके लिये व्यापक दृष्टिकोण अपनाना होगा एवं सभी देशों को तथा लोगों को भी अपने सीमित स्वार्थों व हितों का परित्याग करने को तत्पर होना होगा ,तभी इस दिवस की सार्थकता होगी।

Thursday, November 12, 2009

जरा सोचिये भी -- कहते है ये पोस्टर

पिछले सप्ताह मै मध्य प्रदेश के शहर ग्वालियर गया । वहाँ पर स्टेट बैंक आफ इंदौर एम्प्लाइज यूनियन , प्र की जिला इकाई के अध्यक्ष तिलक सिंह राणा एवं सचिव अतुल प्रधान की ओर से प्रसारित पोस्टर लगे देखे जो किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को अपने दायित्वों के बारे में सोचने पर मजबूर कर देते है । प्रस्तुत है इन पोस्टरों में व्यक्त विचार -
(1)
हम कहते हैं -
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नगरपालिका कचरा नहीं उठाती है ;
फोन काम नहीं करता ;
रेलवे मजाक बन गया है ;
चिट्ठियां मंजिल तक नहीं पहुचतीं ।;
हम कहते है ,कहते रहते हैं,और कहते ही रहते हैं
इस बारे में करते क्या हैं?
# हम सिंगापुर में सड़कों पर सिगरेट का टुकडा कभी नहीं फेकते ;।
# हम वाशिंगटन में ५५मील प्रति घंटे की रफ्तार से ऊपर गाड़ी चलाने की हिमाकत नहीं करते और पलट कर यह नहीं पूछते कि ,"जानता है कि मै कौन हूँ ?"
# आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के समुद्र तटों पर हम खाली नारियल हवा में नहीं उछालते ।
# टोकियो में हम पान की पीक यहाँ -वहाँ क्यों नहीं थूकते ?
यह सब बातें हमारे ही बारे में हैं ,जी हाँ हमारे ही बारे में ।
# हम दूसरे देशों में व्यवस्था का आदर और पालन कर सकते हैं ,लेकिन अपनी व्यस्था का नहीं ।
# भारतीय धरती पर कदम रखते ही हम सिगरेट का टुकडा जहाँ -तहाँ फेकते हैं,कागजों के पुर्जे उछालते हैं
# यदि हम पराये देश में अनुशासित रह सकते हैं ,इओ यहाँ क्यों नहीं ?
हम सोचते है कि हमारा हर काम सरकार करेगी और हम धरती पर पड़ा कागज भी उठा कर कूडेदान में डालने की जहमत भी नहीं उठायेगेंरेलवे हमारे लिए साफ -सुथरे बाथरूम देगी ,पर हम उन्हें ठीक से इस्तेमाल करना भी नहीं सीखेगे
यह व्यवस्था है किसकी और इसे बदलेगा कौन ?
हम आसानी से कहेगें कि व्यवस्था में शामिल है हमारे पडौसी ,दूसरे अन्य शहर ,समुदाय और सरकार,लेकिन मै कतई नहीं ।
जब भी कुछ अच्छा करने की बारी आती है ,तो हम स्वयं को एवं अपने परिवार को अलग कर लेते हैं । हर कोई सरकार को गाली देने को तैयार है पर सकारात्मक योगदान के बारे में कोई नहीं सोचता । क्या हमने अपनी आत्मा को पैसे के हाथों गिरवी रख दिया है ? अगर मेरी इन बातों में कोई सार नजर आता है तो इसे सब अपनों को बताएँ।
डा पी जे अब्दुलकलाम
महामहिम राष्ट्रपति (भूतपूर्व )

(२)
कहीं देश की ही छुट्टी हो जाये
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वीर शहीदों ने त्याग और कुर्बानी की रोली रची थी ,
हम 'गणतंत्र दिवस 'की रैली में भी नहीं जाते हैं
उन्होंने हँसते -हँसते फंसी के फंदे को चूम लिया था ,
हम झंडे को भी सम्मान से सीने पर नहीं लगाते हैं
तब के लाल बचपन से ही देशभक्ति की घुट्टी पीते थे ,
हम बेहाल,'स्वतंत्रता दिवस ' पर केवल छुट्टी ही मनाते हैं
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इस 'छुट्टी ' के भाव से छुटकारा पाकर
यदि हमने अपने देश को दिल में नहीं बसाया ,
तो निश्चित ही एक दिन हमारी आजादी की छुट्टी हो जायेगी
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आइये ! केवल परेड, छुट्टी , नारों और आतिशबाजी से नहीं ,
देश से प्रीत कर सफलता और सम्पन्नता के गीत रचें ,
तन -मन और जीवन में राष्ट्रीयता के स्वर सजाएँ और कहें -
हमारा भारत - जान से प्यारा भारत
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ये पोस्टर हमें अपने दायित्वों की याद दिलाते हैं और एक नागरिक में जागरूकता का भाव पैदा करने का प्रयास करते हैं ।

Monday, November 9, 2009

अब तो जागो देश के कर्णधारो !

हमारे देश में निरंतर विधानसभाओं और संसद में नित नये तमाशे हो रहें है और सारा देश बार-बार शर्मसार होता है पर इन तथाकथित जनप्रतिनिधियों के कानों में जूँ नहीं रेगतीयह रोग बढ़ता ही जा रहा है और इसकी रोकथाम के लिये कोई सार्थक प्रयास नहीं हो रहें हैंएक दूसरे पर आरोप मढ़ने से तो कम नहीं चलने वालाकिसी किसी को तो इसकी जिम्मेवारी लेनी ही होगी
सवाल उठता है कि कौन इसके लिये ज्यादा दोषी है और किसे इसे रोकने का दायित्व निभाना चाहिये ? भारत के संसदीय इतिहास पर हम यदि दृष्टिपात करें तो स्पष्ट होता है सबसे अधिक समय तक केन्द्र व राज्यों में कांग्रेस सत्ता में रही है । जाहिर है कि इसकी जिम्मेदारी से कांग्रेस अपना पल्ला नहीं झाड़ सकती ।
संविधान लागू होने के बाद उसके अनुकूल राजनीतिक संस्कृति के निर्माण का दायित्व कांगेस का ही था । कांगेस को ही जनता एवं जनप्रतिनिधियों के मन में संसदीय लोकतंत्र के मूल्यों व मानकों के प्रति प्रतिबद्धता के माहौल को निर्मित करने के लिये एक योजना बनानी चाहिये थी । पर ऐसा नहीं किया गया। सबल विपक्ष के अभाव में कांग्रेस ने सत्ता को अपना विशेषाधिकार मान लिया और लोक -शिक्षण के अपने दायित्व से विमुख होकर केवल जोड़ -तोड़ तथा वोट की राजनीति का सहारा लियाकांग्रेस के वर्चस्व के समय से ही चुनावों में धन एवं बाहुबल कि शुरुआत हुई और प्रलोभनों से वोट पाने की प्रवृत्ति बढ़ी जबकि इस दल के नेतृत्त्व को यह देखना चाहिये था कि निचले स्तर पर आम चुनावों में उसके प्रत्याशी चुनावों में क्या हथकंडे अपना रहे हैं और इसके दूरगामी परिणाम क्या होंगें ?
देश में जितने भी राजनीतिक दल अस्तित्व में उनमें से अधिकांश का नेतृत्त्व किसी किसी रूप में कांग्रेस से ही निकला है यदि कांग्रेस ने लोकतान्त्रिक मूल्यों,मर्यादाओं और मानकों को जनमानस स्थापित करने के प्रयास किए होते तो आज इस शोचनीय स्थिति का सामना नहीं करना पड़तानेहरू से लेकर सोनिया तक के कांग्रेसी नेतृत्त्व ने कभी ऐसे प्रयास करने की जरूरत नहीं समझी

ऐसी स्थति पर केवल आँसू बहना ही इस समस्या का विकल्प नहीं है। हमें ऐसी असंसदीय हरकतों पर काबू पाने के लिये युद्ध स्तर पर उसी तरह प्रयास करने होंगें जैसे आतंकवाद का सामना करने के लिये कर रहें है। इसके लिये पहल भी कांग्रेस को ही करनी पड़ेगी। सभी दलों के बीच आमसहमति बना कर जनप्रतिनिधियों की संसदों व विधानसभाओं को सीमित दलीय हितों की दृष्टि से बंधक बनाने की हरकतों को दण्डनीय अपराध बनाना होगा। ऐसी गतिविधियों में लिप्त सदस्यों को आजीवन राजनीतिक बनवास देने की व्यवस्था करनी होगी । उनके राजनीतिक आकाओं को भी कानून का पाठ पढाना होगा। यदि जिम्मेदार पदों पर बैठे व्यक्ति हाथ पर हाथ धरे अब भी बैठे रहे ,तो वह दिन दूर नहीं जब लोकतंत्र से लोगों का विश्वास उठ जायेगाऔर आज जहाँ व्यव्स्थापिकाओं में थप्पड़ ,घूँसे चलते दिख रहे है ,वहाँ असलहों का भी प्रयोग होगा ।
जनता ने कांगेस को विकास , सुशासन एवं विश्वसनीयता के नाम पर वोट दिया है ,अतः कांगेस को ही अपने सीमित दलीय स्वार्थों को दरकिनार कर स्वस्थ परम्पराओं को स्थापित करने एवं संविधान की मर्यादाओं के उल्लंघन की बढती प्रवृत्ति को रोकने जिम्मेवारी निबाहनी ही होगी ,अन्यथा इतिहास इसे कभी माफ़ नहीं करेगा

हमारे लोकतंत्र पर फ़िर एक थप्पड़

महाराष्ट्र विधान सभा में आज राज ठाकरे की पार्टी का हंगामा और एम एन एस विधायक कदम द्वारा सपा विधायक अबू सलेम को मारे गए थप्पड़ की गूँजती आवाज फ़िर एक सवाल पूछती है कि कितना मजबूत है हमारा लोकतंत्र ? लोकतान्त्रिक व्यवस्था को अंगीकार किये छः दशकों से अधिक का समय बीतने के बाद भी बार -बार ऐसा प्रश्न हमारे सामने प्रायः आता है ,जो हमारे जनप्रतिनिधियों की असलियत को उजागर करता है । विधानसभाओं में हुई हिंसा और मारपीट की घटनायें प्रायः हमारे देश होती रहतीं है। संसद में भी लोकतान्त्रिक व संसदीय मर्यादाओं का कई बार मखौल उड़ता रहता है । हम केवल उनकी निंदा करके अथवा निराशा व्यक्त करके अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते है। कैसे इन प्रतिनिधि संस्थाओं में संसदीय अनुशासन स्थापित हो ? विरोधी दृष्टिकोण को भी सुनने की सहनशीलता विकसित हो ,यह आज की प्रमुख समस्या है
यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि राजनीतिक दलों की भूमिका इस सम्बन्ध में निराशाजनक एवं अवसरवादी रही है । वोट कि राजनीति में ये इतने अधिक लिप्त हो गये है कि राष्ट्रीय हित कि उपेक्षा करते इन्हें कोई संकोच नहीं होता । महाराष्ट्र का उदाहरण हमारे सामने है। चुनाव से पहले भी मराठी कार्ड को लेकर राज ठाकरे व शिव सेना की नूराकुश्ती को राष्ट्रीय दल मजा लेकर देखते रहे। २८८ सदस्यीय विधानसभा में राज के दल को मात्र तेरह सीटें मिलीं और पच्चीस सीटों पर दूसरा स्थान मिला,पर शिवसेना -भाजपा गठजोड़ का बंटाधार हो गया। इतनी छोटी सफलता से ही एम० एन० एस० के दिमाग सातवें आसमान पर पहुँच गये । राज ठाकरे ने हिटलरी फरमान जारी कर दिया कि सभी विधानसभा सदस्य मराठी में ही शपथ लें अन्यथा उन्हें सबक सिखाया जायेगा । सपा विधायक अबू सलेम ने हिन्दी में शपथ लेने कि घोषणा कर राज को चुनौती दी।
इस सारे घटनाक्रम का शर्मनाक पक्ष यह है कि केन्द्रीय सरकार अथवा राज्यसरकार के किसी भी नेता ने राज के इस फरमान का तो विरोध किया और ही विधानसभा में किसी अप्रिय घटना को रोकने कि कोई तैयारी ही की। घटना के समय सदन के मार्शलों का प्रयोग न किया जाना इस तथ्य की ओर संकेत करता है।
घटना के बाद यद्यपि सभी प्रमुख राजनीतिक दलों ने इस घटना की निंदा कीपर उनके स्वरों में औपचारिकता अधिक थीदोषियों को दण्डित कराने इच्छा अथवा ऐसी स्थितियों की पुनरावृत्ति होने देने की संकल्पबद्धता दूर -दूर तक नजर नहीं आयी । यद्यपि दोषी विधायकों को चार वर्ष के लिए निलंबित कर दिया गया पर राज ठाकरे के फरमान का मुखर विरोध महाराष्ट्र में किसी दल ने नहीं किया , केवल मीडिया ने इसे व्यापक स्तर पर चर्चा का विषय बनाया । ऐसी चुप्पी से ग़लत तत्वों का हौसला बढ़ता है और लोकतंत्र निरंतर गिरावट की ओर अग्रसर होता है।
जनप्रतिनिधियों की छवि समाज में निरंतर गिरती जा रही है जो इनकी अवसरवादिता ,गुंडई और असहिष्णुता का परिणाम हैकुछ वर्ष पूर्व उत्तर प्रदेश में हाईस्कूल में नागरिकशास्त्र के प्रश्नपत्र में एक प्रश्न पूछा गया ,"जनता द्वारा विधानसभा में चुने गये प्रतिनिधि को क्या कहते हैं ? " इसका सही उत्तर था -विधायकपर एक छात्र ने उत्तर लिखा -'हरामी '। कई समाचार पत्रों में यह वाकया छापायह घटना हमारे जनप्रतिनिधियों के कार्य-कलापों से बनी समाज में उनकी छवि की ओर इशारा तो करती ही है
महाराष्ट्र की घटना अत्यन्त दुर्भाग्यपूर्ण है । इसके लिए न केवल दोषियों के विरुद्ध कड़ी कार्यवाही होनी चाहिए वरन ऐसी उपाय किये जाने चाहिए जिनसे इस प्रकार का आचरण करने का किसी को भी दोबारा साहस न हो और हमारी जनतांत्रिक संसदीय पद्धति बार -बार विश्व में मजाक का पात्र न बने।